हमारे भारत देश सहित विश्व मे 21 मार्च के दिन को ” कठपुतली दिवस ” के रूपमे मनाया जाता है. समाज मे दुसरो के इशारे पर चलने वाले को कठपुतली कहते है. वैसे पारम्पारिक रुप से डोरी से बांधकर नचाई जाने वाली काठ ( काष्ट ) की पुतली को कठपुतली कहते है.
कठपुतली कला विश्व के प्राचीनतम कलाओं में से एक है जिसको रंगमंच पर प्रदर्शित किया जाता है .
पुराने जमाने मे नाटक और कठपुतली की कला काफ़ी प्रसिद्ध थी बताया जाता है की हमारे भारत देश मे ये कला करीब दो हजार साल पुरानी है. तब मनोरंजन का एक मात्र माध्यम कठपुतलिया ही थीं. आज तो हमारे पास रेडियों , टेलीविजन, रंगमंच से लेकर मल्टीमैक्स टॉकीज से लेकर आधुनिक तकनिकी वाले मोबाइल की सुविधा है.
भाईंदर की बात करु तो , 60 के दशक मे भाईंदर पश्चिम मे स्टेशन रोड स्थित अवर लेडी ऑफ नाज़रेथ स्कूल के उत्तरीय छोर पर ” धर्मशाला ” थी. उस धर्म शाला के प्रांगण मे कठपुतली का खेल अक्षर दिखाया जाता था.
कठपुतलिया काष्ठ से बनाई जाती थी. अतः काष्ठपुतली का अपभ्रंस बनकर आगे कठपुतली के नाम से पहचानी जाने लगी !. कठपुतलीओ के द्वारा पौराणिक साहित्य , लोक कथा और किवदंतियो को दर्शाया जाता था. तो कभी हीर -रांझा , लैला – मजनूं तथा शीरी – फरहाद की कहानी को और महिला शिक्षा , प्रौढ़ शिक्षा , परिवार नियोजन के साथ हास्य -व्यंग , और ज्ञान वर्धक मनोरंजन के साथ दर्शाया जाता था.
एक पौराणिक कथा के अनुसार कठपुतली का इतिहास बहुत पुराना है.ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में पाणिनी की अष्टाध्यायी में ‘नटसूत्र’ में ” पुतला नाटक” का उल्लेख मिलता है. कुछ लोग कठपुतली के जन्म को लेकर पौराणिक बातों का ज़िक्र करते हैं कि शिवजी ने काठ की मूर्ति में प्रवेश कर पार्वती का मन बहलाकर इस कला की शुरुआत की थी. कहानी ‘सिंहासन बत्तीसी’ में भी विक्रमादित्य के सिंहासन की ‘बत्तीस पुतलियों’ का उल्लेख है. सतवर्धन काल में भारत से पूर्वी एशिया के देशों इंडोनेशिया, थाईलैंड, म्यांमार, जावा, श्रीलंका आदि में इसका विस्तार हुआ था. आज यह कला चीन, रूस, रूमानिया, इंग्लैंड, चेकोस्लोवाकिया, अमेरिका व जापान आदि अनेक देशों में पहुँच चुकी है.
कठपुतलियोंको नर मादा रूपों द्वारा जीवन की अनेक घटना ओके साथ अभिव्यक्ति की जाती है, और डोरी से बांध कर नचाया जाता है उसके शरीर के भाग इस प्रकार जोड़े जाते हैं कि उनसे बँधी डोर खींचने पर वे अलग-अलग तरीके से हिल सके. और अभिनय प्रदर्शित कर सके.
दुःखी मन से मुजे लिखना पड़ रहा है कि, कठपुतली कला अच्छी आमदनी ना मिलनेसे अपना अस्थित्व खोटे जा रही है. और कलाकार इस कला को छोड़ने के लिये मजबूर हो रहे है. हमारी लोककलाओ मे भारतीय संस्कृति ओका प्रतिबिंब झलकता है. इसमे कठपुतली कला का भी समावेश होता है.
सन 1957 मे रिलीज हुई लाजवाब फ़िल्म ” कठपुतली ” का गाना आज भी सुननेको दिल बेक़रार रहता है. गीत के बोल लिखें थे गीतकार श्री शैलेन्द्र जी ने. संगीतकार थे श्री शंकर – जयकिशन जी और उसे अपनी सुरीली आवाज मे सजाया था कोकिल कंठी लता मंगेशकर जी ने.
गानेके बोल कुछ ऐसे थे….
बोल री कठपुतली डोरी कौन संग बाँधी,
सच बतला, तू नाचे किस के लिये.
बाँवरी कठपुतली डोरी पिया संग बाँधी,
मैं नाचूँ अपने पिया के लिये.
जहाँ जिधर साजन ले जाये, संग चलूँ मैं छाया सी,
वो हैं मेरे जादूगर, मैं जादूगर की माया सी.
जान बूझ कर छेड़ के मुझसे पूछे ये संसार….. बोल री….
पिया ना होते, मैं ना होती, जीवन राग सुनाता कौन,
प्यार थिरकता किसकी धूनपर, दिल का साज़ बजाता कौन,
दूर दूर जिस चमन से गुज़रे, गाती जाये बहार…. बोल री…
सन 1957 का गाना आज भी उतनाही सुहाना लगता है जितना 63 साल पहले लगता था. यदि आप पुराने गाने के चाहक हो तो यू ट्यूब पर सर्च करके यह गाना एक बार अवश्य सुनीयेगा. मन प्रफुल्लित हो जायेगा.
———- शिवसर्जन प्रस्तुति ——–