विश्व के इतिहास में एक से बढकर एक दानशूर ने जन्म लिया और अपनी दानशूरता के कारण अमर बन गये. ऐसे ही एक दानशूर भामाशाह की दानशूरता की अमर गाथा आप प्रबुद्ध पाठकों के साथ शेयर करनी है.
हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप जब पराजित हुए तो भामाशाह ने अपनी निजी सम्पत्ति से इतना धन दान दिया था कि जिससे 25000 सैनिकों का बारह वर्ष तक निर्वाह हो सकता था.
इतिहासकार कहते है कि, महा राणा के लिए भामाशाह ने 25 लाख रुपए की नकदी तथा 20,000 अशर्फी दीं. तब महाराणा प्रताप जी ने आँखों में आँसू भरकर भामाशाह को गले से लगा लिया. वहीं, राणा की पत्नी महारानी अजवान्दे ने भामाशाह को पत्र के जरिए इस सहयोग के लिए कृतज्ञता व्यक्त की.
इसी कारणवश महाराणा प्रताप में नया उत्साह जागृत हुआ था. भामाशाह दानदाता के साथ काबिल सलाहकार, योद्धा, शासक व प्रशासक भी थे. श्री महाराणा प्रताप हल्दीघाटी का युद्ध 18 जून, 1576 के दिन हार चुके थे. लेकिन इसके बाद भी मुग़लों पर उनका भारी आक्रमण जारी था. धीरे-धीरे मेवाड़ का कुछ इलाका महाराणा प्रताप के कब्जे में आने लगा था. उसी वक्त भीमाशाह ने महाराणा प्रताप की मदद की थी.
श्री भीमाशाह का जन्म राजस्थान के मेवाड़ राज्य में वर्तमान पाली जिले के सादड़ी गांव में 28 जून 1547 के दिन ओसवाल जैन परिवार में हुआ था. उनके पिता श्री भारमल, रणथंभौर के किलेदार थे.
चित्तौरगढ़ के भामाशाह बाल्य काल से मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप के मित्र, सहयोगी और विश्वासु सलाहकार थे. अपरिग्रह को जीवन का मूलमन्त्र मानकर संग्रहण की प्रवृत्ति से दूर रहने की चेतना जगाने में भीमाशाह सदैव अग्रणी रहे. मातृ-भूमि के प्रति प्रेम था और दानवीरता के लिए इतिहास में अमर हो गये.
श्री भामाशाह अपनी दानवीरता, त्याग और मातृ-भूमि से विशेष प्रेम के साथ महाराणा प्रताप का आजीवन साथ देने के लिए उसे याद किया जाता हैं. मुश्किल के दिनों में महाराणा प्रताप को अपनी संपूर्ण धन संपदा दान करने वाले महापुरुष श्री भामाशाह ही थे. इन्होंने मेवाड़का आत्म सम्मान भी बढ़ाया था.
यह सहयोग तब दिया गया था जब महाराणा प्रताप अपना अस्तित्व बनाए रखने के प्रयास में निराश होकर परिवार सहित पहाड़ियों में छिपते भटक रहे थे. भामाशाह द्वारा महाराणा प्रताप को दी गई सहायता ने मेवाड़ के आत्म सम्मान एवं संघर्ष को नई दिशा दी और यहीं कारणवश भामाशाह अपनी दानवीरता के लिए इतिहास में अमर हो गए.
महाराणा प्रताप ने भामाशाह की स्वामी भक्ति और देशभक्ति को देखकर अतियंत खुश होकर कहा कि आप जैसे सपूतों के कारण ही मेवाड़ अभी भी जिंदा है मेवाड़ की धरती, और मेवाड़ के महाराणा, यहां की जनता, पूरा देश आपके इस समर्पण को याद रखेगा हमें आप पर गर्व है.
आबू पर्वत पर स्थित दिलवाड़ा का मंदिर जिसे भामाशाह और उनके भाई ताराचन्द ने बनाया था. भामाशाह के वंशज कावडिंया परिवार आज भी उदयपुर मे रहता है. आज भी ओसवाल जैन समाज कावडिंया परिवार का सम्मानपूर्वक सबसे पहले तिलक करते है.
लोकहित और आत्मसम्मान के लिए अपना सर्वस्व दान कर देने वाली उदारता के गौरव-पुरुष की इस प्रेरणा को अमर बनाने के लिए छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में दानशीलता, सौहार्द्र एवं अनुकरणीय सहायता के क्षेत्र में दानवीर भामाशाह सम्मान स्थापित किया है.
महाराणा मेवाड फाऊंडेशन की तरफ से दानवीर भामाशाह पुरस्कार राजस्थान मे मेरिट मे आने वाले छात्रो को दिया जाता है. उदयपुर, राजस्थान में राजाओं की समाधि स्थल के मध्य भामाशाह की समाधि बनी है. उनके सम्मान में 31 दिसम्बर 2000 के दिन 3 रुपये का डाक टिकट जारी किया गया है.
भामाशाह की मृत्यु श्री महाराणा प्रताप से 3 वर्ष बाद 16 जनवरी 1600 के दिन हुई जब वह 51 साल के थे