“अमानवीय गुलामी प्रथा”|Slavery

gulami

गुलामी प्रथा की हम लोग बात करते है तो आजसे 200 साल पहले अमेरिका के 16 वे राष्ट्रपति श्री अब्राहम लिंकन की हमें याद आती है जिन्होंने गुलामी प्रथा नेष्ट नाबूद करने के लिये भगीरथ कार्य किया था. 

      गुलामी प्रथा की यातना कई देश के लोगोंने सहन की है. रुस हो या पूर्वी यूरोप, आफ्रिका हो या ब्राजील. चीन हो या बर्मा, थाईलैंड मलेशिया, इंडोनेशिया और फिलीपींस मे इसका प्रमाण कुछ ज्यादा ही रहा है. 

       अश्वेत महिलाओं और बच्चों से मज़दूरी कराई जाती है. महिला ओको प्रताड़ित किया जाता है, उनका यौन शोषण किया जाता है. मना करने पर, मारना पीटना जैसा अमानवीय कृत्य किया जाता है. 

अरब कंट्री मे धनाढ्य बुजुर्ग आरबो द्वारा भारत की नाबालिग लड़की ओकी तस्करी कोई नई बात नहीं है. बताया जाता है कि दुनियाभर में क़रीब पौने तीन करोड़ लोग ग़ुलाम है. 

       कई देशो मे गुलाम प्रथा ( दास प्रथा ) को सरकार की मान्यता मिली हुई है. दक्षिण एशिया के भारत, पाकिस्तान और नेपाल मे भी बंधुआ मज़दूरी के तौर पर ग़ुलामी की प्रथा जारी थी मगर सरकार ने 1975 में राष्ट्रपति के एक अध्यादेश के ज़रिए बंधुआ मज़दूर प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया था.  

       बंधुआ भी एक प्रकार की गुलामी का ही प्रकार है जो शाहूकार के पास कर्ज लेकर बंधा हुआ रहता है.   

        भारत के श्रम व रोज़गार मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में 19 प्रदेशों से 31 मार्च तक देशभर में दो लाख 86 हज़ार 612 बंधुआ मज़दूरों की पहचान की गई और उन्हें मुक्त कराया गया. नवंबर तक एकमात्र राज्य उत्तर प्रदेश के 28 हज़ार 385 में से केवल 58 बंधुआ मज़दूरों को पुनर्वासित किया गया, जबकि 18 राज्योंमें से एक भी बंधुआ मज़दूर को पुनर्वासित नहीं किया गया.

        इस रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में सबसे ज्यादा तमिलनाडु में 65 हज़ार 573 बंधुआ मज़दूरों की पहचान कर उन्हें मुक्त कराया गया. कनार्टक में 63 हज़ार 437 और उड़ीसा में 50 हज़ार 29 बंधुआ मज़दूरों को मुक्त कराया गया.  

        रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि 19 राज्यों को 68 करोड़ 68 लाख 42 हज़ार रुपए की केंद्रीय सहायता मुहैया कराई गई, जिसमें सबसे ज़्यादा सहायता 16 करोड़ 61 लाख 66 हज़ार 94 रुपए राजस्थान को दिए गए. इसके बाद 15 करोड़ 78 लाख 18 हज़ार रुपए कर्नाटक और नौ कराड़ तीन लाख 34 हज़ार रुपए उड़ीसा को मुहैया कराए गए. इसी समयावधि के दौरान सबसे कम केंद्रीय सहायता उत्तराखंड को मुहैया कराई गई.

      उत्तर प्रदेश को पांच लाख 80 हज़ार रुपए की केंद्रीय सहायता दी गई. इसके अलावा अरुणाचल प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली,गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड को 31 मार्च 2006 तक बंधुआ बच्चों का सर्वेक्षण कराने, मूल्यांकन अध्ययन कराने और जागरूकता सृजन कार्यक्रमों के लिए चार करोड़ 20 लाख रुपए की राशि दी गई थी. 

        भारत में सदियों से किसान गांवों के साहूकारों से खाद, बीज, रसायनों और कृषि उपकरणों आदि के लिए क़र्ज़ लेते हैं. इस क़ज़ के बदले उन्हें अपने घर और खेत तक गिरवी रखने पड़ते हैं, क़र्ज़ से कई गुना रक़म चुकाने के बाद भी जब उनका क़र्ज़ नहीं उतर पाता, यहां तक कि उनके घर और खेत तक साहूकारों के पास चले जाते हैं. इसके बाद उन्हें साहूकारों के खेतों पर बंधुआ मज़दूर के तौर पर काम करना पड़ता है. इससे किसानों की कई नस्लें तक साहूकारों की बंधुआ बनकर रह जाती हैं. 

     बिहार के पाईपुरा मे जवाहर मांझी को 40 किलो चावल के बदले अपनी पत्नी और चार बच्चों के साथ 30 साल तक बंधुआ मज़दूरी करनी पड़ी. क़रीब तीन साल पहले यह मामला सरकार की नज़र में आया था.  

       दास प्रथा की शुरुआत चीन में ईसा पूर्व 18 से 12 वीं शताब्दी के करीब अस्थित्व मे थी. भारत के प्राचीन ग्रंथ मनु स्मृति में दास प्रथा का उल्लेख किया गया है. ग़ुलाम प्रथा के ख़िलाफ़ दुनियाभर में आवाज़ें बुलंद होने लगीं थी इस पर 1807 में ब्रिटेन ने दास प्रथा उन्मूलन क़ानून के तहत अपने देश में अफ्रीकी ग़ुलामों की ख़रीद फ़रोख्त पर पाबंदी लगा दी थी. सन 1808 में अमेरिकी कांग्रेस ने ग़ुलामी के आयात पर प्रतिबंध लगा दियाथा. सन 1833 तक यह क़ानून पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में लागू कर दिया गया था.  

         आज यक्ष प्रश्न बना हुआ है कि आजादी के 70 साल बाद भी हम लोग गुलामी जैसी हालत मैं जी रहे है. मध्यम वर्गीय लोग, दो टंक का खाना जुटाने मे दिन रात एक कर रहे है. ये लोग, जिसे हम आम आदमी , कॉमन मेन कहते है, वो तो कोल्हू के तेल की तरह पीसे जा रहे है. 

        न्याय मागने जाओ तो 15 साल बाद मे मिलता है. न्यायालय मे विलंब ही न्यायालय की निष्फलता है. लाइट का बिल हो या पालिका का घरपत्ती बिल, घन कचरा बिल हो या अन्य कोई बिल, बीना सोचे समजे थोप दीया जाता है. आम आदमी लाचार, निसहाय, असमंजस मे जी रहा है. क्या इसे आप लोग दास प्रथा नहीं कहेँगे ? 

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