धर्म ग्रंथो मे कुल 51 शक्तिपीठों का उल्लेख है. माता श्री सती के जहां पर अंग गिरे वहां पर शक्तिपीठ के रुप मे स्थापना की गई है. इन्ही शक्तिपीठो मे से एक शक्ति पीठ है माता हर सिद्धि स्थान जो गुजरात राज्य के पोरबंदर शहर से द्वारका जाने वाले मार्ग मे पोरबंदर से करीब 30 किलोमीटर की दुरी पर विद्यमान है.
इस देवी को कई ब्राह्मण , क्षत्रिय , राजपूत और वैश्य समुदायों द्वारा तथा गुजरात के त्रिवेदी परिवार द्वारा कुलदेवी के रुप मे पूजा जाता है. जैन धर्म को मानने वाले भी इस देवी के प्रति गहरी आस्था रखते है.
दो साल पहले मुजे द्वारका जाते समय वहां जानेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था. यह देवी भगवान श्री कृष्ण की कुलदेवी है. इनकी पूजा स्वयं भगवान श्री कृष्ण और यादव लोग किया करते थे. देवी को मंगलमूर्ति देवी के नामसे जाना जाता था. इस देवी की आराधना और तपस्चर्या से भगवान श्री कृष्ण जरासंघ का वध करनेमे सफल हुये थे अतः यादवो ने प्रसन्न होकर देविका नाम हर्षल माता रख दिया था.
देवीकी मछुआरे , और अन्य समुद्री पालन करने वाली जन जातियों और गुजरात के लोगों द्वारा धार्मिक रुप से पूजा की जाती है. यह देवी समुद्री वाहनों का रक्षक मानी जाती है. इस
हरसिद्धि माता मंदिर को गाँधी गाँव में स्थित हर्षल माता मंदिर के नाम से भी पहचानते है. मुख्य मंदिर मूल रूप से समुद्र के सामने एक पहाड़ी पर स्थित था.
ऐसा कहा जाता है कि कृष्ण ने अपने जीवनकाल में उनकी पूजा की थी. पहाड़ी के ऊपर मूल मंदिर को कृष्ण ने खुद बनाया था. असुरो और जरासंघ को हराने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने यह मंदिर का निर्माण किया था.
जरासंघ के मरनेके बाद यादवो ने यहां पर हर्ष से जश्न मनाया था. अतः यह मंदिर को हर्षल माता के नामसे पूजी जाती है.
यहां माता सती की कोहनी ( Elbow ) गिरी थी. यह मंदिर मध्यप्रदेश के उज्जैन और गुजरात के द्वारका दोनों जग़ह विध्यमान है. पौराणिक मान्यता के अनुसार सम्राट विक्रमादित्य की यह कुलदेवी है.
एक कथा अनुसार माता का मूल मंदिर पर्वत के ऊँचे शिखर स्थित है. लेकिन अब माता की पूजा निचे के मंदिर में होती है वह पर्वत के कुछ नीचे है.इसके पीछे भी एक रोचक कहानी है. उपर पर्वत पर स्थित मंदिर से माता की दृष्टि समुद्र में जहां तक जाती थी वहां से गुजरने वाली नाव समुद्र में विलीन हो जाती थी. या डूब जाती थी.
जग्दु , कच्छ के 13 वीं शताब्दी के व्यापारी , पोरबंदर के पास पुराने बंदरगाह शहर मियानी के पास कोयल पहाड़ियों पर देवी का मंदिर बनाने के लिए पहचाने जाते हैं. उनकी मूर्ति को मंदिर में देवी के दाहिनी ओर भी रखा गया है.
एक बार कच्छ के व्यापारी जगदु शाह नाम की नाव भी डूब गई और वह खुद बहुत ही मुश्किल से बचकर बाहर आया. उसने माता की कड़ी तपस्चर्या की और माता से आज्ञा लेकर व्यापारी ने माता का मंदिर पर्वत के नीचे बनवाया और माता से प्रार्थना की नए मंदिर में निवास करने के लिए निचे आये इसके बाद से समुद्र में उस स्थान पर नाव के डूबने की घटना बंद हो गई.
एक अन्य कथा के अनुसार सम्राट विक्रमादित्य माता हरसिद्धि का परम भक्त था. वह अपना सिर काटकर माताके चरणों मे अर्पित कर देता था. लेकिन माता की कृपा से उनका सिर फिर से जुट जाता था. ऐसा राजा ने 11 बार किया था. बारहवीं बार जब राजा ने अपना सिर चढ़ाया तो वह फिर नहीं जुटा. इस कारण उनका जीवन समाप्त हो गया . आज भी मंदिर में 11 सिंदूर लगे रुण्ड मौजूद हैं. मान्यता है कि यह राजा विक्रमादित्य के कटे हुए मुण्ड हैं.
एक मंदिर उज्जैन और दूसरा द्वारका स्थित विध्यमान है . उज्जैन में हरसिद्धि माता का मंदिर महाकालेश्वर मंदिर के पीछे पश्चिम दिशा में स्थित है. दोनों मंदिरों के बीच में एक समानता है, वो है पौराणिक रूद्रसागर. दोनों मंदिरों के गर्भ गृह में माता श्रीयंत्र पर विराजमान हैं.
तंत्र साधना के लिए उज्जैन में स्थित माता हरसिद्धि का मंदिर काफी प्रसिद्ध है. माता हरसिद्धि के आस-पास महा लक्ष्मी और महासरस्वती भी बिराजित हैं . माता के मंदिर में श्री कर्कोटेश्वर महादेव मंदिर भी स्थित है जहां कालसर्प दोष के निवारण के लिए पूजा की जाती है.
यहा देवी का नाम हरसिद्धि रखे जाने के बारे में स्कंद पुराण में कथा है कि एक बार कैलास पर्वत पर चंड और प्रचंड नाम के दो दानव ने जब बिना किसी अधिकार के प्रवेश करने का प्रयास किया तो नंदी ने उन्हें रोक दिया. असुरों ने नंदी को घायल कर दिया. जब भगवान शिव ने असुरों का यह कृत्य देखा तो उन्होंने भगवती चंडी का स्मरण किया. उसी समय देवी प्रकट हुईं. शिव के आदेश पर देवी ने दोनों असुरों का वध कर दिया. इससे महादेव प्रसन्न हो गए. कहा तुमने इन दोनों दानवों का वध किया है. इसलिए आज से तुम्हारा नाम हरसिद्धि के नामसे पूजित होगा.
——–===शिवसर्जन ===——-