भारतीय संगीत का वाद्य – यंत्र ढोलक.

आज मुझे ढोलक के बारेमें बात करनी है. ढोलक गायन व नृत्य के साथ बजायी जाती है. यह एक प्रमुख ताल वाद्य है. प्राचीन काल में ढोल का प्रयोग पूजा प्रार्थना और नृत्य गान में ही नहीं बल्कि दुश्मनों पर प्रहार करने, खूंखार जानवरों को भगाने, समय व चेतावनी देने के साधन के रूप में भी किया जाता रहा है.

ढोल, ढोलक या ढोलकी भारतीय वाद्य-यंत्र है, जो मुख्य रूप से लोक संगीत या भक्ति संगीत को ताल देने के काम आते है. होली के गीतो में ढोलक का जमकर प्रयोग होता है. ढोलक और ढोलकी को अधिकतर हाथ से बजाया जाता है जबकि ढोल को अलग अलग तरह की छड़ियों से बजाया जाता है.

ढोलक आम, बीजा, शीशम, सागौन या नीम की लकड़ी से बनाई जाती है. लकड़ी को पोला करके दोनों मुखों पर बकरे की खाल डोरियों से कसी जाती है. डोरी में छल्ले रहते हैं, जो ढोलक का स्वर मिलाने में काम आते हैं. यह गायन व नृत्य के साथ बजायी जाती है. ढ़ोल कई तरह के हो सकते है, जिनका उपयोग होली दीवाली आदि त्योहारों के दौरान किया जाता है.

होली के गीतों में ढोलक का जमकर प्रयोग होता है. इसके अलावा नवरात्रि के नव दिन तक इसका प्रयोग धूमधाम से होता है. कव्वाली, कीर्तन, पंजाबी भांगड़ा, मराठी लावाणी, गुजराती गरबा मे इसका व्यापक उपयोग होता है. इसका भारतीय संस्कृति महोत्सव तथा फ़िल्मी सांगितो मे किया जाता है.

ढोलक आम, बीजा, शीशम, सागौन या नीम की लकड़ी से बनाई जाती है. लकड़ी को पोला करके दोनों मुखों पर बकरे की खाल डोरियों से कसी रहती है. डोरी में छल्ले रहते हैं , जो ढोलक का स्वर मिलाने में काम आते हैं. चमड़े अथवा सूत की रस्सी के द्वारा इसको खींचकर कसा जाता है.

तबला और ढोलक में मूलभूत अंतर यह है ढोलक दोनो हाथों से आगे पीछे बजाया जाता है जबकि तबला में दोनो वाद्य सामने रखे होते है और उनको दोनो हाथों से बजाया जाता है. अगर आप एक ढोलक के बीच से दो टुकडे कर दे तो वह तबला का रूप ले लेगा.

ढोलक का इतिहास उत्तर भारतीय राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में खोजा जा सकता है, जहां पर इसका उपयोग सदियों से लोक और शास्त्रीय संगीत में किया जाता रहा है.

भारत में संगीत का प्रचलन अनादि काल से है. सामवेद में संगीत का वर्णन है. इसीके आधार पर ही भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र लिखा और बाद में संगीत रत्नाकर, तथा अभिनय राग मंजरी लिखा. विश्व के संगीत के ग्रंथ सामवेद से प्रेरित है. हिंदूओंके लगभग सभी देवी देवता ओके पास अपने अलग अलग वाद्य है. विष्णु के पास शंख है. शिव के पास डमरू, नारद और सरस्वती माँ के पास वीणा, भगवान श्री कृष्ण के पास बांसुरी है.

श्री गणेशजी की मूर्ति और चित्रों में वीणा, सितार और ढ़ोल बजाते हुए दर्शाया जाता है. गणेश जी संगीत प्रेमी है. इस बात का उल्लेख ढोल सागर ग्रंथ में मिलता है. इस ग्रंथ के अनुसार विष्णु जी ने तांबा धातु को गलाया और ब्रह्मा जी ने उस ढोलमें ब्रह्म कनौटी (ढोल की रस्सी जो गले में लटकाई जाती है.) और ढोल के दोनों ओर सूर्य और चंद्रमा के रूप में खालें लगाई गईं जो कि नर नारी का प्रतीक हैं.

उस समय भगवान शंकर ने खुश होकर, डमरू बजाते हुए नृत्य किया तब उनके पसीने से एक कन्या ‘औजी’ पैदा हुई जिन्हें इस ढोल को बजाने की जिम्मेदारी दी गई. औजी ने ही इस ढोल को उलट- पलट कर चार शब्द- वेद, बेताल, बाहु और बाईल का निर्माण किया था.

चार वेदों में से सामदेव को संगीत का सबसे पहला ग्रंथ माना जाता है. इसी पवित्र वेद को आधार मानके भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र की रचना की थी, बाद में संगीत रत्नाकर, अभिनव राग मंजरी लिखा था. सभी ग्रंथ सामदेव से ही प्रेरित हैं.

ढोलक के ऊपर बने गाने :

(1) ढोली ढ़ोल बजाया…. मनोज कुमार

फ़िल्म : पूरव और पश्चिम. (1970).

(2) हे बाजे रे बाजे रे बाजे रे,

ढोली तारो ढोल बाजे,

ढोल बाजे, ढोल बाजे ढोल

के ढम ढम बाजे ढोल…

फ़िल्म : हम दिल दे चुके सनम (1999)

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