आपने कोणार्क के सूर्यमंदिर के बारेमें जरूर सुना होगा. मगर क्या कभी
आपने मोढेरा सूर्य मंदर – गुजरात के बारेमें सुना है ? चलो हम आपको दर्शन कराते है, जो सूर्य भगवान को समर्पित है. यह मोढेरा सूर्य मंदिर गुजरात राज्य के मेहसाना जिले के “मोढेरा” नामक गाँव में पवित्र पुष्पावती नदी के किनारे स्थापित किया किया गया है.
यह स्थल पाटन से करीब 30 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है. यह सूर्य मन्दिर अपनी स्थापत्य शिल्प कला का बेजोड़ नमूना है. इस भव्य मंदिर का निर्माण सोलंकी वंश के राजा भीमदेव प्रथम द्वारा सन् 1026 – 1027 में किया गया था.
सोलंकी सूर्यवंशी थे, और वे सूर्य को कुलदेवता के रूप में पूजते थे. इसलिए उन्होंने मोढ़ेरा के सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया था. इस मंदिर की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसके निर्माण में कहीं भी चूने का उपयोग नहीं किया गया है. यह मंदिर ईरानी शैली में बना है.
वर्तमान समय में यह भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में सुरक्षित है और इस मन्दिर के भीतर पूजा करना निषिद्ध है.
हिंदू देवता सूर्यदेव को समर्पित इस मन्दिर परिसर के मुख्य तीन भाग हैं :
(1) गूढ़मण्डप (मुख्य मन्दिर),
(2) सभामण्डप तथा
(3) कुण्ड (जलाशय).
इसके मण्डपो के बाहरी भाग तथा स्तम्भों पर अत्यन्त सूक्ष्म नक्काशी की गयी है. कुण्ड में सबसे नीचे तक जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हैं तथा वहां कुछ छोटे-छोटे मन्दिर भी बनाये गये हैं.
मंदिर के गर्भगृह के अंदर की लंबाई 51 फुट 9 इंच और चौड़ाई 25 फुट 8 इंच है. सभामंडप में कुल 52 स्तंभ हैं. स्तंभों पर बेहतरीन कारीगरी से विभिन्न देवी-देवताओं के चित्रों और रामायण तथा महाभारत की कथाओं को दर्शाया गया है. मंदिर के निर्माण में ख्याल रखा गया है कि सुबह सूर्य की पहली किरण मंदिर के गर्भगृह को रोशन करे.
सूर्य मंदिर का निर्माण एक ही समय में नहीं हुआ था. मुख्य मन्दिर, चालुक्य वंश के भीमदेव प्रथम के शासनकाल के दौरान बनाया गया था. इससे पहले सन 1024 – 1025 के दौरान, गजनी के महमूद ने भीम के राज्य पर आक्रमण किया था, और करीब 20,000 सैनिकों की एक टुकड़ी ने उसे मोढेरा में रोकेने का असफल प्रयास किया था.
इतिहासकार ए. के. मजूमदार के अनुसार इस सूर्य मंदिर का निर्माण इस रक्षा के स्मरण के लिए किया गया हो सकता है. परिसर की पश्चिमी दीवार पर, उल्टा लिखा हुआ देवनागरी लिपि में “विक्रम संवत 1083” का एक शिलालेख है, जो 1026-1027 सीई के अनुरूप है. यह मन्दिर विनाश और पुनः र्निर्माण का सबूत देता है. शिलालेख की स्थिति के कारण, यह दृढ़ता से निर्माण की तारीख के रूप में नहीं माना जाता है. शैलीगत आधार पर, यह ज्ञात है कि इसके कोने के मंदिरों के साथ कुंड 11वीं शताब्दी की शुरुआत में बनाया गया था.
शिलालेख को निर्माण के बजाय गजनी द्वारा विनाश की तारीख माना जाता है. इसके तुरंत बाद भीम सत्ता में लौट आए थे. इसलिए मंदिर का मुख्य भाग, लघु और कुंड में मुख्य मंदिर 1026 ई के तुरन्त बाद बनाए गए थे. 12वीं शताब्दी की तीसरी तिमाही में द्वार, मंदिर के बरामदे और मंदिर के द्वार और कर्ण के शासनकाल के दौरान कक्ष के द्वार के साथ नृत्य कक्ष को बहुत बाद में जोड़ा गया था.
इस स्थान को बाद में स्थानीय रूप से सीता नी चौरी और रामकुंड के नाम से जाना जाने लगा था. अब यहाँ कोई पूजा नहीं की जाती है. मंदिर राष्ट्रीय महत्व का स्मारक है और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के देखरेख में है.
स्थापत्य की दृष्टि से यह सूर्य मंदिर गुजरात में सोलंकी शैली में बने मंदिरो में सर्वोच्च है.
सभामण्डप, गूढमण्डप के साथ जुड़ा हुआ नहीं है, बल्कि एक अलग संरचना के रूप में इसे थोड़ा दूर रखा गया है. दोनों एक पक्के मंच पर बने हैं.
इनकी छतें बहुत पहले ढह गई है, अब बस उसके कुछ निचले हिस्से ही बचे हैं. दोनों छतें 15 फुट 9 इंच व्यास की हैं, लेकिन अलग-अलग तरीके से बनाई गई हैं. मंच उल्टे कमल के आकार का है.
मंडप के भीतर में सुन्दरता से गढ़े पत्थर के स्तम्भ अष्टकोणीय योजना में खड़े किये गये है जो अलंकृत तोरणों को आधार प्रदान करते हैं. मंडप की बाहरी दीवारों पर चारों ओर आले बने हुए हैं जिनमें 12 आदित्यों, दिक्पालों, देवियों तथा अप्सराओं की मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित की गई हैं. सभामण्डप (अथवा, नृत्यमण्डप), जो कि कोणीय योजना में बना है, भी सुन्दर स्तम्भों से युक्त है सभामण्डप में चारों मुख्य दिशाओं से प्रवेश हेतु अर्धवृतीय अलंकृत तोरण हैं. सभामण्डप के सामने एक बड़ा तोरण द्वार है. इसके ठीक सामने एक आयताकार कुंड है, जिसे “सूर्य कुण्ड”‘ कहते हैं (स्थानीय लोग इसे “राम कुण्ड” कहते हैं.) कुण्ड के जल-स्तर तक पहुँचने के लिये इसके अंदर चारों ओर प्लेटफार्म तथा सीढ़ियाँ बनाई गई हैं. साथ ही कुंड के भीतर लघु आकार के कई छोटे बड़े मंदिर भी वहां बनाये गए हैं जो कि देवी-देवताओं, जैसे देवी शीतलामाता, गणेश, शिव (नटेश), शेषशायी-विष्णु तथा अन्य को समर्पित किए गए हैं.
गुजरात सरकार पर्यटन निगम द्वारा हर साल जनवरी के तीसरे सप्ताह में उत्तरायण त्यौहार के बाद मंदिर में उत्तरार्ध महोत्सव मनाया जाता है, जिसमें तीन दिवसीय नृत्य महोत्सव का आयोजन किया जाता है. इसका उद्देश्य शास्त्रीय नृत्य रूपों को उसी तरह के माहौल में प्रस्तुत करना होता है, जिसमें वे मूल रूप से प्रस्तुत किए जाते थे.