मिरारोड भाईंदर शहर क्षेत्र का चश्मा उद्योग मृतप्राय अवस्था के कगार पर. Part -90

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मिरा भाईंदर शहर क्षेत्र अपने चश्मा लघुउद्योग के लिए भारत भर मे प्रसिद्ध था. आजसे 5 साल पहले यहांपर करीब 500 से भी ज्यादा विविध चश्मा बनाने वाली कंपनी विध्यमान थी. फिर समय ने करवट बदली और आज आलम ये है कि अब ये कंपनियों को उंगलियों पर गिनी जा सकती है.

इतना बदलाव क्यो आया ? कहा गये सब कारीगर ? इसकी चर्चा हम आज करेंगे….

मिरा भाईंदर मे चश्मा कंपनी की शुरुआत करीब 60 के दशक के प्रारंभ मे श्री चंदूलाल सेठ जी की वाड़ी के सामने, भाईंदर पश्चिम स्टेशन रोड स्थित श्री जयंतीलाल गांधी ने जापान से स्वयं संचालित मशीन मंगवाकर की थी. तब भाईंदर पाउडर और सीट के चश्मे के लिए जाना जाता था.

उसके बाद श्री रमाकांत कदम और श्री बबुड़ा कदम के पिताजी श्री महादेव कदम ने राव तालाब स्थित श्री शर्मा जी के साथ पार्टनरशिप मे चश्मा कंपनी डाली थी. राव तालाब स्थित श्री शंकर मंदिर के पास रहने वाले श्री वीरेन्द्र, हेमंत, धीमन शाह जी के परिवार ने भी चश्मा कंपनी डाली थी.

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बाद मे भाईंदर – पूर्व पश्चिम चश्मा कंपनी का केंद्र (HUB) बन गया. एक के बाद एक नयी कंपनी खुलती गई. लोगो को रोजी मिलने लगी और आगरी, माछी समाज के लोग जुड़ते गये और साल 2000 तक 500 से भी ज्यादा कंपनी अस्थित्व मे आयी.

उस समय एक सोल्डर मशीन, बफ मशीन, एक प्रेस मशीन, कैची, ड्रिल मशीन और डाय जिसे धोका कहते है, सब मिलाकर 25 – 30 हजार मे कंपनी शुरु हो जाती थी.

उस समय कूल ऑन, पायलट, चेतन गांधी, मुलुंड वाला, चेतन शाह, जैसे नामी लोग चश्मा उद्योग से जुड़े थे.

शुरु मे पाउडर से मोल्डिंग की गई फ्रेम बनती थी. फीर सीट को कटिंग करके, सीट की फ्रेम बनने लगी. फिर कार्बन और मेटल फ्रेम का भी जमाना आया. मेटल फ्रेम को रियल सोने को पिगालकर प्लेटिंग किया जाता था. जो अन्य फ्रेम से महंगी थी. कार्बन के बाद पॉलिमाईट का जमाना आया.

पॉलिमाईट वजन मे हलकी तथा टिकाऊ होनेकी वजह मार्किट मे धूम चली. लोग घर घर काम ले जाकर फिटिंग का लेबर जॉब करने लगे. यहीं कारण मेटल फ्रेम को मंदी के दिन देखने पड़े. इसी समय चाइना की सस्ती फ्रेम भारत इम्पोर्ट होने लगी. शुरु मे मार्किट को हिला दिया मगर चाइना की फ्रेम कमजोर होनेकी वजह, सस्ता रोये बार बार की तरफ मार्किट से दूर होने लगी.

फिर जमाना टीन एजेर फ्रेम का आया जो कॉलेज के विद्यार्थियों का पसंदीदा चश्मा बना.

सन 1910 के बादमे चश्मा कंपनी के बुरे दिन शुरु हो चुके, कम मजदूरी के कारण, एक के बाद एक कारीगर नगर पालिका तथा स्टील उद्योग की ओर जाने लगे. कारीगरों की कमी के कारण कांट्रेक्टर खुद अपनी कंपनी घर मे ले जाकर, खुद काम करने लगे.

फिर GST के समय कई कंपनी बंद हो गई. कारीगर लोग रिक्शा की ओर बढे और रिक्शा ड्राइवर बने या लोन से रिक्शा लेकर रिक्शा व्यवसाय मे जुड़ गये. कारीगर कम होनेसे लेबर कॉन्ट्रैक्टरो मे मंदी आयी.

दिल्ली, कोलकाता, मद्रास मार्किट तक जाने वाला चश्मा के कारीगरों की हालत आज कोमा अवस्था मे है. अब रहे चुने कारीगर बचे है. वो भी महंगाई का मार जेल रहे है.

मुंबई जैसे महानगरों मे आज भी आयात ( IMPORT ) की गई फ्रेम का डिमांड है. जो धनिक लोगोंमे हजारों मे बिकती है. फ़िल्म लाइन के अभिनेता तथा अभिनेत्री और बार मे काम करने वाली बारबाला नंबर का कॉन्टेक्ट लेंस पहनती है, जिससे चश्मा पहननेकी मुसीबत से छुटकारा मिलता है.

मिरा भाईंदर शहर क्षेत्र का ” तमसो मा ज्योतिर्गमय ” अर्थात अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला उद्योग अब मृतप्राय अवस्था मे है. इसके उपर विचार नहीं किया गया तो एक दिन इसका राम नाम सत्य होना ही है.

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