गांडीव धनुष : आप लोगोंने गांडीव धनुष की खासियत को अवश्य सुना होगा कि इसे अर्जुन के सिवाय दूसरा कोई और नहीं उठा सकता है. इसी तरह तरकश के तीर कभी खत्म नहीं होते थे. यह अर्जुन को कैसे हासिल हुआ, इसको लेकर कुछ प्रचलित कथाएं को जानते हैं.
महाभारत के युद्ध में अर्जुन के पास गांडीव नाम का एक दिव्य धनुष था जो हजारों तीरों का सामना कर सकता था और ऐसा अक्षय तरकश था जिसके बाण कभी खत्म नहीं होते थे क्योंकि उससे चलाए गए वाण तरकश में वापस लौट आते थे. कहते हैं कि इस धनुष और तरकश को बनाने के लिए दधीचि ऋषि ने अपनी हड्डियां दान कर दी थी.
प्रथम कथा :
पौराणिक कथाओं के अनुसार कठोर तप कर रहे कण्व ऋषि के शरीर पर दीमकों ने बांबी बना दिया था. बांबी और आसपासकी मिट्टी पर सुंदर गठीले बांस उग आए. ऋषि की तपस्या पूरी हुई तो ब्रह्माजी ने प्रकट होकर वरदान दिया, लेकिन जब जाने लगे तो ध्यान आया कि कण्व की मूर्धा पर उगे बांस सामान्य नहीं हो सकते, इसलिए इसका सदुपयोग करना चाहिए. तब ब्रह्माजी ने खुद उसे काटकर भगवान विश्वकर्मा को दिया जिन्होंने उससे तीन धनुष पिनाक, शार्ङग और गांडीव बनाए.
इन तीनों धनुषों को ब्रह्माजी ने शंकरजी को दिया और उन्होंने देवराज इंद्र को दे दिया. इस तरह इंद्र के पास से पिनाक परशुराम और फिर राजा जनक के पास पहुंचा. जनक की सभा में इसे श्रीराम ने तोड़ा. गांडीव वरुणदेव को मिला था, जिसे उन्होंने अग्निदेव को सौंपा था, जिनसे प्रार्थना कर अर्जुन ने इसे लिया था. मान्यता है कि गांडीव धनुष अलौकिक था, यह किसी शस्त्र से नष्ट नहीं हो सकता था और अन्य लाख धनुषों का सामना कर सकता था. जो भी इसे धारण करता था, उसमें शक्ति संचार हो जाती था.
दूसरी कथा :
कौरव, पांडवों के बीच राज्य बंटवारे की कलहके बाद धृतराष्ट्र ने खांडवप्रस्थ नामक जंगल को देकर पांडवों को कुछ समय तक शांत कर दिया. पांडवों के सामने उसे नगर बनाने की चुनौती थी. यमुना किनारे बीहड़ वन था, जिसका नाम खांडव वन था. पहले इस जंगल में एक नगर होता था, फिर नष्ट हो गया और खंडहर ही बचे.
श्रीकृष्ण अर्जुन को खांडव वन ले जाते हैं तो अर्जुन पूछते हैं कि हम इसे कैसे राजधानी बना पाएंगे. ऐसे में श्रीकृष्ण भगवान विश्वकर्मा का आह्वान करते हैं. विश्वकर्माजी प्रकट होकर कहते हैं कि हे प्रभु, खांडवप्रस्थ को मयासुर ने बसाया था, वह यहां के चप्पे-चप्पे को जानता है, आप उनसे राजधानी बनवाएं तो उचित होगा.
स्मरण पर मयासुर श्रीकृष्ण, अर्जुन और भगवान विश्वकर्मा को खंडहर में ले जाते हैं. जहां खंडहर में एक रथ मिलता है. मयासुर बताते हैं कि श्रीकृष्ण, यह सोने का रथ पूर्वकाल के महाराजा सोम का रथ है, यह मनचाही जगह ले जाने में समर्थ है. रथ में कौमुद गदा है, जिसे भीम के अलावा और कोई उठा नहीं सकता है. यहीं गांडीव धनुष मिलता है, जो अद्भुत और दिव्य है.
इसे दैत्यराज वृषपर्वा ने शंकरजी की आराधना से हासिल किया था. श्रीकृष्ण ने धनुष उठाकर अर्जुन को दिया और कहा कि इस दिव्य धनुष पर तुम दिव्य बाणों को साध सकोगे. मयासुर अर्जुन को एक अक्षय तरकश भी देते हैं और बताते हैं कि इसके बाण कभी खत्म नहीं होंगे. इसे खुद अग्निदेव ने दैत्यराज को दिया था. विश्वकर्मा जी कहते हैं कि आज से इस समस्त संपत्ति के आप अधिकारी हो गए हैं पांडुपुत्र. इसके बाद विश्वकर्मा और मयासुर मिलकर इंद्रप्रस्थ नगर का निर्माण शुरू करते हैं.
तीसरी कथा :
पौराणिक कथाओं के अनुसार भृगुवंशियों ने राजा बलि से विश्वजीत के लिए यज्ञ कराया था, इससे अग्निदेव प्रकट हुए. उन्होंने राजा बलि को सोने का दिव्य रथ, घोड़े, दिव्य धनुष और दो अक्षय तीर दिए. प्रहलाद ने न सूखने वाली दिव्य माला और शुक्राचार्य ने दिव्य शंख दिया. इनसे राजा बलि ने इंद्र को हरा दिया था.
इसी तरह एक और कथा है कि श्वैतकि यज्ञ में निरंतर 12 वर्षों तक घृतपान के बाद अग्निदेव को तृप्ति के साथ-साथ अपच हो गया. वे ब्रह्मा के पास गए तो ब्रह्माजी ने कहा कि यदि वे खांडव वन जला देंगे तो विभिन्न जंतुओं से तृप्त होने पर अरुचि खत्म हो जाएगी.
अग्निदेव ने कई प्रयत्न किए, मगर इंद्र ने तक्षक नाग, जानवरों की रक्षा के लिए खांडव वन नहीं जलाने दिया. ऐसे में ब्रह्मा से कहा कि अर्जुन और कृष्ण खांडव वन के निकट बैठे हैं, उनसे प्रार्थना करें. अग्निदेव ने दोनों से भोजन के रूप में खांडव वन की याचना की तो अर्जुन के यह कहने पर भी कि उनके पास धनुष, अमित बाणों से युक्त तरकश और वेगवान रथ नहीं है. अग्निदेव ने वरुणदेव का आवाह्न कर गांडीव धनुष, अक्षय तरकश, दिव्य घोड़ों से जुता रथ लेकर अर्जुन को सौंप दिया.
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