प्रबल इच्छा शक्ति. ( WILLPOWER )

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आपने अंग्रेजी में मशहूर कहावत सुनी होंगी कि ए विल विल फाइंड ऐ वे. ” A will will find a way ” ” एक इच्छा, एक रास्ता मिल जाएगा. यह एक सुंदर सुविचार है.” मगर इच्छा करने मात्र से सफलता नहीं मिल जाती. हमें इसके लिये कड़ा संघर्ष करना पड़ता है. पुरुषार्थ करना पडता है. अपने कार्य में एकाग्रता लानी पड़ती है. इसके लिये हमें इच्छा शक्ति will power को बढ़ाना पडता है.

          इच्छा शक्ति कुछ उपलब्धिया पाने के लिये खूब जरुरी है. यदि आपके पास इच्छा शक्ति हो तो अनेक रूकावट या अनेक बाधाओके बावजूद भी रास्ता मिल जायेगा. हमारी योजना ओको सफल बनाने के लिये इच्छा शक्ति होना जरुरी होती है. ये बात सही है की जहां इच्छा है वहां रास्ता है, मगर जहां इच्छा शक्ति है वहां सफलता है. 

      आपके पास इच्छा शक्ति की कमी हो तो परिणाम भी हमें कमजोर मिलता है. इच्छा शक्ति मानव मस्तीक की उपज है, और पुरुषार्थ से साकार होती है. इच्छा सकती मनुष्य को लड़ने मे मदद करती है. इस शक्ति के अंतर्गत दृढ़ निश्चय, आत्मविश्वास, कार्य करने की लगन , और मुश्किल कार्य को आसन करने के तरीके आदि गुण आ जाते हैं. 

       मन की इच्छा शक्ति पूर्ण करने के लिये शरीर मे ऊर्जा होना खास जरुरी है. इच्छा उतनी करनी चाहिए जितनी आप कर सकते हो. यदि आप संकल्प करो की मुजे एक दिन मे 100 किताब पढ़नी है तो क्या ये संभव है ? बिलकुल नहीं. आप चाहो की , मैं इच्छा शक्ति से आप सूर्य को पृथ्वी पर लाना चाहते हो, तो क्या ये संभव है ? कदापि नहीं. ऐसा करने पर हमारी इच्छा शक्ति मे कमी आयेगी. हम हताशा मे चले जायेंगे. 

         आप एक महीने मे दस किलो अपना वजन उतारने की इच्छा करो और उसके लिये कार्य करो और आप वजन उतना नहीं उतार सकते हो तो आपकी इच्छा शक्ति मे कमी आयेगी. और यदि आप कर पाते हो तो आपकी इच्छाशक्ति प्रबल होगी.  

     आज ऐसे ही कुछ महान इच्छाशक्ति धारक लोगों की बात शेयर करनी है, जिन्होने अपनी इच्छा सकती के सहारे असंभव कार्य को संभव कर दिखाया है. 

( 1 ) सिंधु माई सकपाल : 

              बचपन का नाम ” चिंधी “. फटे हुये कपडे के टुकड़े को मराठी मे ” चिंधी ” कहते है. उनका जन्म ता : 14 नवम्बर 1948 के दिन महाराष्ट्र के पुणे स्थित पिंपरी मेघे गांव मे हुआ था. जब वह महज 10 साल की थी तो उनका विवाह तीस वर्षीय हरि सकपाल से कर दीया गया.ससुराल वालोने उसका नाम सिंधु रखा. बीस साल की उम्र मे वह तीन बच्चों की मा बन गई. लोग उन्हें सिंधु माई के नामसे पहचान ने लगे. 

         उसको घरसे इसीलिए निकाल दीया गया क्योंकि वो बचपन से अन्याय का विरोध करती रही. एक दिन गांव वाले को उनकी मजदूरी का पैसा ना देने पर सिंधु ताई ने गांव के मुखिया की शिकायत जिला अधिकारी से की. मुखिया ने इस अपमान का बदला लेने उनके पति श्री हरि सकपाळ को सिंधु ताई को घर से बाहर निकालने के लिए प्रवृत्त किया, उस समय सिंधु ताई नव महिने गर्भ के बच्चे से प्रेग्नेंट थी. 

           वह घर छोड़कर चली गई और उसी रात उन्होने गाय भैंस के तबेले मे एक बेटी को जन्म दिया. बच्चे के जन्म के समय उनको गर्भनाल को स्वयं पत्थर से काटना पड़ा. वो कमजोर हो चुकी थी, फ़िरभी पत्थर के सोलह वार करके नाल को काता. 

      भूख मिटाने रोटी के लिये दिन मे रेल्वे स्टेशन पर भीख मांगती और रातको श्मशान मे सोती. प्रेत की अग्नि मे रोटी भुजकर खानेके दिन देखे. हिम्मत नहीं हारी. गरीब अनाथ बेसहारा बच्चे, त्याजका महिला ओके लिये जीनेका प्रण लिया. खुद भीख मांगकर लाती, बच्चे को खिलाती, पढ़ाती. 

   आप उनके परिवार मे 207 दामाद, छत्तीस पुत्रियाँ और एक हजार से अधिक पोते-पोतियों का एक भव्य परिवार है. जिन बच्चों को उसने गोद लिया उनमें से कई पढ़े-लिखे वकील और डॉक्टर हैं, और कुछ, जिनमें उनकी जैविक बेटी भी शामिल है, अपने स्वयं के स्वतंत्र अनाथालय चला रहे हैं. उसका एक बच्चा उसके जीवन पर पीएचडी कर रहा है. उनके समर्पण कार्य के लिए उन्हें 273 से अधिक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है.

        सिंधु माई सपकाळ को महाराष्ट्र की मदर टेरेसा के रुप मे देखा जा रहा है. सिंधु माई का कार्य आज महाराष्ट्र की 5 बड़ी संस्थाओं में तब्दील हो चुका है. इन संस्थाओं में एक हजार अनाथ बच्चे एक परिवार की तरह रहते हैं, 

 ( 2 ) श्री दशरथ मांझी :

       बिहार राज्य के गया जिले में गहलोर नामक गांव के दशरथ मांझी के पास प्रबल इच्छाशक्ति थी. श्री दशरथ मांझी की पत्नी का 1959 में निधन हो गया. वह अपनी बीमार पत्नी को अपने गांव से इलाज के लिये शहर लेकर जाना चाहता था. 

       उसके गांव और शहर के बिच मे एक पत्थर का पहाड़ पड़ता था. और उस पहाड़ से घूमकर गया शहर तक पहुंचने का रास्ता लगभग 70 किलोमीटर का था. दशरथ मांझी की पत्नी फागुनी देवी ने अस्पताल पहुंचने से पहले ही रास्ते में ही दम तोड़ दिया. अपनी पत्नी के देहांत के बाद दशरथ मांझी ने रास्ते में खड़े उस पहाड़ को अकेले ही तोड़ना शुरू किया.

        22 वर्षों तक की लगातार मेहनत के बाद आखिरकार अपने गांव व गया शहर के बीच की लगभग 70 किलोमीटर की दूरी को उसने मात्र 15 किलोमीटर के रास्ते में परिवर्तित कर दिया. उसने लगभग 360 फुट लंबा तथा 25 फुट गहरा तथा लगभग 30 फुट चौड़ा मार्ग गहलोर की पथरीली पहाड़ियों के बीच से खोदकर बना लिया. 

         कहा जाता है की तृष्णाएं किसी की पूरी नहीं होतीं है, और संकल्प किसी के अधूरे नहीं रहते. इसीलिए तो कहा गया है, मन के हारे हार है, मन के जीते जीत. 

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