धर्म मे आस्था का स्थान| Dharm mein aastha ka sthan

krishna

 धर्म की परिभाषा क्या है ? इस बारेमें सबकी अलग अलग राय हो सकती है. कोई सत्य को धर्म मानता है, तो कोई सत्य को ईश्वर मानता है. वैसे देखा जाय तो धर्म की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है. 

        कुछ संतों का कहना है कि , मन , वचन और कर्म से कोई गलत कार्य ना करो वो ही मनुष्य का धर्म है. इससे विपरीत आप गलत आचरण करो तो वो अधर्म है. 

      सजीव को मारकर खाना, खाने वाले का स्व धर्म है. तो उसे मरते बचाने का प्रयत्न करना संतों का धर्म है. कुदरत ने दुनिया कुछ ऐसी बनाई है कि इस धरा पर जीने वाला हर एक जीव, दूसरे जीव का संहार करें बीना जिंदा नहीं रह सकता ! क्योंकि वैज्ञानिकों का कहता है की सजीव वनस्पति ओ मे भी जान होती है. उसमे भी संवेदना होती है. 

             वनस्पति मे भी स्त्रीकेसर – पुष्प योनि ( pistil ) के माध्यम से प्रजनन होता है, उसकी वंश वृद्धी होती है. वनस्पति को भी ग्लानि,भय,सुख , दुःख, पीड़ा जैसी अनेक विध संवेदना होती है. 

         समुद्र की जलचर बड़ी मछली छोटी मच्छी को खाकर अपना जीवन निर्वाह करती है, तो धरती पर भूचर पशु, पक्षी और प्राणी भी एक दूसरे को मारकर अपना जीवन व्यतीत करते है. इसमे भी अपवाद पाया जाता है. शाकाहारी और मांसाहारी. जिसको हम दो भागो मे वर्गीकरण करते है. 

       मनुष्य जाती के शिवाय वनस्पत्तिओमे भी ये गुण पाया जाता है. कुछ वनस्पति शाकाहारी होती है तो कुछ वनस्पति मांसाहारी होती है. 

        अफ्रीका अमेज़ॉन नदी के घने जंगलों मे विशालकाय मांसाहारी वनस्पति नर भक्षी होती है ! विशाल काय वनस्पति झपट कर वो मनुष्य को अपनी ओर खींच लेती है और लिपटकर गन्ने की तरह खून को चूस कर स्वाहा कर जाती है. और बचा हुआ शव को छोड़ देती है. बहोत साल पहले अखबारों मे ये बात मैंने पढ़ी थी. 

       गहरे समुद्र मे भी धरती की तरह ऊँचे निचे पहाड़ होते है. समुद्र मे पानी के भीतर विविध प्रकार की मछली और वनस्पति होती है. कुछ शाकाहारी मछली उसी वनस्पति को खाकर पानी मे जिंदा रहती है. 

     समुद्र मे पानी के निचे धरती मे जब भूकंप आता है. तो धरती हिलनेसे पानी मे हलचल मच जाती है, और वो पानी जब किनारे की जमीन मे आ टकराता है तो उसीको हम सुनामी कहते है. कभी कभी तो सुनामी पुरे शहर को बहाके लेकर जाती है. 

       धर्म हमेशा आस्था पर चलता है. तर्क पर नहीं. तर्क तो यह कहता है की देवी देवता ओके दरबार मे निर्दोष पशु, पक्षी ओकी बलि नहीं दी जानी चाहिए मगर मांसाहारी लोगोंकी आस्था उन्हें वैसा करनेपर मजबूर करती है. 

      कुछ लोगोंका कहना है की शाकाहारी लोग भगवान को पंच पकवान या छप्पन भोग लगाते है वो भी तो प्रसाद मानकर खुद खाते है वैसे ही बलि प्रथा मे हम लोग उसे प्रसाद मानकर खाते है. यही देवी देवता ओके प्रति हमारी कृतज्ञता है , आस्था है. 

      भगवान शंकर जी की पत्नी माता पार्वती माछी के घर पलकर बड़ी हुई थी. भगवान शिवजी ने भी माता पार्वती को पाने के लिये मछुआरे का रुप धारण किया था. आज भी गौरी गणपति के त्योहारों मे महाराष्ट्र मे पार्वती जी को खेकड़ा ( crab ) मच्छी का भोग चढ़ाया जाता है. मान्यता है की माता पार्वती जी को खेकड़ा बहुत पसंद है.

          श्री दयानंद स्वामी के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस जी को मछली बहोत प्यारी थी. ठंड प्रदेश के लोगों को जीवित रहने के लिये मांस – मदिरा का सेवन करना पड़ता है. चाहे फिर वो शुद्ध शाकाहारी ब्राह्मण क्यों ना हो… !

          आदि काल से मानव बलि देनेका रिवाज़ है . आज भी बड़े वास्तु निर्माण के समय छुपकेसे मानव बलि देनेका रिवाज़ है. बताया जाता है की राजस्थान के कई इलाकों मे आज भी भैंस की बलि दी जाती है. दुनिया मे 85 प्रतिशत लोग मांसाहारी है तथा 15 प्रतिशत लोग शाकाहारी है. 

       धर्म मे आस्था हो, वहां तक तो सही है मगर अंधश्रद्धा नहीं होनी चाहिए. मूर्ति का दूध पीना , मूर्ति की आंख से पानी आना, मूर्ति हर साल छोटी से बड़ी होना , मंदिर मे अचानक घंट बजना , ये सब अंध श्रद्धा का ही भाग है. धर्म के कथित ठेकेदारों ने धर्म का मज़ाक बना दिया है. 

       एक देश द्रोही , गद्दार , तस्कर, कालाबाजारी करने वाला स्मगलर मंदिर की मूर्ति के सामने खड़ा रहकर संवाद करता है , हे ! प्रभु ! इस बार मेरा माल सुखरुप पार हो गया तो मै आपको सोने का मुकुट पहनावूंगा . और इत्तेफाक से पुलिस की निगाह से बचकर माल पार हो जाता है तो सहीमे वो मुकुट का दान मंदिर ट्रस्ट को करता है. 

      इसे आप क्या कहेँगे ? क्या भगवान को भी दो नंबर के काम मे पार्टनर बनाते हो ? इसे आप धर्म कहेँगे ? बिलकुल नहीं. ऐसा करके वो लोग भगवान को भी चोरी का काम मे अपना सहयोगी बनाते है. यही हमारी धर्म के प्रति आस्था है ? यही हमारा धर्म है ?        ——=== शिव सर्जन ===——

About पत्रकार : सदाशिव माछी -"शिव सर्जन"

View all posts by पत्रकार : सदाशिव माछी -"शिव सर्जन" →