प्रसिद्ध महान शायर “मिर्जा ग़ालिब”| Mirza Ghalib

mirza ghalib

मिर्जा ग़ालिब देश विदेश मे महान शायर के रूपमें पहचाना जाता है. ग़ालिब की शायरी जवां दिलो की धड़कन बनी हुयी है. प्रियतमा को प्रशन्न करने के लिये प्यार मे पागल प्रेमी शायर बनने की कोशिश करता है. तभी तो सन 1973 मे रिलीज हुई पुरानी हिंदी फ़िल्म ” बॉबी ” मे गीतकार श्री आनंद बक्षी ने एक गाना लिखा था , ” मैं शायर तो नहीं, मगर ऐ हसीं, जबसे देखा तुजको मुजको, शायरी आ गई..! “

      मगर आज मुजे बात करनी है, ता : 27 दिसंबर 1797 के दिन आगरा के कला महल में जन्मे प्रसिद्ध गायक मिर्जा ग़ालिब की जीवनी के बारेमे कुछ जानकारी. मिर्जा ग़ालिब मुगलकाल के आखिरी महान कवि और शायर थे. मिर्ज़ा ग़ालिब के शेर , शायरी दुनियाभार में मशहूर हैं. 

       मिर्ज़ा ग़ालिब की प्रमुख भाषा उर्दू थी मगर उन्होंने उर्दू के साथ फारसी में भी कई शेर लिखे है. ग़ालिब की शायरी दिलों को छू लेती है. ग़ालिब की कविताओं पर भारत और पाकिस्तान में कई नाटक भी बन चुके हैं. आज 150 साल बाद भी लोग उन्हें याद करते है. 

          मिर्ज़ा ग़ालिब आखिरी मुग़ल सुल्तान बहादुर शाह ज़फर के दरबारी शायर थे. मिर्जा ग़ालिब की शायरी हिंदी, उर्दू और फारसी ज़बान में है, शुरू में मिर्ज़ा ग़ालिब के शेर बहुत मुश्किल हुआ करते थे और वह विद्वानों के भी समझ में नहीं आते थे पर बाद में मिर्ज़ा ग़ालिब ने आम फहम ज़बान में शायरी की और बहुत लोकप्रिय शायर हो गए. 

 मिर्जा ग़ालिब की शायरी में प्यार, इश्क , गम , दर्द, रुह , जुदाई, खुदा , मय, शराब, खुदी आदिका बेहतरीन किया गया ज़िक्र मिलता है    

         ग़ालिब का शेर जिंदादिल आशिक की तरह इश्क की रस्मों को निभाता है. उन्होंने उनकी नज्में और शेर की तहजीब दुनिया के सामने रखी थी. 

       मिर्जा ग़ालिब का पुरा नाम था, मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ ग़ालिब ” आप उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे. इनको फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी दिया जाता है. 

         ग़ालिब ने दिल्ली, आगरा, और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारी थी. उनका मानना था की दुनिया में बहुत से अच्छे कवि शायर हैं, लेकिन उनकी शैली सबसे अलग है. 

“ हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और ”.

        ग़ालिब का जन्म आगरा में एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था. उनके पिता और चाचा का बचपन में ही देहांत हो गया था. उनका जीवनयापन अपने चाचा के मरणोपरांत मिलने वाले पेंशन से होता था. वो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सैन्य अधिकारी थे.

         इनके दादा मध्य एशिया के समरक़न्द से सन 1750 के करीब भारत आए थे. और आगरा मे बसे थे. उनका बेटा मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग गालिब के पिता थे. उन्होंने इज़्ज़त उत निसा बेगम से निकाह किया और अपने ससुर के घर में रहते थे. उन्होने पहले लखनऊ के नवाब और बाद में हैदराबाद के निज़ाम के यहाँ काम किया था. सन 1803 में अलवर में एक युद्ध में उनकी मृत्यु के समय गालिब मात्र 5 वर्ष के थे. 

          ग़ालिब ने 11 साल की अवस्था में उर्दू एवं फ़ारसी में गद्य तथा पद्य लिखना शुरू कर दिया था. उन्होने फारसी और उर्दू दोनो में पारंपरिक गीत काव्य की अपनी रहस्यमय रोमांटिक शैली में सबसे व्यापक रूप से लिखा और यह ही गजल के रूप में जाना जाता है.

       महज 13 वर्ष की आयु में उनका विवाह नवाब ईलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से हुआ था. विवाह के बाद वह दिल्ली आ गये थे जहाँ उनकी तमाम उम्र बीती थी. 

            सन 1850 में शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय ने मिर्ज़ा गालिब को दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के खिताब से नवाज़ा था बाद में उन्हे मिर्ज़ा नोशा का खिताब भी मिला था. वे शहंशाह के दरबार में एक महत्वपूर्ण दरबारी थे. उन्हे बहादुर शाह ज़फर द्वितीय के ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार फ़क्र उद दिन मिर्ज़ा का शिक्षक भी नियुक्त किया गया था.  

        ” शायरी के शहंशाह ” मिर्जा ग़ालिब ता : 15 फरवरी 1869 के दिन इस फ़ानी दुनिया को हमेशा के लिये अलविदा कहकर परलोक चले गये थे.    

मिर्जा की कुछ रचनाये : 

(1) तुम न आए तो क्या सहर न हुई, 
हाँ मगर चैन से बसर न हुई, 
मेरा नाला सुना ज़माने ने, 
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई. 

( सहर = सुबह. )

(2) हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले, 
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले.

(3) हाथों की लकीरों पे मत जा ऐ गालिब। 
नसीब उनके भी होते हैं जिनके हाथ नहीं होते।।

(4) दर्द जब दिल में हो तो दवा कीजिए। 
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजिए।। 

(5) उनके देखने से जो आ जाती है मुंह पर रौनक,
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है…

——–====शिवसर्जन ====——

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