जैन धर्म में पाँच पदों को सबसे सर्वश्रेष्ठ माना गया है. इन्हें पंचपरमेष्ठी कहते हैं. ध्वज के पाँच रंग “पंचपरमेष्ठी” के प्रतीक है. आज हम लोग चर्चा करेंगे
जैन ध्वज के बारेमें. जैन धर्म में जैन ध्वज इसके अनुयायियों के लिए एकता के प्रतीक के रूप में कार्य करता है. यह ध्वज विभिन्न समारोहों के दौरान जैन मंदिर के मुख्य शिखर के ऊपर फहराया जाता है.
जैन ध्वज अलग-अलग रंगों के पांच क्षैतिज बैंड से बना है. रंगीन बैंड 24 जिन का प्रतिनिधित्व करते हैं और यह पांच पवित्र संस्थाओं का भी प्रतिनिधित्व कर सकते हैं, जो जैन धर्म में अत्यधिक पूजनीय हैं.
ध्वज का रंग ऊपर से नीचे तक लाल, पीला, सफेद, हरा, गहरा नीला या काला होता है. यह लंबाई में तीन गुना और चौड़ाई में दो गुना होता है. इसके
सफेद पट्टी के केंद्र में एक स्वस्तिक है, जिसके ऊपर तीन बिंदु और शीर्ष पर एक अर्धचंद्र है. एक मुक्त आत्मा को अर्धचंद्र के ऊपर बिंदी के रूपमें दर्शाया जाता है. ये सभी नारंगी रंग के होते हैं.
जानते है विस्तार से जैन ध्वज पांच रंग का प्रतिनिधित्व करता हैं.
(1) लाल : यह उन सिद्धों या आत्माओं का प्रतिनिधित्व करता है जिन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया है.
(2) पीला : यह आचार्यों, निपुण स्वामी का प्रतिनिधित्व करता है. अरिहंतों के बाद अरिहंतो की शिष्य परम्परा मुख्य शिष्य पद और परम्परा में साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ का मुखिया आचार्य ही होता है इसी से उनका प्रतिक रंग पीला तीसरे नंबर पर रखा जाता है.
भरतक्षेत्र और ऐरावतक्षेत्र की अपेक्षा से जब कालांतर में केवलज्ञान होना बंद होता है तब संघ का दायित्व आचार्य का होता है और उस समय आचार्य ही सर्वोपरि पद होता है क्योंकि इससे उस समय केवलज्ञान का विच्छेद काल होता है अतः कोई भी जीव उस समय उस क्षेत्र में अरिहंत या केवली नहीं बनता और न ही कोई जीव उस क्षेत्र से उस काल में मोक्ष में जाता है अतः समस्त संघ आचार्य की आज्ञा में रहता है.
(3) सफेद : यह अरिहंतों, आत्माओं का प्रतिनिधित्व करता है, जिन्होंने सभी जुनून (क्रोध, मोह, घृणा) पर विजय प्राप्त करने के बाद आत्म-साक्षात्कार के माध्यम से सर्वज्ञता और शाश्वत आनंद प्राप्त किया है. यह अहिंसा का भी प्रतिनिधित्व करता है. और मोक्ष मार्ग के उपदेशक होते हैं.
(4) हरा रंग : ज्ञान का प्रतीक है और ऐसे ज्ञान धारक मुनि उपाध्याय या पाठक भी कहलाते है क्योंकि उन्हें संपूर्ण शास्त्रों का ज्ञान होता है और दूसरे साधारण मुनियो को पढ़ाने जिम्मेवारी भी उनकी होती है.
(5) नीला या काला : यह रंग साधारण छद्मस्थ साधु-साध्वियों का प्रतीक है. चूँकि वे चौथे-पांचवे गुणस्थानक वाले मोक्ष मार्ग के पथिक होते है अतः सबसे अंत में काला/नीला रंग होता है
ऐसे पांच रंगो का सिलसिलेवार बना ध्वज जैन ध्वज कहलाता है.
जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकर और उनके चिह्न में स्वस्तिक को शामिल किया गया है. तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का शुभ चिह्न है स्वस्तिक जिसे साथिया या सातिया भी कहा जाता है. स्वस्तिक की चार भुजाएं चार गतियों- नरक, त्रियंच, मनुष्य एवं देव गति की द्योतक हैं.
यह आत्मा के अस्तित्व की चार अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करता है. आत्मा का उद्देश्य खुद को इन चार चरणों से मुक्त करना और अंततः अरिहंत या सिद्ध बनना है.
जैन ध्वज पर स्वस्तिक के ऊपर तीन बिंदु जैन धर्म के रत्नत्रय (तीन रत्न) का प्रतिनिधित्व करते हैं.
(1) सम्यक दर्शन – सही आस्था.
(2) सम्यक ज्ञान – सम्यक ज्ञान.
(3) सम्यक चरित्र – सही आचरण.
जैन ध्वज मे तीन बिंदुओं के ऊपर का वक्र सिद्धशिला का प्रतिनिधित्व करता है, जो ब्रह्मांड के उच्चतम क्षेत्रों में शुद्ध ऊर्जा से बना एक स्थान है. यह नर्क, पृथ्वी या स्वर्ग से भी ऊँचा है. यह वह स्थान है जहां अरिहंत और सिद्ध जैसे मोक्ष प्राप्त करने वाली आत्माएं परम आनंद में अनंत काल तक रहती हैं. ऊपर से नीचे तक जैन धर्म की पेचीदगियों को समझते हुए झंडे को सावधानी से गढ़ा गया है. झंडा अपने अनुयायियों के लिए एक महत्वपूर्ण प्रतीक है.
अंत मे स्वस्तिक के बारेमें खास जानकारी.
स्वस्तिक का आविष्कार आर्यों ने किया था, और पूरे विश्व में यह फैल गया है.आज स्वस्तिक का प्रत्येक धर्म और संस्कृति में अलग-अलग रूप में उपयोग किया गया है.
स्वस्तिक को भारत में ही नहीं परंतु जर्मनी, यूनान, फ्रांस, रोम, मिस्र, ब्रिटेन, अमेरिका, स्कैण्डिनेविया,सिसली, स्पेन, सीरिया, तिब्बत, चीन, साइप्रस और जापान आदि देशों में भी इसका का प्रचलन किसी न किसी रूप में मिलता है. स्वस्तिक शब्द को “सु” एवं “अस्ति” का मिश्रण योग माना जाता है. “सु” का अर्थ है शुभ और “अस्ति” का अर्थ है, होना. अर्थात “शुभ हो”, “कल्याण हो.”
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