मतदान प्रक्रियामें सुधारकी आवश्यकता
राष्ट्र के निर्माण में मतदान अहम् भूमिका निभाता हैं. मतदान सिस्टम को लेकर मतदाता और राष्ट्रीय पक्षों को भी नाराजगी हैं, ऐसे में मतदान सिस्टम में सुधार लानेकी अति अवश्यकता हैं.
आजतक हम देखते आ रहे हैं कि ज्यादातर चुनावों में 45% से 60% तक ही मतदान होता हैं. इसके पीछे का कारण एक नहीं, अनेक हो सकते हैं.
जैसे….
*** कुछ मतदाता की मौत हो चुकी हो लेकिन इनके परिवार वालों ने वोटर लिस्ट से इनके नाम नहीं कटवाए हो.
*** अस्थाई रूपसे भाड़े से रहने वाले लोग दूसरी जगह शिफ्ट हो गए लेकिन उन्होंने अपने पुराने वाले पते के नाम नहीं कटवाए हो.
*** एक ही नामके मतदाता का सुचिमे दुबारा नाम आ गया हो.
*** यदि वोटरों को बूथ तक लाने के लिए जितने प्रयास होने चाहिए वो असल में उतने प्रयास नहीं हो तो भी मतदान में कमी आ सकती हैं.
*** कभी कुछ स्टूडेंट्स दूसरी जगह पढ़ाई कर रहे होते हैं और होस्टल में या किराए पर रहते हैं, वे भी वोट डालने नहीं आ पाते जिससे कम मतदान हो सकता हैं.
*** वृद्ध लोग या अकेली गृहिणी भी वोट देने में संकोच करती है. कुछ लोग बीमार हो सकते हैं, कुछ लोगों की शादी होने पर दूसरी जगह जाने से मतदान कम हो सकता हैं.
चुनावी प्रक्रिया :
भारत में चुनाव का एक ऐसा चक्र बना हुआ है, जिससे ऐसा लगता है कि देश में चुनाव होते ही रहते हैं. आजादी के बाद से देश में कई चुनाव सम्पन्न हुए हैं, जिससे अक्सर संसाधनों और प्रशासनिक मशीनरी पर काफी दबाव पड़ता है. ‘एक देश, एक चुनाव’ की अवधारणा नई नहीं है. जानकारों का मानना है कि यह प्रक्रिया उतनी की पुरानी है जितना हमारा संविधान हैं.
” वन नेशन वन इलेक्शन ” फॉर्मूला :
भारत में 1951 से लेकर 1967 के बीच हर पांच साल में लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते रहे. देश में मतदाताओं ने साल 1952 1957 1962 और सन 1967 में केंद्र और राज्यों के लिए एक साथ मतदान किया. लेकिन देश में कुछ पुराने राज्यों का पुनर्गठन और नए राज्यों के उभरने के साथ इस प्रक्रिया को साल 1968-69 में पूरी तरह समाप्त कर दिया गया.
” एक देश, एक चुनाव” (One Nation One Election) देश में लंबे समय से बहस का मुद्दा रहा हैं. प्रस्ताव को केंद्रीय कैबिनेट की मंजूरी मिल गई है. इसका उद्देश्य लोकसभा और विधान सभा चुनावों को एक साथ करना है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि चुनावों में होने वाले वित्तीय खर्चे में कटौती की जा सके.
“एक देश, एक चुनाव” के समर्थकों का तर्क है कि यह कदम चुनावी प्रक्रिया को सुव्यवस्थित कर सकता है, खर्चों को कम कर सकता है और बार-बार चुनावों के कारण होने वाली परेशानियों को कम कर सकता है. हालांकि, कुछ आलोचक इसे लेकर कई तरह-तरह के सवाल उठाते रहे हैं.
एक देश एक चुनाव का विरोध क्यों ? :
एक देश एक चुनाव के विरोध में विश्लेषकों का मानना है कि संविधान ने हमें संसदीय मॉडल प्रदान किया है , जिसके तहत लोक सभा और विधान सभाएँ पाँच वर्षों के लिये चुनी जाती हैं, लेकिन एक साथ चुनाव कराने के मुद्दे पर हमारा संविधान मौन है.
संविधान में कई ऐसे प्रावधान हैं जो इस विचार के बिल्कुल विपरीत दिखाई देते हैं. मसलन अनुच्छेद 2 के तहत संसद द्वारा किसी नये राज्यको भारतीय संघ में शामिल किया जा सकता है और अनुच्छेद 3 के तहत संसद कोई नया राज्य बना सकती है, जहाँ अलग से चुनाव कराने पड़ सकते हैं.
इसी प्रकार अनुच्छेद 85(2)(ख) के अनुसार राष्ट्रपति लोकसभा को और अनुच्छेद 174(2)(ख) के अनुसार राज्यपाल विधानसभा को पाँच वर्ष से पहले भी भंग कर सकते हैं. अनुच्छेद 352 के तहत युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में राष्ट्रीय आपातकाल लगाकर लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है.
इसी तरह अनुच्छेद 356 के तहत राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है और ऐसी स्थिति में संबंधित राज्य के राजनीतिक समीकरण में अप्रत्याशित उलटफेर होने से वहाँ फिर से चुनाव की संभावना बढ़ जाती है. ये सारी परिस्थितियाँ एक देश एक चुनाव के नितांत विपरीत हैं.
देखा जाय तो एक देश एक चुनाव की अवधारणा में कोई बड़ी खामी नहीं है, किन्तु राजनीतिक पार्टियों द्वारा जिस तरह से इसका विरोध किया जाता रहा है उससे लगता है कि इसे निकट भविष्य लागू कर पाना बड़ा मुश्किल होगा. इसमें कोई दो राय नहीं कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र हमारा भारत हर समय चुनावी चक्रव्यूह में घिरा हुआ नजर आता है.
चुनावों के इस चक्रव्यूह से देश को निकालने के लिये एक व्यापक चुनाव सुधार अभियान चलाने की आवश्यकता है. यदि देश में ” एक देश एक कर” यानी GST लागू हो सकता है तो एक देश एक चुनाव क्यों नहीं हो सकता ? अब समय आ गया है कि सभी राजनीतिक दल खुले मन से इस मुद्दे पर बहस करें ताकि इसका अमल हो सके.