पुराने भाईंदर गांव की बीती हुई यादे | Part XV

bbhy

” भाईंदर के पुराने पुल का इतिहास “

सन 1870 मे भाईंदर खाड़ी पर का प्रथम पुराना पुल का निर्माण हुआ. उससे पहिले गुजरात तक के लोग पैदल चल कर मुंबई तक आते थे. भाईंदर , नायगाव, एवं वैतरणा की दो खाड़ी पार करने के लिये होड़ी (नाव) का इस्तेमाल किया जाता था.

ब्रिटिश कालमे बना पुराना पुल की आयु 100 साल की थी. सन 1970 मे 100 साल पुरा करने के बाद भी ये सन 1991 तक काम मे लीया गया. अर्थात 121 साल तक सेवा देनेके बाद भी आज तक स्वस्थ खड़ा था जो अब यतीत की बातें बन जायेगा.

पुराना पुल के निर्माण के समय मानव बलि दिये जानेका कहा जाता है. लोहे से बने हर खम्भे को करीब 150 फीट जमीन के निचे तक गाढ़ दिये गये थे. हर खम्बे मे शीशा गलाकर भरा गया है, ताकि इसकी मजबूती बनी रहे.

इसकी बगल मे बना सीमेंट कंक्रीट का नया वर्तमान पुल बनाने का काम सन 1981- 82 मे शुरु हो चुका था. और दिसंबर 1991 तक करीब पुरा हो गया था. इसके पीछे 45 करोड़ रुपये का खर्च किए गये का अनुमान है.

वसई की खाड़ी से ये नया पुल गुजरता है उसके बिच पांजू द्वीप आता है अतः ये पुल दो भागोंमें बट जाता है. एक भाईंदर बाजु से पांजू सीमा तक. जिसकी लम्बाई 1.4 किलो मीटर है. जो 56 गर्डरों पर टिका हुआ है. जबकि दूसरा पुल पांजू सीमा से नायगाव की सीमा तक बना है जिसकी लम्बाई 0.533 किलोमीटर है. जो 22 गर्डरों पर टिका है.

दोनों पुल मिलाकर दोनों की कुल लम्बाई 1.933 किलोमीटर है. वर्त्तमान पुराना पुल पर आवाजाई बंद है. उसे तोड़नेका ठेका दिया जा चूका है. ओवर हेड वायर और स्लीपर हटा दिए गये. खम्भे निकालने के बाद कुछ दिनोमे यह पूल अतीत की बाते बन जायेगा, और इतिहास के पन्नों मे अमर हो जायेगा.

वर्तमान मे सीमेंट कंक्रीट के दो नये पुल से स्लो फ़ास्ट ट्रैन चल रही है.

भाईंदर की पुरानी यादें :

साठ के दशक मे मिरा भाईंदर क्षेत्र के घोड़बंदर काशीमीरा – चैना के आदिवासी लोगोंकी परिस्थिति विकट थी. पिनेका पानी तो पर्याप्त मिल जाता था. पानी की इतनी किल्लत नहीं थी. विहिर – बावड़ी, कुआ मुख्य श्रोत था. दूसरा कोई पर्याय नहीं था. फ़िरभी तत्कालीन कम बस्ती को देखते काम चल जाता था.

गरीबी इतनी थी की इनकम का कोई श्रोत नहीं था अतः कुछ लोग भाईंदर की खाड़ी मे मच्छी पकड़ने का काम करते थे. तो बाकी के लोग जंगल की लकड़ी काटकर, उसे आठ, दस किलोमीटर पैदल चलकर, माथे पर बोजा उठाकर भाईंदर (प ) मार्किट तक बेचने के लिये आते थे.

गैस का जमाना तब नहीं था. लोग लकड़ी का चूल्हा जलाते थे. स्टोव – प्राइमस लक्ज़री आइटम मानी जाती थी. जो साधन सम्पन्न लोग रखते थे. कई लोग ऐसे थे के उन्हें स्टोव के लिये केरोसिन खरीदना महंगा लगता था, वो लोग मेंग्रोव के पेड़ काटकर गावठी मिट्टीका चुला बनाकर अपना खाना पकाते थे.

भाईंदर पश्चिम आवर लेडी ऑफ़ नाजरेथ स्कूल के बाहर श्री गंगाराम पानवाला की पटरे की छोटी दुकान के ठीक पीछे धरम शाला थी. जहा पर देशाटन करने वाले साधु , संत, या भिखारी आश्रय लेते थे. त्यौहारो के दिन धरम शाला प्रांगण मे मराठी नाटक का मंचन होता था. तो कभी 16 एम एम प्रोजेक्टर के द्वारा हिंदी फ़िल्म दिखाई जाती थी. तो कभी कठपुतली के शो दिखाए जाते थे.

भाईंदर का मानवता वादी मसीहा स्व: जनार्दन रकवी वहां पर पड़ी लावारिस लाशो को ग्राम पंचायत की हाथ गाड़ी मे डालकर , खुद भाईंदर पश्चिम की स्मशान भूमि मे अकेला ले जाकर अग्नि दाह देते थे.

साठ, सत्तर के दशक मै काशीमीरा घोड़बंदर के घने जंगलों मे शेर , चित्ता जैसे खतरनाक , खौफनाक जंगली जानवर पाए जाते थे. सन 1971 मे आगरी, माछी, तथा वारकरी समाज का श्रद्धेय महात्मा 12 वर्षीय श्री बाल योगी श्री सदानंद महाराज सन्यासी बनकर तुंगारेश्वर पहाड़, परशुराम कुंड स्थित रहने गये तब मुंबई – अमदावाद महा मार्ग निर्माण का कार्य जंगलों को चीरकर तेजी से आगे बढ़ रहा था.

उस समय वहां पर जंगली जानवरो का राज था. सदानंद बाबा के कई भक्तों ने शेर को नजदीक से आते,जाते देखा है. तब काशीमीरा से भाईंदर गांव तक कच्चा मिट्टी और पत्थर से बना रोड था.

मिरारोड ईस्ट वेस्ट मे दूर दूर तक मानव वसाहत नहीं थी सिर्फ मिरा रोड पश्चिम मे कस्टम चाल के नजदीक सात आठ झोपड़े थे. मीरारोड पूर्व मे खेती की जमीन और पश्चिम मे नमक आगर और मैन्ग्रोव युक्त खार लेंड की जमीन एस्सल वर्ड तक फैली थी. जो आज भी मौजूद है.

साठ के दशक मे भाईंदर पश्चिम मैन्ग्रोव के जंगल मे गावठी दारु के अड्डे ( भठ्ठी ) धड़ल्ले से चलते थे जो राई, मोरवा के उत्तरीय छोर पर भाईंदर खाड़ी तट पर, एवं मोरवा गांव की दक्षिण दिशा मे एस्सल वर्ड के समीप स्थित जंगलों मे होती थी. यहासे दारु मुंबई मे पहुंचाया जाता था.

पूर्व पश्चिम वाहनों के आवागमन के लिये फाटक स्थित एक मात्र कच्चा रास्ता था. जिसको ट्रैन आनेसे पांच मिनट पहले बंद किया जाता था. कभी कभी तो यहां मांडली तालाब तक लम्बी लाइन लग जाती थी.

पांजू गांव वाले को ब्रिटिश कालीन पुराना ब्रिज या नायगाव का पुराना ब्रिज के उपर से पैदल चलकर आना जाना पड़ता था. उस समय उन लोगों के लिये जलसेवा उपलब्ध नहीं थी. वर्त्तमान मे पांजू गांव से नायगांव तक जलमार्ग सेवा शुरु है.

——=== शिवसर्जन ===——

About पत्रकार : सदाशिव माछी -"शिव सर्जन"

View all posts by पत्रकार : सदाशिव माछी -"शिव सर्जन" →