सर्व विदित है कि यदि कोई ब्राह्मण का सच्चे दिलसे आशीर्वाद मिल जाये तो वो व्यक्ति रोड पति से करोड़ों पति बन जाता है और यदि ऐसे ब्राह्मण ने श्राप दे दिया तो उसका सर्वस्व नष्ट हो जाता है. शास्त्रों के अनुसार एक संस्कृत श्लोक में वर्णन किया गया है कि ,
पृथिव्यां यानी तीर्थानि तानी तीर्थानि सागरे ।
सागरे सर्वतीर्थानि पादे विप्रस्य दक्षिणे ।।
चैत्रमाहात्मये तीर्थानि दक्षिणे पादे वेदास्तन्मुखमाश्रिताः ।
सर्वांगेष्वाश्रिता देवाः पूजितास्ते तदर्चया ।।
अव्यक्त रूपिणो विष्णोः स्वरूपं ब्राह्मणा भुवि ।
नावमान्या नो विरोधा कदाचिच्छुभमिच्छता ।।
” इस श्लोक का मतलब है, पृथ्वी में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी समुद्र में मिलते हैं और समुद्र में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी ब्राह्मण के दक्षिण पैर में है. चार वेद उसके मुख में हैं. अंग में सभी देवता आश्रय करके रहते हैं. इसलिए ऐसी मान्यता है ब्राह्मण की पूजा करने से सब देवों की पूजा होती है. पृथ्वी में ब्राह्मण विष्णु स्वरूप माने गए हैं इसलिए जिसको कल्याण की इच्छा हो उसे कभी ब्राह्मणों का अपमान तथा द्वेष नहीं करना चाहिए.”
जाती प्रथा हमारे ऋषि मुनि ओने चार वर्णों में बाटी है. सभी अपने स्थानों पर श्रेष्ठ है . भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहां है
“चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। ”
चार वर्णों की रचना मैंने की है. जिसका गुण कर्म के आधार पर वर्गीकरण किया गया है. गुण और कर्म के आधार पर वर्गीकरण न्यायोचित और स्वाभाविक है. सनातन (हिन्दू ) धर्म का दर्शन विश्व में सर्व श्रेष्ठ है लेकिन जिस व्यवस्था को भगवान श्री कृष्ण गुणकर्म के आधार पर स्वीकृति देते हैं, वही व्यवस्था आगे चलकर कालान्तर के बाद जन्म के अनुसार बन गई.और इसे सामाजिक स्वीकृति भी मिल गई. जो आज तक व्यवस्था बनी हुई है.
माना जाता है कि पृथ्वी पर सबसे पहले बैक्टेरिया से वनस्पति की उत्पत्ति हुई. पशु पक्षी तद्पश्चात मानव जाती की उत्पत्ति हुई. वनस्पति में पिंपल के पेड़ को ब्राह्मण माना जाता है. पशु में गाय को ब्राह्मण माना जाता है और मनुष्य जाती में ब्राह्मण को ब्राह्मण कहां जाता है. जो जाती प्रथा का प्रथम भाग कहलाता है.
ब्राह्मण किसे कहते है ? जो ब्रह्म को जानता है उसे ही ब्राह्मण कहां जाता है. ब्राह्मणों में कई श्रेणियां हैं. सामवेदी ये सामवेद गायन करने वाले लोग थे.अग्नि में आहुति देने वाले को अग्निहोत्री , और ऋग्वेद के पाठक को होत्री कहा जाता है. तीन लोगोंके ज्ञाता को त्रिवेदी कहां जाता है. चार वेदोंके ज्ञाता को चतुर्वेदी कहां जाता है. और जिन्हें यज्ञ वेदी बनाने का ज्ञान था उसे वेदी कहां गया है.
वैदिक काल में ब्राह्मण होने के लिए शिक्षा, दीक्षा और कठिन तप करना आवश्यक होता था. इसके बाद ही उसे ब्राह्मण कहा जाता था. आज गुरुकुल की वह परंपरा लुप्त हो चुकी है. जिन लोगों ने ब्राह्मणत्व अपने प्रयासों से हासिल किया था उनके कुल में जन्मे लोग भी खुद को ब्राह्मण के रूपमें समझने लगे. आलम ये हुआ की जिसने शिक्षा या दीक्षा ना ली हो ऐसे ऋषि-मुनियों की वे संतानें भी खुद को ब्राह्मण मानने लगी.
विद्वानों का कहना है कि धर्म के बारेमें जानकारी ना होना. धर्म विरोधी वचन बोलने वाले, मांस खाकर, शराब पीकर असत्य बोलने वाले ब्राह्मण नहीं हो सकते. जन्म से हर कोई अज्ञानी होता है, और अपने कर्म और जीवन-साधना के द्वारा ऊंचे आदर्शों को हासिल कर ही कोई ब्राह्मण कहला सकता है. ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण कहलाता है.
जो पुरोहिताई करके अपनी जीविका चलाता है, उसे ब्राह्मण नहीं, याचक कहां जाता है. तथा जो ज्योतिषी या नक्षत्र विद्या से अपनी जीविका चलाता है वह ब्राह्मण नहीं, ज्योतिषी है और जो कथा बांचता है वह ब्राह्मण नहीं कथा वाचक है. इस तरह वेद और ब्रह्म को छोड़कर जो कुछ भी कर्म करता है वह ब्राह्मण नहीं है. जिसके मुख से ब्रह्म शब्द का उच्चारण नहीं होता रहता वह ब्राह्मण नहीं.
भगवान बुद्ध ब्राह्मण के बारेमें क्या कहता है ?
न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो॥
अर्थात : भगवान बुद्ध कहते हैं कि ब्राह्मण न तो जटा से होता है, न गोत्र से और न जन्म से. जिसमें सत्य है, धर्म है और जो पवित्र है, वही ब्राह्मण है. कमल के पत्ते पर जल और आरे की नोक पर सरसों की तरह जो विषय-भोगों में लिप्त नहीं होता, मैं उसे ही ब्राह्मण कहता हूं.
भगवान महावीर स्वामी इस बारेमें क्या कहता है ?
तसपाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे।
जो न हिंसइ तिविहेण तं वयं बूम माहणं॥
अर्थात : महावीर स्वामी कहते हैं कि जो इस बात को जानता है कि कौन प्राणी त्रस है, कौन स्थावर है.और मन, वचन और काया से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता, उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं.
आगे महावीर स्वामी कहता है,
न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो।
न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो॥
अर्थात : महावीर स्वामी कहते हैं कि सिर मुंडा लेने से ही कोई श्रमण नहीं बन जाता. ओंकार का जप कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता. केवल जंगल में जाकर बस जाने से ही कोई मुनि नहीं बन जाता. वल्कल वस्त्र पहन लेने से ही कोई तपस्वी नहीं बन जाता.
धार्मिक पुराणों के अनुसार प्रथम विष्णु के नाभि कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए, ब्रह्मा का ब्रह्मर्षिनाम करके एक पुत्र था. उस पुत्र के वंश में पारब्रह्म नामक पुत्र हुआ, उससे कृपाचार्य हुए, कृपाचार्य के दो पुत्र हुए, उनका छोटा पुत्र शक्ति था. शक्ति के पांच पुत्र हुए. उसमें से प्रथम पुत्र पाराशर से पारीक समाज बना, दूसरे पुत्र सारस्वतके सारस्वत समाज, तीसरे ग्वाला ऋषि से गौड़ समाज, चौथे पुत्र गौतम से गुर्जर गौड़ समाज, पांचवें पुत्र श्रृंगी से उनके वंश शिखवाल समाज, छठे पुत्र दाधीच से दायमा या दाधीच समाज बना. इस तरह पुराणों में कई प्रकार मिल जायेंगे.
कई धर्म में ब्राह्मणों कि उत्पत्ति का वर्णन अलग मिल जायेगा. बौद्ध धर्म, जैन धर्म के ग्रंथ कुछ अलग कहते है. मान्यता के अनुसार सप्तऋषियों की संतानें भी ब्राह्मण कही जाती है.
भगवान श्री कृष्ण ने स्पस्ट शब्दों में कहां है कि, मेरे चारों वर्णों की रचना गुणकर्म के आधार पर की गई है. ब्राह्मण अपने गुणकर्म से ब्राह्मण कहलाता था, शूद्र भी अगर शुभ कर्म करता था, तो उच्चीकृत करके ब्राह्मण वर्ग में सम्मिलित किया जाता था.
महर्षि बाल्मीकि और वेद व्यास जन्म से ही शूद्र थे. लेकिन स्वाध्याय, त्याग, तपस्या के द्वारा गुणों का विकास करके ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया था. वाल्मीकि ने रामायण लिखी तो वेद व्यास ने महाभारत लिखी. एक कुंआरी केवट कन्या के अवैध पुत्र को आज सारा हिन्दू समाज वेद व्यास के नाम से जानता है और पूजा करता है.
बीना गुण के ब्राह्मण का हमारे स्वर्ण काल में कोई स्थान नहीं था. महाभारत के शान्ति पर्व में शर- शय्या पर पड़े भीष्म पितामह श्री कृष्ण की उपस्थिति में पांचो पाण्डव और द्रौपदी को राजा के धर्म-कर्म को विस्तार से समझाते हुए स्पष्ट कहते हैं कि
जो विद्वान द्रोह और अभिमान से रहित लज्जा, क्षमा, शम, दम आदि सर्व गुणों से युक्त बुद्धिमान, सत्यवादी, धीर, अहिंसक, राग-द्वेष से शून्य, सदाचारी, शास्त्रज्ञ और ज्ञान से संतुष्ट हो, वही ब्रह्मा के आसन पर बैठने का अधिकारी है, वही ब्राह्मण है.
महर्षि वेद व्यास दिखने में अत्यन्त कुरूप थे, रंग भी काला था लेकिन उन्होंने उपर वर्णित समस्त गुणों को धारण किया था; इसलिए वे वेद व्यास कहलाए. महाभारत काल से लेकर आजतक के वे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण थे. आज भी जो कथा वाचक रामायण, महाभारत, गीता या भागवत्पुराण पर कोई प्रवचन देता है, उसे व्यास ही कहा जाता है और जिस आसन पर बैठकर वह श्रोताओं को संबोधित करता है, उसे व्यास गद्दी कहा जाता है.
स्मृति-पुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन मिलता है, मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि. 8 प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताए गए हैं.इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं. ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है.
(1) मात्र : ऐसे ब्राह्मण जो जाति से ब्राह्मण हैं लेकिन वे कर्म से ब्राह्मण नहीं हैं उन्हें मात्र कहा गया है. ब्राह्मण कुल में सिर्फ जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं कहलाता. बहुत से ब्राह्मण ब्राह्मणोचित उपनयन संस्कार और वैदिक कर्मों से दूर हैं, तो वैसे मात्र हैं.
(2) ब्राह्मण : ईश्वरवादी, वेदपाठी, ब्रह्मगामी, सरल, एकांतप्रिय, सत्यवादी और बुद्धि से जो दृढ़ हैं, वे ब्राह्मण कहे गए हैं. तरह-तरह की पूजा-पाठ आदि पुराणिकों के कर्म को छोड़कर जो वेदसम्मत आचरण करता है वह ब्राह्मण कहा गया है.
(3) श्रोत्रिय : स्मृति अनुसार जो कोई भी मनुष्य वेद की किसी एक शाखा को कल्प और छहों अंगों सहित पढ़कर ब्राह्मणोचित 6 कर्मों में सलंग्न रहता है, वह ‘श्रोत्रिय’ ब्राह्मण कहां जाता है.
(4) अनुचान : कोई भी व्यक्ति वेदों और वेदांगों का तत्वज्ञ, पापरहित, शुद्ध चित्त, श्रेष्ठ, श्रोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला और विद्वान है, वह ‘अनुचान’ ब्राह्मण माना गया है.
(5) भ्रूण : अनुचान के समस्त गुणों से युक्त होकर केवल यज्ञ और स्वाध्याय में ही संलग्न रहता है, ऐसे इंद्रिय संयम व्यक्ति को भ्रूण ब्राह्मण कहा गया है.
(6) ऋषिकल्प : जो कोई भी व्यक्ति सभी वेदों, स्मृतियों और लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर मन और इंद्रियों को वश में करके आश्रम में सदा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए निवास करता है उसे ऋषिकल्प कहा जाता है.
(7) ऋषि : ऐसे व्यक्ति तो सम्यक आहार, विहार आदि करते हुए ब्रह्मचारी रहकर संशय और संदेह से परे हैं और जिसके श्राप और अनुग्रह फलित होने लगे हैं उस सत्यप्रतिज्ञ और समर्थ व्यक्ति को ऋषि कहा गया है.
(8) मुनि : जो व्यक्ति निवृत्ति मार्ग में स्थित, संपूर्ण तत्वों का ज्ञाता, ध्याननिष्ठ, जितेन्द्रिय तथा सिद्ध है ऐसे ब्राह्मण को ‘मुनि’ कहते हैं.
वर्तमानमे हमारी सरकार ने कानून बनाकर राजकीय सेवकों को चार श्रेणियों में बांटकर रखा है.
(1) क्लास = 1.नीति निर्माण, प्रबंधकीय, कार्यकारी और वित्तीय अधिकार से संपन्न उच्च अधिकारी वर्ग.
(2) क्लास = 2. आदेश पालक अधिकारी वर्ग.
(3) क्लास =3. इन्हें आफिसियल या सबआर्डिनेट स्टाफ़ कहा जाता है. ये कार्यालय सहायक या तकनिकी सहायक कर्मचारी होते हैं.
(4) क्लास =4. चपरासी, रनर, कूली, अकुशल श्रमिकवर्ग.
इसपर भी कई उपवर्ग मिल जायेंगे. यह सभी विभाजन का आधार गुण और कर्म है. यह विभाजन जन्म जात नहीं है. यहां श्री कृष्ण के संदेश गुण के अनुसार काम का सिद्धांत काम कर रहा है.
ब्राह्मणों के गोत्र की बात करें तो ब्राह्मण अपनी उत्पत्ति सात ऋषियों से मानते हैं. ये मुख्य सात ऋषि थे- 1.अत्रि, 2. भारद्वाज, 3. भृगु, 4. गौतम, 5.कश्यप, 6. वशिष्ठ, तथा 7.विश्वामित्र.
बाद में इसमें एक आठवां गोत्र अगस्त्य भी जोड़ा गया और गोत्रों की संख्या बढ़ती चली गई. जैन ग्रंथों में 7 गोत्रों का उल्लेख है- कश्यप, गौतम, वत्स्य, कुत्स, कौशिक, मंडव्य और वशिष्ठ. लेकिन छोटे स्तर पर साधुओं से जोड़कर हमारे देश में कुल 115 गोत्र पाए जाते हैं.
अंत में एक बात कहना चाहूंगा की राजा रावण ब्राह्मण था मगर उसकी आसुरी वृति के कारण वो राक्षस कहलाया. रावण महान योद्धा, बड़ा शिव भक्त, वेदोंका ज्ञाता, शिव तांडव श्रोत का रचयता, महान वैज्ञानिक सोने की लंका का पति था. ब्राह्मण था, मगर उसके कर्म के कारण उसको नीच शूद्र माना गया.
——–====शिवसर्जन ====——