क्या आपको अपने गोत्र का पता है ?

गोत्र उन लोगों के समूह को कहते हैं जिनका वंश एक मूल पुरुष पूर्वज से अटूट क्रम में जुड़ा होता है. जैसे मेरे पिता, दादा, परदादा और आगे की ऐसी ही अखंड श्रृंखला जो हमारे प्रथम गोत्र ऋषि के वंश तक पहुंचती हो. गोत्र को एक तरह से रक्त संबंध भी माना जाता रहा है.

महाकाव्य महाभारत के शान्‍तिपर्व में वर्णन मिलता है कि मूल चार गोत्र थे, (1) अंग्रिश, (2) कश्‍यप, (3) वशिष्‍ठ तथा (4) भृगु. बाद में (5) जमदन्गि, (6) अत्रि, (7) विश्‍वामित्र तथा (8) अगस्‍त्‍य के नाम को जोड़ा गया और कुल आठ गोत्र हो गये. ये गोत्र की प्रमुखता उस समय और बढ़ गई जब जाति व्‍यवस्‍था कठोर होते गई. लोगों को विश्‍वास हो गया कि सभी ऋषि ब्राह्मण थे.

सनातन धर्म में गोत्र को सबसे अहम माना गया है. ये सात वंश सात ऋषि थे जिनसे हम सब जुड़े हुए हैं. इन्हीं के नाम पर ही सभी गोत्र आपको ब्राह्मणों में मिलेंगे. बाद में इसमें एक आठवां गोत्र भी जोड़ दिया गया जिसे अगस्त्य ऋषि के नाम पर अगस्त्य गोत्र कहा जाता है.

जैन ग्रंथों में भी हमें 7 गोत्रों का ही उल्लेख मिलता है. इसमें सबसे पहले कश्यप गोत्र आता है. उसके बाद गौतम, वत्स्य, कुत्स, कौशिक, मंडव्य और वशिष्ठ गोत्र हैं. वैसे बाद में छोटे-छोटे प्रसिद्ध साधुओं से जोड़कर भी गोत्रों के नाम पड़ते गए और इस तरह से अब तक देश में कुल 115 गोत्र हो गए हैं.

जब किसी को अपना “गोत्र” का ज्ञान नहीं होता तब ब्राह्मण ” कश्यप ” गोत्र का उच्चारण करता है. क्योंकि कश्यप ऋषि के एक से अधिक विवाह हुए थे और उनके अनेक पुत्र थे. अनेक पुत्र होने के कारण ही ऐसे ब्राह्मणों को जिन्हें अपने “गोत्र” का पता नहीं होता है उसे “कश्यप” ऋषि के ऋषिकुल से संबंधित मान लिया जाता है.

गोत्र उन लोगों के समूह को कहते हैं, जिनका वंश एक मूल पुरुष पूर्वज से अटूट क्रम में जुड़ा है.

पाणिनि में गोत्र की परिभाषा है “अपात्यम पौत्रप्रभ्रति गोत्रम” अर्थात गोत्र शब्द का अर्थ है बेटे के बेटे के साथ शुरू होने वाली एक साधु की संतान्.

सामान्यत: “गोत्र” को ऋषि परम्परा से संबंधित माना गया है. ब्राह्मणों के लिए तो “गोत्र” विशेषरूप से महत्त्वपूर्ण है.

शादी के मंडप में पंडितजी दूल्हा और दूल्हन दोनों पक्षों से उनका गोत्र पूछते हैं. शादी से पहले भी जब शादी तय होती है तो गोत्र देखा जाता है. सभी लोगोंमे में बिना गोत्र देखे कोई भी शादी नहीं होती है.

यह निश्चित है कि हमारा गोत्र आठ ऋषियों में से किसी एक के नाम पर ही है. इसीलिए अपनी वंश की नियमावली किसी पंडित को दिखा देनी है. या फिर अपने किसी बड़े बुजुर्ग से इस बारे में पूछ लेना है. कई बार हमारे घर के पुराने पंडित या पुरोहित को मालूम होता है कि हमारा गोत्र क्या है. तो वहां से आप इस बारे में पता कर सकते हैं.

सबसे बड़ा गोत्र कश्यप गोत्र को माना जाता है. ऐसा इसलिए क्योंकि इस गोत्र में ब्राह्मण भी हैं और क्षत्रिय भी हैं. इसके अलावा यह माना जाता है कि कश्यप ऋषि के अनेक विवाह हुए थे. इसलिए उनके वंशज अन्य ऋषियों की तुलना में सबसे अधिक थे. यही वजह है कि ऐसे ब्राह्मण जिन्हें अपना गोत्र नहीं पता होता है वे भी खुद को कश्यप गोत्र का ही मानते हैं.

कश्यप गोत्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय के अलावा अनुसूचित जाति की भी कई जातियां आती हैं. कहा जाता है कि देश में 50 से अधिक जातियां कश्यप गोत्र में आती हैं. इसमें सभी वर्गों के लोग शामिल हैं. कश्यप जाति मुख्य रूप से हरियाणा, महाराष्ट्र, उत्तराखण्ड, जम्मू और कश्मीर,पंजाब, चंडीगढ़, हिमाचल, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान के लोगों में मिलता है.

उत्तर भारत मे अधिकांश संख्या में कश्यप गोत्र के ही लोग हैं. इनमें कश्यप लोगों के अलावा खरवार, कहार, गौड़, निषाद, जैसी जातियां भी कश्यप गोत्र में आती हैं.

यदि किसीको अपने गोत्र का पता ना हो वैसे लोगोंको कश्यप गोत्र को अपना गोत्र मान लेना चाहिए. कश्यप गोत्र ऐसा गोत्र है जिसे हर भूलने वाला अपना मान सकता है. ऐसा इसलिए क्योंकि सबसे बड़ा गोत्र कश्यप गोत्र ही होता है. ऐसे में अगर आपके दादा या परदादा भी अगर आपका गोत्र नहींं बता पा रहे हैं और उन्हें भी अपना गोत्र नहीं मालूम है तो आप कश्यप गोत्र को अपना गोत्र मान लीजिए.

हमें एक ही गोत्र में शादियां नहीं करनी चाहिए. क्योकि एक ही गोत्र के सभी मर्दों में Y क्रोमोसोम एक जैसा ही होता है.उसी तरह एक ही गोत्र की सभी स्त्रियों में भी X क्रोमोसोम एक जैसा होता है. तो यदि एक ही गोत्र के लड़का एवं लड़की की शादी कर दी जाए तो उनकी संतान कुछ कमियों के साथ पैदा होती है. हालांकि ये भी माना जाता है कि सात पुश्तों के बाद गोत्र के प्रभाव पूरी तरह खत्म हो जाते हैं.

गोत्र का पहला ज़िक्र सबसे पुराने वेद ॠग्वेद में आता है. पर उसकी कई ॠचाओं में गोत्र का मतलब वह नहीं जो आज है. गोत्र यानी ” गायों ” (गो) की रक्षा (त्राण) के लिए बनाया गया एक “बाड़ा”. ॠग्वेद में गोत्र शब्द का एक दूसरा मतलब पहाड़ की ऊंची चोटी है.

गोत्र मातृवंशीय भी हो सकता है और पितृवंशीय भी. हालांकि समाज में प्राय: पितृवंशीय गोत्र का ही प्रचलन देखने में मिलता आया है. जरूरी नहीं कि गोत्र किसी आदिपुरुष के नाम से चले. हमारे समाज में कई जनजातियों में विशिष्ट चिह्नों से भी गोत्र तय होते रहे हैं, जो वनस्पतियों से लेकर पशु-पक्षी हो सकते हैं. शेर, मकर, सूर्य, मछली, पीपल, बबूल आदि इसमें शामिल हैं. यह परंपरा आर्यों में भी मिलती रही है

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