चंद्रग्रहण हो या सूर्यग्रहण ये एक अवकाश में होनेवाली प्रकृति की अद्भुत अलौकिक चमत्कारिक खगोलीय घटना है. आज मुजे चर्चा करनी है , सूर्यग्रहण के बारेमें.
चन्द्रमा , पृथ्वी और सूर्य के मध्य से होकर गुजरता है तब पृथ्वी से देखने पर सूर्य पूर्ण अथवा आंशिक रूप से चन्द्रमा द्वारा आच्छादित होता है, फिर वह सूरज की कुछ या सारी रोशनी रोक लेता है जिससे धरती पर साया फैल जाता है. इस घटना को सूर्य ग्रहण कहा जाता है.
सूर्यग्रहण हो या चंद्रग्रहण ये खगोलीय घटना का एक भाग है जो सृस्टि की उत्पत्ति के समय से आदि काल से अवकाश में घटित होते आ रही है. ग्रहण के समय चन्द्रमा सूर्य को पूर्ण रूप से आच्छादित कर लेता है तो उसे पूर्ण सूर्य ग्रहण कहते हैं.
वलयाकार सूर्य ग्रहण तब दिखाई देता है जब चन्द्रमा सूर्य को पूरी तरह एक साथ नहीं आच्छादित कर पाता है. आंशिक सूर्य ग्रहण की स्थिति में चन्द्रमा द्वारा सूर्य का कोई एक भाग ढक जाता है. भौतिक विज्ञान की दृष्टि से जब सूर्य व पृथ्वी के बीच में चन्द्रमा आ जाता है तो चन्द्रमा के पीछे सूर्य का बिम्ब कुछ समय के लिए ढक जाता है.
हम सब जानते है कि पृथ्वी सूरज की परिक्रमा करती है और चाँद पृथ्वी की परिक्रमा करता है. कभी-कभी चाँद, सूरज और पृथ्वी के बीच आ जाता है. फिर वह सूरज की कुछ या सारी रोशनी रोक लेता है जिससे धरती पर साया फैल जाता है . इस घटना को सूर्य ग्रहण कहा जाता है. यह घटना हमेशा अमावस्या के दिन ही होती है.
जब चंद्रमा , सूरज के सिर्फ़ कुछ हिस्से को ही ढ़कता है तो यह स्थिति खण्ड ग्रहण कहलाती है. कभी कभी ही ऐसा होता है कि चाँद सूरज को पूरी तरह ढँक लेता है, इसे पूर्ण ग्रहण कहते हैं. पूर्ण ग्रहण धरती के बहुत कम क्षेत्र में ही देखा जा सकता है.
ज़्यादा से ज़्यादा दो सौ पचास किलोमीटर के दायरे में दिखाई देता है. इस क्षेत्र के बाहर केवल खंड ग्रहण दिखाई देता है. पूर्ण ग्रहण के अवसर पर चंद्रमा को सूरज के सामने से गुजरने में दो घण्टे लगते हैं. चाँद सूरज को पूरी तरह से, ज़्यादा से ज़्यादा, सात मिनट तक ढँकता है. उस समय कुछ क्षणों के लिए आसमान में अंधेरा हो जाता है, जैसे दिन में रात हो जाती है.
सूर्यग्रहण होने के लिए अमावस्या होनी चाहिये. चन्द्रमा का अक्षांश शून्य के निकट होना चाहिए.उत्तरी ध्रुव को दक्षिणी ध्रुव से मिलाने वाली रेखाओं को रेखांश कहा जाता है तथा भूमध्य रेखा के चारो वृ्ताकार में जाने वाली रेखाओं को अंक्षाश के नाम से जाना जाता है. सूर्य ग्रहण हमेशा कभी भी अमावस्या को ही होता है. जब चन्द्रमा क्षीणतम हो और सूर्य पूर्ण क्षमता संपन्न तथा दीप्त हों.
सूर्य ग्रहण के दिन सूर्य और चन्द्र के कोणीय व्यास एक समान होते हैं. इस कारण चन्द सूर्य को केवल कुछ मिनट तक ही अपनी छाया में ले पाता है. सूर्य ग्रहण के समय जो क्षेत्र ढक जाता है उसे पूर्ण छाया क्षेत्र कहते हैं. चन्द्रमा द्वारा सूर्य के बिम्ब के पूरे या कम भाग के ढ़के जाने की वजह से सूर्य ग्रहण तीन प्रकार के होते हैं, जिसे (1) पूर्ण सूर्य ग्रहण, (2) आंशिक सूर्य ग्रहण (3) वलयाकार सूर्य ग्रहण कहते हैं .
(1) पूर्ण सूर्य ग्रहण.
पूर्ण सूर्य ग्रहण उस समय होता है जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफ़ी पास रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है और चंद्रमा पूरी तरह से पृ्थ्वी को अपने छाया क्षेत्र में ले लेता है. फलस्वरूप सूर्य का प्रकाश पृ्थ्वी तक पहुँच नहीं पाता है और पृ्थ्वी पर अंधकार जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है तब पृथ्वी पर पूरा सूर्य दिखाई नहीं देता. इस प्रकार बनने वाला ग्रहण पूर्ण सूर्य ग्रहण कहलाता है.
(2) आंशिक सूर्य ग्रहण
आंशिक सूर्यग्रहण में जब चन्द्रमा सूर्य व पृथ्वी के बीच में इस प्रकार आता है कि सूर्य का कुछ ही भाग पृथ्वी से दिखाई नहीं देता है अर्थात चंद्रमा , सूर्य के केवल कुछ भाग को ही अपनी छाया में ले पाता है. इससे सूर्य का कुछ भाग ग्रहण ग्रास में तथा कुछ भाग ग्रहण से अप्रभावित रहता है तो पृथ्वी के उस भाग विशेष में लगा ग्रहण आंशिक सूर्य ग्रहण कहा जाता है.
(3) वलयाकार सूर्य ग्रहण
वलयाकार सूर्य ग्रहण में जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफ़ी दूर रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है अर्थात चन्द्र सूर्य को इस प्रकार से ढकता है, कि सूर्य का केवल मध्य भाग ही छाया क्षेत्र में आता है और पृथ्वी से देखने पर चंद्रमा द्वारा सूर्य पूरी तरह ढका दिखाई नहीं देता बल्कि सूर्य के बाहर का क्षेत्र प्रकाशित होने के कारण कंगन या वलय के रूप में चमकता दिखाई देता है. कंगन आकार में बने सूर्यग्रहण को ही वलयाकार सूर्य ग्रहण कहा जाता है.
विश्व के खगोल वैज्ञानिको नें गणित से निश्चित किया है कि 18 वर्ष 18 दिन की समयावधि में 41 सूर्य ग्रहण और 29 चन्द्रग्रहण होते हैं. एक वर्ष में 5 सूर्यग्रहण तथा 2 चन्द्र ग्रहण तक हो सकते हैं. किन्तु एक वर्ष में 2 सूर्यग्रहण तो होने ही चाहिए. हाँ, यदि किसी वर्ष 2 ही ग्रहण हुए तो वो दोनो ही सूर्यग्रहण होंगे . वैसे वर्षभर में 7 ग्रहण तक संभव हैं, तथापि 4 से अधिक ग्रहण बहुत कम ही देखने को मिलते हैं . प्रत्येक ग्रहण 18 वर्ष 11 दिन बीत जाने पर पुन: होता है. किन्तु वह अपने पहले के स्थान में ही हो यह निश्चित नहीं हैं, क्योंकि सम्पात बिन्दु निरन्तर चल रहे हैं होते है.
साधारणतय सूर्यग्रहण की अपेक्षा चन्द्रग्रहण अधिक देखे जाते हैं, परन्तु वास्तविकता यह है कि चन्द्र ग्रहण से कहीं अधिक सूर्यग्रहण होते हैं. तीन चन्द्रग्रहण पर चार सूर्यग्रहण का अनुपात आता है . चन्द्रग्रहणों के अधिक देखे जाने का कारण यह होता है कि वे पृ्थ्वी के आधे से अधिक भाग में दिखलाई पडते हैं, जब कि सूर्यग्रहण पृ्थ्वी के सौ मील से कम चौडे और दो से तीन हजार मील लम्बे भूभाग में ही दिखलाई पडते हैं. उदाहरण के तौर पर यदि मध्यप्रदेश में खग्रास ( जो सम्पूर्ण सूर्य बिम्ब को ढकने वाला होता है ) ग्रहण हो तो गुजरात में खण्ड सूर्यग्रहण ( जो सूर्य बिम्ब के अंश को ही ढंकता है ) ही दिखलाई देगा और उत्तर भारत में वो दिखायी ही नहीं देगा.
चाहे ग्रहण का कोई आध्यात्मिक महत्त्व हो अथवा न हो किन्तु दुनिया भर के वैज्ञानिकों के लिए यह अवसर बहोत मायने रखता है. क्यों कि ग्रहण ही वह समय होता है जब ब्राह्मंड में अनेकों विलक्षण एवं अद्भुत घटनाएं घटित होतीं हैं जिससे कि वैज्ञानिकों को नये नये तथ्यों पर कार्य करने का अवसर मिलता है. 1968 में लार्कयर नामक वैज्ञानिक नें सूर्य ग्रहण के अवसर पर की गई खोज के सहारे वर्ण मंडल में हीलियम गैस की उपस्थिति का पता लगाया था.
आईन्स्टीन का यह प्रतिपादन भी सूर्य ग्रहण के अवसर पर ही सही सिद्ध हो सका था. जिसमें उन्होंने अन्य पिण्डों के गुरुत्वकर्षण से प्रकाश के पडने की बात कही थी. चन्द्रग्रहण तो अपने संपूर्ण तत्कालीन प्रकाश क्षेत्र में देखा जा सकता है किन्तु सूर्यग्रहण अधिकतम 10 हजार किलोमीटर लम्बे और 250 किलोमीटर चौडे क्षेत्र में ही दिखता है. सम्पूर्ण सूर्यग्रहण की वास्तविक अवधि अधिक से अधिक 11 मिनट की ही हो सकती है.
सूर्य ग्रहण चन्द्र ग्रहण तथा उनकी पुनरावृत्ति की पूर्व सूचना ईसा से चार हजार पूर्व भी उपलब्ध थी . ऋग्वेद के अनुसार अत्रिमुनि के परिवार के पास यह ज्ञान उपलब्ध था. वेदांग ज्योतिष का महत्त्व हमारे वैदिक पूर्वजों के इस महान ज्ञान को प्रतिविम्बित करता है.
पुराणों की मान्यता के अनुसार राहु चंद्रमा को तथा केतु सूर्य को ग्रसता है. ये दोनों ही छाया की संतान हैं. चंद्रमा और सूर्य की छाया के साथ साथ चलते हैं. चंद्र ग्रहण के समय कफ की प्रधानता बढ़ती है और मन की शक्ति क्षीण होती है, जबकि सूर्य ग्रहण के समय जठराग्नि, नेत्र तथा पित्त की शक्ति कमज़ोर पड़ती है. गर्भवती स्त्री को सूर्य चंद्र ग्रहण नहीं देखने चाहिए, क्योंकि उसके दुष्प्रभाव से शिशु अंगहीन होकर विकलांग बन सकता है, गर्भपात की संभावना बढ़ जाती है. इसके लिए गर्भवती के उदर भाग में गोबर और तुलसी का लेप लगा दिया जाता है, जिससे कि राहु केतु उसका स्पर्श न करें. ग्रहण के दौरान गर्भवती महिला को कुछ भी कैंची या चाकू से काटने को मना किया जाता है और किसी वस्त्रादि को सिलने से रोका जाता है. क्योंकि ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से शिशु के अंग या तो कट जाते हैं या फिर सिल (जुड़) जाते हैं.
हमारे ऋषि मुनियों ने सूर्य ग्रहण लगने के समय भोजन के लिए मना किया है, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि ग्रहण के समय में कीटाणु बहुलता से फैल जाते हैं. खाद्य वस्तु, जल आदि में सूक्ष्म जीवाणु एकत्रित होकर उसे दूषित कर देते हैं. इसलिए ऋषियों ने पात्रों के कुश डालने को कहा है, ताकि सब कीटाणु कुश में एकत्रित हो जाएं और उन्हें ग्रहण के बाद फेंका जा सके. पात्रों में अग्नि डालकर उन्हें पवित्र बनाया जाता है ताकि कीटाणु मर जाएं . ग्रहण के बाद स्नान करने का विधान इसलिए बनाया गया ताकि स्नान के दौरान शरीर के अंदर ऊष्मा का प्रवाह बढ़े, भीतर बाहर के कीटाणु नष्ट हो जाएं और धुल कर बह जाएं.
मान्यता है की ग्रहण लगने के पूर्व नदी या घर में उपलब्ध जल से स्नान करके भगवान का पूजन, यज्ञ, जप करना चाहिए. ग्रहण के दौरान कोई कार्य न करना चाहिए. ग्रहण के समय में मंत्रों का जाप करने से सिद्धि प्राप्त होती है. ग्रहण की अवधि में तेल लगाना, भोजन करना, जल पीना, मल-मूत्र त्याग करना, केश विन्यास बनाना, रति क्रीड़ा करना, मंजन करना वर्जित किए गए हैं. कुछ लोग ग्रहण के दौरान भी स्नान करते हैं. ग्रहण समाप्त हो जाने पर स्नान करके ब्राह्मण को दान देने का रिवाज़ है. कहीं कहीं वस्त्र, बर्तन धोने का भी नियम है. पुराना पानी, अन्न नष्ट कर नया भोजन पकाया जाता है और ताजा भरकर पिया जाता है. ग्रहण के बाद डोम को दान देने का अधिक माहात्म्य बताया गया है, क्योंकि डोम को राहु केतु का स्वरूप माना गया है.
मान्यता के अनुसार सूर्यग्रहण में ग्रहण से चार प्रहर पूर्व भोजन नहीं करना चाहिये. बूढे बालक और रोगी एक प्रहर पूर्व तक खा सकते हैं ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चंद्र, जिसका ग्रहण हो, ग्रहण के दिन पत्ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोडना चाहिए. बाल तथा वस्त्र नहीं निचोड़ने चाहिये व दंत धावन नहीं करना चाहिये ग्रहण के समय ताला खोलना, सोना, मल मूत्र का त्याग करना, मैथुन करना और भोजन करना ये सब कार्य वर्जित बताया जाता हैं. ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जरुरतमंदों को वस्त्र दान से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है. देवी भागवत में आता है कि भूकंप एवं ग्रहण के अवसर पृथ्वी को खोदना नहीं चाहिये.
इस संदर्भ में वैज्ञानिक और ज्योतिष आचार्यो में अलग अलग राय है. विज्ञान उसे खगोलीय घटना मानता है तो ज्योतिष उसे ज्योतिष शास्त्रों के आधार पर अर्थ निकालता है.
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