” वारली ” एक जनजाति है. जो महाराष्ट्र् राज्य के पालघर जिले के दहाणु , तलासरी एवं ज्वाहर तालुका में अन्य जनजातियों के साथ पायी जाती है. ये जाती बहुत ही मेहनती और कृषि में रूचि रखने वाले लोग होते है. जो बास, लकडी, घास एवं मिट्टी से बनी झोपडियों में रहतें है.
झोपडियों की दीवारे लाल काडू मिट्टि एवं बांस से बांध कर बनाई जाती है. दीवारो को पहले लाल मिट्टि से लेपा जाता है , उसके बाद ऊपर से गाय के गोबर से लिपाई की जाती है. वारली चित्रकला एक प्राचीन भारतीय कला है जो की महाराष्ट्र की एक जनजाति वारली द्वारा बनाई जाती है.
यह कला आदिवासी जीवन के मूल सिद्धांतो को प्रस्तुत करती है. इन चित्रों मैं खास करके फसल पैदावार ऋतु , शादी, उत्सव, जन्म और धार्मिकता को दर्शाया जाता है. यह चित्र कला वारली जनजाति के सरल जीवन को दर्शाती है. वारली कलाओं के प्रमुख विषयों में शादी का बड़ा स्थान हैं. शादी के चित्रों में देव, पलघाट, पक्षी, पेड़, पुरुष और महिलायें साथ में नाचते हुए दर्शाते है.
ये वारली अथवा वार्ली आदिवासी जाती भारत के महाराष्ट्र राज्य के कुछ हिस्सों में पाये जाते हैं. वारली लोग एक स्वदेशी जनजाति या आदिवासी हैं. ये महाराष्ट्र और गुजरात के सीमा के तटीय क्षेत्रों और आसपास के पहाड़ी एरिया में रहते हैं. वारली जन् जाति की अपनी खुद कि धार्मिक मान्यताओं, परंपराओं, संस्कृति हैं जिनको वें मानते है.यह लोग वारली नाम की एक अलिखित भाषा में बात करते हैं जो की दक्षिणी क्षेत्र के भरतीय-आर्य भाषाओं में आती है.
ये जाती महाराष्ट्र के पालघर जिले के डहाणू और तलासरी तालुकों तथा नाशिक और धुले जिलों, गुजरात के वलसाड जिले और दादरा और नगर हवेली तथा दमन और दीव के संघ क्षेत्रों में रहते हैं. उनकी अपनी मान्यताएं, जीवन शैली, रीति रिवाज़ और परंपराएं हैं जो सामासिक हिंदू संस्कृति का भाग हैं. वार्ली वर्ली भाषा बोलते हैं जो मराठी की एक उपभाषा हैं.
वार्ली शब्द का वार्ली अर्थ होता है कि, “भूमि का टुकड़ा” या ” मैदान.”
वारली चित्रकला :
” वार्ली ” कलाकृतियां अक्षर विवाह के समय विशेष रूप से बनाई जाती थीं. इन्हें शुभ माना जाता है और आदिवासी इसके बिना विवाह को अधूरा समजते है. प्रकृति की प्रेमी यह जनजाति अपना प्रकृति प्रेम वरली कला में बड़ी गहराई से चित्रित करती हैं. त्रिकोण आकृतियों में ढले आदमी और जानवर, रेखाओं में चित्रित हाथ-पांव तथा बिन्दु और रेखा ओं से बने इन चित्रों को महिलाएं घर में मिट्टी की दीवारों पर बनाती थीं.
सामाजिक अवसरों के अतिरिक्त दिवाली, होली के उत्सवों पर भी घर की बाहरी दीवारों पर चौक बनाए जाते हैं. यह सारे त्योहार खेतों में कटाई के समय ही आते हैं इसलिए इस समय कला में ताजे चावल का आटा इस्तेमाल किया जाता है.
रंगने का काम अभी भी पौधों की छोटी-छोटी तीलियों से ही किया जाता है. दो चित्रों में अच्छा खासा अंतर होता है. एक एक चित्र अलग अलग घटनाएं दर्शाता है. वरली जाति में माश नामक व्यक्ति ने इस कला को व्यावहारिक रूप दिया था. उसने वरली लोककला को महाराष्ट्र से बाहर ले जाने की हिम्मत दिखाई और इस कला में अनेक प्रयोग किए. उन्होंने लोक कथाओं के साथ पौराणिक कथाओं को भी वरली शैली में चित्रित किया. वाघदेव, धरती मां और पांडुराजा के जीवन काल को भी वरली शैली में चित्रित किया.
यशोधरा डालमिया ने अपनी एक पुस्तक द पेंटेड वर्ल्ड ऑफ़ द वार्लीस में दावा किया है कि वार्ली चित्र की परंपरा 2500 या 3000 समान युग पूर्व से है. उनके भित्ति चित्र 500 और 10,000 के समान युग पूर्व के बीच मध्य प्रदेश में भीमबेटका में रॉक शेल्टर्स में किए गए के समान हैं.
वार्ली अपने चित्रों के लिए केवल सफ़ेद का उपयोग करते हैं. सफ़ेद रंग चावल की लई और पानी का मिश्रण है जिसे गोंद जोड़ती है. ये लोग बांस की एक छड़ी को सिरे पर से चबाकर नरम करके तूलिका के रूप में उपयोग करते हैं. भित्तिचित्र शादियों या फसल जैसे विशेष अवसरों के लिए ही बनाए जाते है. आदिवासी की देशी प्रथाएं इस बात का सबूत हैं कि निरक्षर होने के बावजूद किस तरह उनके के पास पर्यावरण के संरक्षण का तंत्र था.
वार्ली लोग प्रकृति को माँ समजते हैं. यह उनके सभी सीमा रीति-रिवाज़ों और परंपराओं की धुरी है. वह बच्चे को बाघ या भालूया किसी भी जंगली जानवर से न डरने के लिए और ” प्रकृति की शक्तियों ” से पलायन न करने के लिए कहती है.