वनमाला का नाम शायद ही आप लोगोंने सुना होगा. वह मराठी व हिंदी बाॅलीवुड फिल्मी इंडस्ट्रीज की पहली अभिनेत्री जो 20 साल का लंबा फिल्मी कैरियर छोड़कर संन्यासिनी बन गई थी.
उस जमाने के पृथ्वीराज कपूर से लेकर सोहराब मोदी, मोतीलाल जैसे दिग्गज अभिनेता उनके साथ अभिनय करना अपना सौभाग्य समझते थे.
अभिनेत्री वनमाला का वास्तविक नाम सुशीला पवार था. इनका जन्म 23 मई 1915 के दिन उज्जैन, मध्यप्रदेश में हुआ था. इनके पिता जी कर्नल राय बहादुर बापूराव आनंदराव पंवार ब्रिटिश हुकूमत में मालवा जिले और शिवपुरी के कलेक्टर थे.
अदाकारा वनमाला की माताजी का नाम सीता देवी था. उनकी चार बहनें और दो भाई थे. बापूराव पवार सिंधिया राज्य के एक रौबदार अधिकारी थे और उन्हें सिंधिया राज्य की ओर से कर्नल व राव बहादुर की उपाधि दी गई थी. उनके ही परिवार के आनंद राव पवार 2006 में मध्य प्रदेश में पुलिस महानिदेशक बने और इसी पद से सेवा निवृत्त हुए. श्री आनंद राव पवार वनमाला के भतीजे हैं.
पिता जी का ट्रांसफर हुआ तो पूरा परिवार उज्जैन से ग्वालियर आ गया. वनमाला के पिता ग्वालियर के सिंधिया राजघराने के करीबी थे, तो इन्हें वैसी सुविधाएं बचपन से मिलीं जैसी शाही परिवारों में मिलती हैं.
पिता जी ने वनमाला का दाखिला शहर की एक नामी सरदार डॉटर्स स्कूल ( द सिंधिया स्कूल ) में करवाया, जहां पर उन्होंने घुड़सवारी, स्विमिंग, शूटिंग, पोलो और फेंसिंग की ट्रेनिंग ली, जो शहर का सबसे बड़ा स्कूल था, जहां ज्यादातर रॉयल फैमिली के बच्चे ही पढ़ते थे. वनमाला के पिता आजादी के बाद ग्वालियर के राजा स्व. माधवराव सिंधिया के बनाए ट्रस्ट के मेंबर रहे थे.
बीते दिनों की सफलतम और बेहद खूबसूरत अभिनेत्री वनमाला को लेकर शांताराम जैसे दिग्गज फिल्मकार ने भी उनको लेकर मराठी और हिंदी की कई सफलतम फिल्में बनाई.
वनमाला ने जब फ़िल्म लाइन में अपने कॅरियर की शुरुआत की थी तब भारतीय फिल्मों में लड़कियों का काम करना ठीक नहीं समजा जाता था. फिर भी उन्होंने अभिनय में पदार्पण किया और तमाम आयामों के शिखरको छूआ.
उन्होंने दर्शकों को हँसाया, रुलाया और अपने अभिनय से दर्शकों को दीवाना बनाती रही.
अभिनेत्री वनमाला की पहली ब्लॉक बस्टर ऐतिहासिक फिल्म ” सिकंदर (1941) थी. मिनर्वा मूवीटोन के बैनर तले बनी इस फिल्म में उनके साथ में सोहराब मोदी और पृथ्वीराज कपूर ने अभिनय किया था. सोहराब मोदी ने इस फिल्ममें पोरस की और पृथ्वीराज कपूर ने अलेक्जेंडर की भूमिका निभाई थी.
फिल्म में ईरानी सुंदरी रूख्साना की भूमिका वनमाला ने निभाई थी. इस फिल्म में दो दिग्गज कलाकारों सोहराब मोदी और पृथ्वीराज कपूर के होने के बाद भी सबसे ज्यादा चर्चा वनमाला के अभिनय और सौंदर्य की ही हुई थी.
सन 1941 में रिलीज हुई फिल्म “चरणों की दासी” में दुर्गा खोटे जिन्होंने मुगले आज़म में जोधा बाई की भूमिका की थी उसमें वे सास बनीं थी. फ़िल्म में वनमाला ने क्रूर सास के सामने एक विनम्र मगर विद्रोही पुत्रवधू की भूमिका निभा कर अपनी ज़बर्दस्त छाप छोड़ी थी. इस फिल्म की लोकप्रियता का ये हाल था कि सिनेमाघर के बाहर लगाये गये वनमाला के बैनर और पोस्टर देखने के लिए लोगों की भीड़ लग जाती थी.
वनमाला ने सन 1936 से फिल्मों में काम करना शुरु किया और 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरु हो चुका था. वनमाला ने स्वाधीनता सेनानी अरुणा आसफ अली, अच्युत पटवर्धन और आचार्य नरेंद्र देव को अपने घर में छिपा के रखा जब ब्रिटिश पुलिस गिरफ्तार करने के लिए उन्हें खोज रही थी.
अभिनेत्री वनमाला ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से बीए करने वाली पहली छात्रा थी. इसके बाद वे 1936 में पुणे में अपनी मौसी के पास चली गई थी. वहाँ वनमाला आचार्य अत्रे के साथ आगरकर विद्यालय में पढ़ाने लगी थी.
वह उस समय की पहली महिला थी जिसने दो विषयों में एमए किया था. आचार्य अत्रे उस दौर के मराठी के जाने माने नाटककार थे और उनके पास उस जमाने के दिग्गज फिल्म निर्देशक बाबूराव पेंढारकर मास्टर विनायक और वी शांताराम आते रहते थे.
मास्टर विनायक और बाबूराव पेंढारकर ने नवयुग चित्रपट कंपनी बनाई थी. इस कंपनी ने मराठी फिल्म लपंडाव फिल्म का निर्माण किया गया था, जिसका हिंदी में आँखमिचौली के नाम से निर्माण किया था.
सन 1965 में उनका मन फिल्म जगत से उठ गया और वे वृंदावन जाकर साध्वी जैसा जीवन व्यतीत करने लगी. वृंदावन में उन्होंने नई पीढ़ी को भारतीय कला और संगीत से परिचित कराने के लिए हरिदास कला संस्थान की स्थापना की. संन्यासिनी जीवन में उन्होंने अपना फिल्मी नाम छोड़कर वापस बचपन का नाम सुशीला रख लिया.
फ़िल्म ” सिकंदर ” से वनमाला ने हिंदी सिनेमा में पदार्पण किया. फिल्म रिलीज हुई और वनमाला देशभर में रातों-रात स्टार बन गईं. मगर पिता की नाराजगी दूर नहीं हुई थी. जब सिकंदर फिल्म रिलीज हुई, उसी समय वनमाला के पिता ग्वालियर के रीगल सिनेमा में फिल्म देखने गये.
जैसे ही उन्होंने अपनी बेटी को पर्दे पर देखा तो बिना कुछ भी सोचे ही जेब में रखी पिस्तौल निकाली और स्क्रीन पर दिख रही बेटी की तरफ निशाना कर दाग दिया. पर्दा फट गया और सिनेमा घर में भगदड़ मच गई. इतना ही नहीं, उनके पिता ने ग्वालियर में अपनी बेटी की फिल्मों पर प्रतिबंध लगा दिया.
अपने घरवालों ने रिस्ता तोड़ दिया फिल्मों में वनमाला का अच्छा नाम हो चुका था, लेकिन,घरवालों से सारे रिश्ते टूटने का दुख वनमाला को खाए जा रहा था. पिता सुलह को तैयार न थे. मामले की चर्चा शहरभर में हुई तो कई हस्तियों ने पिता-पुत्री के बीच सुलह कराने की कोशिश की.
नामी लोगों के दबाव में पिता राजी तो हुए, लेकिन शर्त रखी कि घर वापस आना है तो फिल्में और फिल्मी दुनिया से नाता तोड़ना होगा. परिवार की तरफ से दबाव बढ़ने लगा तो वनमाला को आखिरकार झुकना ही पड़ा. करियर की बुलंदियों पर वनमाला ने फिल्में छोड़कर पिता और परिवार को चुना.
ग्वालियर आकर ना सिर्फ सुशीला ने फिल्में छोड़ीं, बल्कि जीवन का हर सुख और मोह त्याग दिया. वह मथुरा-वृंदावन में एक साध्वी बनकर जीवन जीने लगीं. वह आजीवन अविवाहित रहीं और समाज सेवा करती रहीं.
अभिनेत्री वनमाला जी उज्जैन में अपना जन्म होना सौभाग्य मानती थी जिस अवंतिका नगरी में कालिदास जैसा महान कवि हुआ था.
वनमाला ने अपने जीवन के अंतिम दिन ग्वालियर में बिताए थे. लम्बे समय तक कैंसर से पीड़ित वनमाला का निधन 92 वर्ष की आयु में ता : 29 मई, 2007 के दिन ग्वालियर में हो गया था. ता : 29 मई, 1971 को उनके प्रिय अभिनेता पृथ्वीराज कपूर का भी निधन हुआ था. जीवन के अंतिम समय तक वे कृष्ण भक्ति में डूबी रहीं और नाथद्वारा के श्रीनाथजी की प्रतिमा पर लगने वाले चंदन को सूँघकर दिन की शुरुआत करती थी.
वनमाला ने नृत्य की शिक्षा पं. लच्छू महाराज और संगीत की पं. सदाशिव राव, अमृत फुले, छम्मन खां से ली थी. उन्होंने 1941 से लेकर 1954 के समय कई हिंदी और मराठी फिल्में की. उनके बेहतर अभिनयके लिए उनको शांताराम अवॉर्ड मिला. सन 2004 में देश का सर्वोच्च सम्मान दादा साहेब फालके अवॉर्ड से भी नवाजा गया. घुड़सवारी और तीरंदाजी वनमाला के शौक थे तो उन्होंने कथक, कथकली और मणिपुरी जैसे शास्त्रीय नृत्यों में भी महारत हासिल की थी.
वनमाला ने अपने फिल्मी कैरियर में एक से एक सफल फिल्मों से अपने अभिनय की कला बिखेरी थी.महाकवि कालिदास, कादंबरी, मुस्कराहट, वसंत सेना, शहंशाह अकबर, राजा रानी, जैसी फिल्मों से लेकर चरणों की दासी (1941), वसंतसेना (1942), दिल की बात (1944), परबत पे अपना डेरा (1944) आरती (1945), शरबती आंखें (1945), खानदानी (1947) बीते दिन (1947 ), पहला प्यार (1947 ), हातिमताई (1947) बैचलर हसबेंड (1950) , आजादी की राह पर (1948), चन्द्रहास (1947), खानदानी (1947), हातिमताई (1947), बीते दिन (1947), अंगारे (1954), भक्त पुराण (1952 ), बैचलर हसबैंड (1950), श्रीराम भरत मिलाप (1965), पायाची दासी और मराठी फिल्म मोरूची मावशी. वसंत सेना फिल्म के निर्माण में भी उनकी प्रमुख भूमिका थी.
अभिनेत्री वनमाला हिन्दी, अंग्रेजी तथा मराठी तीनों भाषाओं में समान अधिकार रखती थी. वनमाला को मराठी फिल्म श्याम ची आई (1953) में अविस्मरणीय भूमिका के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रपति द्वारा प्रदत्त स्वर्ण कमल पुरस्कार दिया गया था.
इस तरह वनमाला भारत की पहली अभिनेत्री थी जिन्हें ये प्रतिष्ठित पुरस्कार दिया गया था. इस फिल्म का निर्देशन आचार्य प्रह्लाद केशव अत्रे ने किया था. जिसकी कहानी स्वतंत्रता सेनानी और प्रसिद्ध मराठी रचनाकार साने गुरुजी के आत्मकथात्मक उपन्यास पर आधारित है.
साने गुरुजी (1899 -1950) द्वारा लिखा गया उपन्यास “श्याम ची आई ” 20 वीं शताब्दी (1935) के सबसे प्रभावशाली मराठी उपन्यासों में से एक है. जेल में लिखा गया ये उपन्यास में श्याम कोंकण में रहने वाले घोर गरीबी में जीने वाले श्याम नामक युवा की कहानी है जो अपनी माँ के धार्मिक और व्यावहारिक संस्कारों के साथ जीता है.
वनमाला ने जब पहली बार साने गुरूजी का ये उपन्यास पढ़ा तो उसे पढ़कर उनकी आँखों से आंसू बहने लगे उन्होंने तत्काल साने गुरुजी से संपर्क किया और पाँच सौ रुपये देकर इस उपन्यास पर फिल्म बनाने के अधिकार हासिल कर लिए. उन्होंने इस फिल्म का निर्माण भी किया और शानदार अभिनय भी किया.
इस फिल्म में वनमाला ने ऐसी माँ की भूमिका की थी जिसका पति एक बेटा छोड़कर मर जाता है. घरेलू काम कर वह अपने बेटे को पढ़ाती-लिखाती है और उसे बड़ा आदमी बनाती है. इस फिल्म में माँ की अविस्मरणीय भूमिका के लिए ही उन्हें राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत किया गया था.
उज्जैन शहर में जन्मी होने के कारण वे चाहती थी कि उनके अपने शहर की किसी कहानी पर कोई फिल्म बने और वे इसमें अभिनय भी करें. इसके लिए उन्होंने प्राचीन उज्जयिनी के लेखक शूद्रक के नाटक मृच्छकटिकम की नायिका वसंतसेना में मुख्य नायिका की भूमिका करके अपनी इच्छा पूरी की.
एक समर्थ, सशक्त, लोकप्रियता की तमाम उचाईयां छूने के बाद साध्वी बनकर वृंदावन चली गई. फिर उन्होंने अपने अंतिम दिन ग्वालियर में बिताए. लम्बे समय तक कैंसर बीमारी से पीड़ित वनमाला का निधन 92 वर्ष की आयु में 29 मई, 2007 को ग्वालियर में हो गया.