दिल्ली का प्राचीन “लौह स्तंभ.”

loah piller

          दिल्ली में क़ुतुब मीनार के निकट स्थित एक विशाल स्तम्भ है, जिसे लोग ” लौह स्तंभ ” कहते है. इसकी विशेषता ये है कि इस लौह स्तंभ में लगे लौह की मात्रा 98 प्रतिशत है और इसमें अभी तक जंग नही लगा है.

        इतिहासकारों का कहना है कि यह स्तंभ गुप्त वंश के चंद्रगुप्त द्वितीय का है. कुछ जानकारों का कहना है कि इसका निर्माण सम्राट अशोक ने अपने दादा चंद्रगुप्त मौर्य की याद में करवाया था. कहा जाता है कि मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर निर्मित भगवान विष्णु के मंदिर के सामने इसे खड़ा किया गया था, जिसे ईसवी सन 1050 में तोमर वंश के राजा और दिल्ली के संस्थापक अनंगपाल द्वारा इसे दिल्ली स्थित लाया गया था.

          शुद्ध लोहे से बने इस स्तंभ की ऊंचाई सात मीटर से भी ज्यादा है,और वजन 6000 किलो से भी अधिक है. ये 

इतिहासकारों के लिए किसी पहेली से कम नहीं है. ये लौह स्तंभ करीब 1600 साल पुराना है. जो एक क़ुतुब मीनार के निकट स्थित एक विशाल स्तम्भ है. यह अपने आप में प्राचीन वास्तु कला का सुंदर प्राचीनतम नमूना है.

         कुछ इतिहासकार मानते है कि इसे राजा श्री चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (राज 375- 413) ने निर्माण कराया था किन्तु कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि सम्भवतः ई पूर्व 912 में इसका निर्माण किया गया था. इस स्तम्भ पहले हिन्दू व जैन मन्दिर का एक भाग था.   

      तेरहवीं सदी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने मन्दिर को नष्ट करके क़ुतुब मीनार की स्थापना की थी. यह “लौह स्तंभ ” खुले आसमान के नीचे कई सदियों से सभी मौसमों में खड़ा है.फ़िरभी इतने वर्षों में आज तक उसमें जंग नहीं लगी, यही बात दुनिया के इतिहासकारो के लिए आश्चर्य का विषय है.

       इस स्तंभ पर संस्कृत में जो लेख खुदा हुआ है, उसके अनुसार इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था. 

 चन्द्रराज द्वारा मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर निर्मित भगवान विष्णु के मंदिर के सामने इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था. इस पर गरुड़ स्थापित करने हेतु इसे बनाया गया होगा, अत: इसे गरुड़ स्तंभ भी कहा जाता हैं.

     इस स्तंभ की ऊँचाई 735.5 से.मी. है. इसमें से 50 सेमी.नीचे है. 45 से.मी. चारों ओर पत्थर का प्लेटफार्म है. इस स्तंभ का घेरा 41.6 से.मी. नीचे है तथा 30.4 से.मी. ऊपर है. माना जाता है कि इसके ऊपर गरुड़ की मूर्ति पहले कभी होगी. स्तंभ का वजन 6096 कि.ग्रा. है.

       सन 1961 मे इसके रासायनिक परीक्षण से पता लगा कि यह लौह स्तंभ आश्चर्यजनक रूप से शुद्ध इस्पात का बना है तथा आज के इस्पात की तुलना में इसमें कार्बन की मात्रा काफी कम है. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के मुख्य रसायन शास्त्री डॉ॰ बी.बी. लाल इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इस स्तंभ का निर्माण गर्म लोहे के 20-30 किलो को टुकड़ों को जोड़ने से हुआ है. माना जाता है कि 120 कारीगरों ने काफ़ी परिश्रम के बाद इस स्तम्भ का निर्माण किया था.

     आज से सोलह सौ वर्ष पूर्व गर्म लोहे के टुकड़ों को जोड़ने की उक्त तकनीक भी आश्चर्य का विषय है, क्योंकि पूरे लौह स्तम्भ में एक भी जोड़ कहीं भी दिखाई नहीं देता. सोलह शताब्दियों से खुले में रहने के बाद भी उसके वैसे के वैसे बने रहने जंग न लगने की स्थिति ने विशेषज्ञों को चकित किया है. इसमें फास्फोरस की अधिक मात्रा व सल्फर तथा मैंगनीज कम मात्रा में है. स्लग की अधिक मात्रा अकेले तथा सामूहिक रूप से जंग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा देते हैं. इसके अतिरिक्त 50 से 600 माइक्रोन मोटी (एक माइक्रोन = 1 मि.मी. का एक हजारवां हिस्सा) आक्साइड की परत भी स्तंभ को जंग से बचाती है.

       कुछ इतिहासकार मानते है कि उस लोह स्तंभ में जो लेख है वो गुप्त लेखो की शैली का है और कुछ कहते है कि चंद्रगुप्त द्वितीय के धनुर्धारी सिक्को में एक स्तंभ नज़र आता है, जिसपर गरुड़ है , पर वह स्तंभ कम और राजदंड अधिक नज़र आता है.

          लोह स्तंभ के अनुसार राजा चंद्र ने वंग देश को हराया था और सप्त सिंधु नदियों के मुहाने पर वह्लिको को हराया था. स्तम्भ की सतह पर कई लेख और भित्तिचित्र विद्यमान हैं जो भिन्न-भिन्न तिथियों (काल) के हैं.

          इनमें से कुछ लेख स्तम्भ के उस भाग पर हैं जहाँ पर पहुँचना अपेक्षाकृत आसान है. फिर भी इनमें से कुछ का व्यवस्थित रूप से अध्ययन नहीं किया जा सका है. इस स्तम्भ पर अंकित सबसे प्राचीन लेख ‘चन्द्र’ नामक राजा के नाम से है जिसे प्रायः गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा लिखवाया गया माना जाता है.

         यह लेख 33.5 इंच लम्बा और 10.5 इंच चौड़े क्षेत्रफल में है. यह प्राचीन लेखन अच्छी तरह से संरक्षित है है क्योंकि यह स्तम्भ जंग-प्रतिरोधी लोहे से बना है. किन्तु उत्कीर्णन प्रक्रिया के दौरान, लोहे का कुछ अधिक भाग कटकर दूसरे अक्षरों से मिल गया है जिससे कुछ अक्षर गलत हो गए हैं.

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