सन 1936 तक भाईंदर की जनसंख्या करीब 5000 की थी. उसके बाद सन 1961 मे यहांकी जनसंख्या करीबन 9500 तक हो गई.भारत देश की प्रथम अधिकृत जनगणना सन 1964 मे की गईं थी. बाद मे हुई सन 1981 की जन गणना के अनुसार भाईंदर की जन संख्या सिर्फ 35121 की थी. उसके बाद बस्ती विस्फोट हुआ और सन 1991 में तीन लाख पचास हाजर तक पहुंच गयी.
सन 2011 की जन संख्या के अनुसार मिरा भाईंदर की कुल जनसंख्या 8, 09, 387. की हो गई थी.
आलम यह हुआ की सुविधा की शून्यता ने समस्याओ का समंदर सर्जन किया. जन संख्या बढ़ती ही गई और आज सन 2020 मे मिरा भाईंदर की जनसंख्या करीब 15 लाख तक पहुंच गयी होनेका अंदाजा है.
अब यक्ष प्रश्न निर्माण यह होता है की यहां पर इतना बस्ती विस्फोट क्यू हुआ ? उत्तर आसान है. ये सभी नये आने वाले लोग उदरपूर्ति के लिये नौकरी पेशा को ढूंढते हुए यहां तक अपना वतन छोड़कर शहर मे आ पहुचे है.
मुंबई मे रोटला (रोटी ) तो हर किसीको मिल जाता है ! मगर सोने को ओटला नसीब नहीं होता . मुंबई के महंगे आवासों की वजह लोग, सस्ते आवास की खोज मे उपनगरों मे आकर बसने लगे, और शुरू हुआ समस्या ओका समुंदर.
बस्ती विस्फोट के अनुपात मे स्थानीय प्रशासन जन सुविधा मुहैया कराने मे असमर्थ रहा, अतः पानी, रोड, गटर, जैसी अनेक मूलभूत समस्या से जनता वंचित रही.
सर्व विदित है की शहर की जिंदगी से गांव की जिंदगी, शांत, स्फुर्तीली और स्वास्थय वर्धक होती है, मगर रोजगार की कमी के कारण पेट पालना मुश्किल होता है. लिहाजा लोग शहर की तरफ आकर्षित हुए.
21 वी सदी के शुरुआत मे पालघर, बोइसर, डहाणू, घोलवड और उमरगांव ( गुजरात ) से देहाड़ी लोग वसई, भाईंदर, मुंबई मे काम के लिये आते थे. मगर आज उमरगांव से वापी ( गुजरात ) तक अनेक छोटे बड़े उद्योगों की स्थापना हो गई है और आलम ये है की आज वेस्टर्न उपनगरों से कई लोग पालघर, बोइसर, डहाणू तक रोजगार पेशा के लिये उप डाउन करते है.
लोकशाही के चार स्तंभ है.
(1) न्यायपालिका,
(2) कार्यपालिका.
(3) विधायका.
(4) मीडिया.
इन चारो स्तंभ मे विधायका के उपर से जनता का विश्वास टूटता नजर आ रहा है. जनता भली भाति जानती है , की अधिनायक अपना अधिक समय ” कुर्सी खेच ” की राजनीती मे बिता रहे है. उनको जनता की नहीं , कुर्सी की फिकर है. सब जगह स्वार्थ की राजनीत हो रही है.
कार्यपालिका की कार्य पद्धति के बारेमें तो सब वाकिफ है. यहां पर भी कई गुना ज्यादा भ्रस्ट्राचार फैला है. सार्वजनिक टेंडरो मे, सार्वजनिक बांधकाम विभाग, और
” कर निर्धारक तथा संकलक विभाग ” इसका जीता जागता सबूत है. यहां पर कुछ दो और आगे बढ़ो की नीति काम कर रही है. चैन सिस्टिम से चलने वालों का काम आसानी से हो जाता है, वर्ना जूते घिसते रहो.
मिरा भाईंदर का कर विभाग, अपने भ्रस्ट्राचार के लिये चर्चित है. निष्पक्षता से पिछले 15 साल का व्यवहार चेक किया जाय तो करोड़ों का ढपला बाहर आ सकता है.
मगर ये करेगा कोण ? यहां तो तेरी भी चुप मेरी भी चुप जैसी हालत है.
शहर मे जब पत्रकारों का सम्मान किया जाता है तो खुशी होती है. उनको संबल मिलता है, मगर कोई पत्रकार रिश्वत ना देनेकी बदौलत किसी गरीब लोगोंके झोपड़े तुड़वाने की धमकी देने पहुंच जाता है, तो सर शरम से झुक जाता है. क्या पत्रकारों को यहीं काम बाकी रह गया था ?
कुछ पत्रकार अपनी ड्यूटी प्रमाणिकता से निभा रहे है. और समय पर जनहित मे ऐसे समाचारो को प्रकाशित करते रहते है, ऐसे पत्रकारों को सैलूट.
सार्वजनिक बांधकाम विभाग द्वारा अनधिकृत बांधकाम को ध्वंस किया जाता है. मगर प्रश्न ये निर्माण होता है, जब ये बनाया जाता है, तब स्थानीय नगर सेवक को इसकी भनक नहीं होती ? क्या उस एरिया का प्रभाग अधिकारी को ये पता नहीं होता ? सब सिस्टिम से काम चलता है. समुद्र की मछली जो जाल मे फस गई सो मर गई, बाकी सब बच गई जैसा आलम है !. लगता है , भ्रस्ट्राचार के भूत को भगाना मुश्किल नहीं नामुमकिन है.
क्या भ्रस्ट्राचार को निर्मूलन करना संभव है ?
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