मानव की अद्भुत शोध “माचीस”| Match Box

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आजसे करीब 55 साल पहले मैने कई ऐसे लोगों को देखा था जो माचीस का उपयोग ना करते, चकमक के दो पत्थरों को आपसमे घिसकर अग्नि प्रज्जवलित करते थे. पत्थर को घिसते ही जो चिंगारी निकलती थी उसको कापुस रुई के सहारे जलाकर, अपनी बीड़ी जलाकर पीते थे. 

         गाँवसे दूर जंगल मे रहने वाले लोगों को तो माचीस भी मिलना दुर्लभ होती थी. अब सोचो जिस व्यक्ति ने माचीस की शोध की होगी, उसको कितनी मस्सकत करनी पड़ी होंगी ? आदिकाल मे दो सूखे पेड़ो की डाली को हवासे घिसकर अग्नि प्रज्जवलित होते देखकर मनुष्य अग्नि प्रज्जवलित करने सीखा. 

          उस प्रक्रिया पर संशोधन करके ब्रिटेन के वैज्ञानिक जॉन वाकर ने ता : 31 दिसंबर 1827 के दिन पहली बार माचीस का आविष्कार किया था. तब लकड़ी के टुकड़े पर गोंद, स्टार्च, एंटीमनी सल्फाइड, पोटैशियम क्लोरेट आदि लगाकर बनाया गया था, पर वह सलामत नहीं थी. 

          बादमे सन 1855 मे स्वीडन के टयुबकर ने दूसरे रासायनिक पदार्थों के मिश्रण का इस्तेमाल कर के एक अति सुरक्षित माचिस बनाई जो पूरी तरह सुरक्षित थी. जिनका वर्तमान तक इस्तेमाल किया जा रहा है. माचिस का आविष्कार मानव जाती के लिये वरदान है जिससे बिना मेहनत आसानी से आग जलाई जा सकती है.

            पहले माचीज़ की तीलिया हाथों से बनती थी. और हाथों से ही उसके सिरे पर मसाले लगाये जाते थे. माचिस के बॉक्स को भी लकड़ी के टुकड़ों के साथ बनाया जाता था. लेकिन बाद में इसे बनाने के लिए मशीनों का उपयोग होने लगा अब तो लकड़ी की तीली, लकड़ी के बॉक्स, तीलियों पर मसाला लगाना और सुखाना, बॉक्स पर मसाला लगाना और लेबल चिपकाना, बॉक्स में तीलियाँ भरना आदि सारे काम मशीनों के द्वारा होने लगा है. 

       वैसे हमारे भारत देश में माचीज़ का निर्माण सन 1895 से शुरू हुआ था. तब पहली फैक्ट्री अहमेदाबाद में और फिर कलकत्ता में खुली थी. स्वीडन की एक मैच मैन्युफैक्चरिंग कंपनी ने भारत में माचिस बनाने की कंपनी खोली थी. यह कंपनी वेस्टर्न इंडिया मैच कंपनी ( WIMCO ) के नाम से काम कर रही है. भारत में कुछ ही फ़ैक्टरीज़ ऐसी है जिनका सारा काम मशीनों से होता है, जबकि ज्यादातर फ़ैक्टरीज़ में हाथों से ही काम होता है.  

        माचीस बनाने के लिये एक लकड़ी की तीली ली जाती है और उसके एक भाग की नोक को पिघले हुए मोम या फिर गंधक में डुबोकर उस पर लाल फॉस्फोरस का मिश्रण लगाया जाता है फिर इस तीली से आग पैदा करने के लिए लकड़ी को माचिस की डिब्बी पर लगे रसायन पर रगड़ा जाता है तभी आग पैदा होती है.

        शुरुआती दौर मे माचिस को जलाने में बहुत मसक्कत करनी पडती थी. और इसे इस्तेमाल करना भी कठिन था , तथा इसके इस्तेमाल करने के कई खतरे भी होते थे. इसकी चिंगारी से विस्फोट होते थे. गंधक जलनेकी गंध तेज होती थी अतः बादमे संशोधन होते गया था. 

          सन 1832 में फ्रांस में ऐंटीमनी सल्फाइड की जगह पर फॉस्फोरस का प्रयोग किया गया जिससे इसकी गंध दूर हो गई लेकिन फिर एक और परेशानी आयी की इससे जो धुआं निकलता था वो बहुत विषैला था. इस विषैले धुंए के कारण कारखानों में काम करने वाले कई श्रमिकों में रोग फैलने लगा और कई लोगों की मौत भी हो गई थी. 

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           इसके बाद स्वीडन के ट्यूबकर ने दूसरे रासायनिक पदार्थों के मिश्रण का इस्तेमाल करके एक सुरक्षित माचिस बनाई जिनका आज तक इस्तेमाल किया जा रहा है. भारत में माचिस का निर्माण 1895 से शुरू हुआ लेकिन ये माचिस विदेश से बनकर आती थी फिर सन 1927 में शिवकाशी में नाडार बंधुओं द्वारा स्वदेशी माचिस उत्पादन शुरू किया गया था जिसका पहला कारखाना अहमदाबाद में खोला था. 

        आपने कभी आदि मानवोको दो लकडियोको आपसमे घिसकर अग्नि प्रज्जवलित करते डिस्कवरी चैनल पर देखा होगा. कितना कष्ट उठाने पड़ता था. मगर आज माचीस की लकड़ी घिसते या लाइटर ऑन करते ही अग्नि जलने लगती है. ये एक चमत्कारिक शोध है. 

        आपको जानकर ताजुब होगा की भारत मे माचीस की अब तक 100 से ज्यादा ब्रांड मार्किट मे आ चुकी है मगर आजकल शीप ( ship ) माचीस का चलन अधिक चल रहा है. जो वेस्टर्न इंडिया मैच कंपनी ( WIMCO ) की देन है. जिसको कंपनी ने सन 1942 मे मार्किट मे उतारी थी. कीमत सिर्फ 1.00 रूपया है. 

     माचीस को दियासलाई भी कहते है. भारत मे तमिलनाडु की घरेलु कंपनी को बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बढ़ती प्रतिस्पर्धा की वजह से मार्किट मे टिक पाना मुश्किल हो गया है. 

         तमिलनाडु के शिवकाशी, कोविलपट्टी, काझुगुमलई, एट्टैयाहपुरम, संकरनकोइल, सत्तुर, एझायिरंपन्नई, विरुदुनगर के कुछ कस्बों के कुटीर उद्योग मे कुल मिलाकर तकरीबन 250,000 लोग इससे रोजगार पाते हैं. 

     मजदूरी तथा कच्चे मालोमे हुई वृद्धी के कारण तमिलनाडु का कुटीर उद्योग अब मृतप्राय अवस्था मे जी रहा है. इसमे बाजार मे तेज तगड़ी प्रतिस्पर्धा के कारण उद्योग का भावी अंधकारमय होनेकी वजह अब यहाके उद्योग के कारीगर भी अन्य लाइन मे अपना भाग्य सुरक्षित करने जा रहे है. 

         इन सभी पहलूओ को देखते माचीस कुटीर उद्योग की नजर सरकार के राहत की राह देख रही है. 

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