भारतीय संस्कृति की वस्त्र परंपरा.

वस्त्र परिधान मानव संस्कृति की सदियों पुरानी पारम्पारिक पहचान हैं.

पाषाण युग में मानव पेड़ के बड़े पत्ते या छाल का आवरण बनाकर अपनी काया को ढकते थे. फिर आया चर्म (चमड़े ) का जमाना. आदि मानव हिरण, बाघ जैसे प्राणियों का शिकार करके खाने लगे और उनकी चमड़ी का उपयोग वस्त्र परिधान के रूपमें करने लगे.

उत्क्रांतिवाद (Evolutionism ) के सिद्धांत के अनुसार क्रमांगत उन्नति के चलते स्वभाव और परिधान में भी बदलाव देखे गये.

प्राचीन काल से भारत में वस्त्र का प्रचलन है. सिन्धु घाटी की सभ्यता की खुदाई में प्राप्त मूर्तियाँ अलंकृत वस्त्रों से सज्जित हैं.भारतीय लोग कपास से बने वस्त्र पहनते थे जो कपास से बनाते थे. भारत में 2500 ईसा पूर्व से कपास की खेती की जाती रही हैं.

यूरोप के लोगों को ” कपास ” की जानकारी ईसा से 350 वर्ष पूर्व सिकंदर महान के सैनिकों के माध्यम से हुई थी. तब तक योरप के सभी लोग जानवरों की खालों से तन ढांकते थे. कपास का नाम भी भारत से ही विश्व की अन्य भाषाओं में प्रचलित हुआ हैं. जैसे कि संस्कृत में कर्पस, हिन्दी में कपास, हिब्रू में कापस, यूनानी तथा लेटिन भाषा में कार्पोसस आदि.

फैशन का अर्थ ढंग या शैली होता हैं लेकिन व्यवहार में फैशन का परिधान शैली अर्थात वस्त्र पहनने की कला को कहते हैं. मनुष्य अपने आप को सुंदर दिखाने के लिए फैशन का प्रयोग करता है. नवयुवक हो या प्रौढ़ सभी का कपड़े पहनने का अपना अलग अलग निजी ढंग होता है.

छात्र और छात्राएं को विद्यार्थी कहा जाता हैं, और विद्यार्थी का अर्थ होता है विद्या की इच्छा करने वाला. अगर विद्या की इच्छा करने वाले विद्यार्थी फैशन को चाहने लगेंगे तो वे अपने लक्ष्य से बहुत दूर भटक जा सकते . इसीलिए स्कूल और कॉलेज का अपना निजी गणवेश होता हैं.

मॉर्डन युग में आज के समय में हमारे जीवन में सिनेमा एक महत्वपूर्ण अंग बन चुका है. लोग फिल्मों से ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं. टीवी की संस्कृति ने हमारे देश के लोगों को पागल बना दिया हैं. शॉर्ट कपड़ो ने हमारी संस्कृति का हनन किया हैं.

भारतीय संस्कृति में महिलाओंका पहनावा साड़ी सबसे पुराना परिधान हैं.

साड़ी को कुछ क्षेत्र में ” सारी” भी कहा जाता है. यह भारतीय स्त्री का मुख्य परिधान है. अलग-अलग शैली की विविध साड़ियों में कांजीवरम साड़ी, बनारसी साड़ी, पटोला साड़ी और हकोबा मुख्य हैं. साड़ी भारतीय उप महाद्वीप में महिला का परिधान है. एक साड़ी चार से नौ मीटर लंबाई, जो विभिन्न शैलियों में शरीर पर लिपेटी जाती है. ये बिना सिले कपड़े की एक पट्टी होती है.

यजुर्वेद में सबसे पहले “साड़ी” शब्द का उल्लेख मिलता है. ऋग्वेद संहिता के अनुसार यज्ञ या हवन के समय पत्नी के साड़ी पहननेका विधान है. पौराणिक महा काव्य ” महाभारत ” में द्रौपदी के चीरहरण के प्रसंग से सिद्ध होता है कि साड़ी लगभग 3500 ईसा पूर्व से ही प्रचलन में है. हिन्दू धर्म, जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म का स्पष्ट प्रभाव इसमें देखा जा सकता है.

वर्तमान पुरुषों के परिधान में शर्ट और पैंट मुख्य पसंदीदा पोशाक हैं. पेंट, शर्ट, कोट और जींस को हम आधुनिक परिधान कहते हैं.

महाराष्ट्र के गांवों में टोपी पहनी जाती हैं. इसी तरह हिमाचली टोपी, नेपाली टोपी, तमिल टोपी, मणिपुरी टोपी, पठानी टोपी, हैदराबादी टोपी आदि अनेक प्रकार की टोपियां पहनी जाती हैं. पाश्चात्य देशों में “हेट” पहनी जाती हैं.

घोती गावोंका मुख्य परिधान हैं.

पुरुषों के लिए धोती एक ऐसा परिधान था, जो उत्तर और दक्षिण भारत में एकसाथ प्रचलित था. धोती को पहनने की स्टाइल अलग-अलग थी. दक्षिण भारत में तो आज भी अधिकतर लोग धोती ही पहनते हैं.

भारतीय पोशाक के अन्य रूपमें कुर्ता तथा पायजामा, सलवार एवं कुर्ती,

घाघरा, चोली, ओढ़नी और ब्लाउज, लहंगा, बंडी, लुंगी, शेरवानी आदि कई प्रकार का समावेश हैं.

भारत सरकार ने अधिकृत तौर पर किसी भी पोषक को राष्ट्रीय पोशाक का दर्जा नहीं दिया है, लेकिन वैसे जोधपुरी कोट-पेंट को अनधिकृत रूप से भारत के राष्ट्रीय पोशाक का दर्जा प्राप्त है.

हर एक देश के फौजियों का पोशाक भी भिन्न भिन्न होता हैं. फूलबोल का अंतरराष्ट्रीय खेल हो या क्रिकेट सभी के पोशाक अलग होते हैं. हर स्कूल के अपने निजी यूनिफार्म होता हैं.

About पत्रकार : सदाशिव माछी -"शिव सर्जन"

View all posts by पत्रकार : सदाशिव माछी -"शिव सर्जन" →