जन हित में की गई रचना ” हितोपदेश.”

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                   ” हितोपदेश ” नाम से ही पता चलता है कि हित + उपदेश अर्थात हम कह सकते है कि जन हित में किया गया उपदेश. हितोपदेश पुस्तक के मूल रचयिता श्री नारायण भट्ट हैं. पुस्तक के अंतिम पद्यों से पता चलता है कि इसके रचयिता का नाम ” नारायण भट्टराय ” है. 

      रामायण, महाभारत तथा विभिन्न पुराणों में नीति संबंधी बातों का उल्लेख किया गया है. किंतु बच्चों तथा किशोरों के लिए ज्ञान रूपी उपयोगी बाते की रचना श्री पंडित विष्णुशर्मा ने सिर्फ ” पंचतंत्र ” में लिखी है. इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि इसमें नीति और बुद्धिमत्ता की बातें कथाओं के माध्यम से कही गयी हैं जिनके पात्र पशु , पक्षी हैं. पंचतंत्र से कुछ कम विख्यात और सरल एक और ग्रंथ उपलब्ध है ” वो है हितोपदेश “. इसमें भी कथाओं के पात्र पशु , पक्षी ही हैं. हितोपदेश की रचना का आधार भी पंचतन्त्र ही है. 

     हितोपदेश भारतीय जन मानस से प्रभावित उपदेशात्मक कथाएँ हैं. हितोपदेश की कथाएँ अत्यन्त सरल हैं. इसमे विभिन्न पशु तथा पक्षियों पर आधारित कहानियाँ , कथा की खास विशेषता हैं. रचयिता ने इन पशु, पक्षियों के माध्यम से कथाशिल्प की रचना की है जिसकी समाप्ति किसी शिक्षापद सबक से ही हुई है. इसमे पशुओं को नीति की बातें करते हुए दिखाया गया है. सभी कथाएँ रोचक और उपदेशात्मक है. 

      हितोपदेश के रचयिता श्री नारायण जी ने पंचतन्त्र तथा अन्य नीति के ग्रंथों की मदद से हितोपदेश नामक इस ग्रंथ की रचना की थी. इसके आश्रयदाता का नाम धवलचंद्र था. श्री धवलचंद्र जी बंगाल के मांडलिक राजा थे , तथा श्री नारायण पंडित राजा धवलचंद्रजी के राजकवि थे. मंगलाचरण तथा समाप्ति श्लोक से श्री नारायण की भगवान शिव में विशेष आस्था प्रकट होती है.

             कथाओं से प्राप्त विश्लेषण के आधार पर इसकी रचना काल 11 वीं शताब्दी के आस-पास बताया जाता है. हितोपदेश का नेपाली हस्तलेख सन 1373 का प्राप्त है. कुछ लोगोंके अनुसार इसका रचना काल 14 वी सदी के आसपास कहा जाता है.

    हितोपदेश की कथाओं में अर्बुदाचल (आबू), पाटलिपुत्र, उज्जयिनी, मालवा, हस्तिनापुर, कान्यकुब्ज (कन्नौज), और वाराणसी, मगधदेश, कलिंगदेश आदि स्थानों का उल्लेख है, जिसमें रचयिता तथा रचना की उद्गमभूमि इन्हीं स्थानों से प्रभावित है. 

             हितोपदेश की कथाओं को इन चार भागों में विभक्त किया जाता है :  

       (1) मित्रलाभ. (2) सुहृद्भेद (3) विग्रह (4) संधि. 

पोस्ट का समापन हितोपदेश की एक कहानी से….. 

” दृष्टो की संगत.* 

               एक समय की बात है. उज्जयिनी के पास पीपल के एक विशाल वृक्ष पर एक कौवा और एक हंस दोनों दोस्त पड़ोसी की तरह रहा करते थे. दोनों जिगरी दोस्त थे , मगर दोनों के स्वभाव में काफ़ी अंतर था. कौवा का स्वभाव कुटिल था, और हंस का स्वभाव साधु जैसा था.

        एक दिन की बात है. तेज गर्मी का मौसम था. दोपहर का समय था. एक दिन एक शिकारी थक कर, धूप से खूब परेशान होकर उस पीपल के वृक्ष के नीचे आराम करने लेट गया. पीपल के पत्तों के बीच में से घूप छन कर शिकारी के मुँह में पड़ रही थी, इससे वह और परेशान हो रहा था. हंस के मन में दया आई और उसने पीपल के पत्तों के बीच में से अपने डैने फैला दिए ताकि शिकारी के मुख को कुछ छाया मिल सके.

       कौवा ने जब हंस के इस सज्जनतापूर्वक कार्य को देखा तो वो जलन करने लगा. वह नीचे गया और शिकारी के मुँह पर विष्ठा कर के तेज़ी से उ़ड़ गया.

        मुख पर विष्ठा पड़ने से शिकारी की नींद उड़ गई. उसने ऊपर देखा कि हंस डाल पर बैठा है. शिकारी को भान हुआ कि हो न हो इसी ने विष्ठा कि है. वो आग बबूला हो उठा. उस ने धनुष बाण उठाया, निशाना लगाकर हंस को मार गिराया.

     कहानी हमें यह सिखाती है कि जो लोग दुष्टों की संगत में रहते हैं वे हमेशा, उस हंस की तरह दुख भोगते हैं. अतः हमें दुष्टों की संगत नहीं करनी चाहिए. 

  ——=== शिवसर्जन ===——

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