भारत मे लुप्त होनेके कगार पर सरकस | Circus

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एक समय था, जब बच्चे से बूढ़े तक सभी को सरकस देखना पसंद था. आज भारत मे सरकस की कला लुप्त होनेके कगार पर है. तंबुओं में सिमटी वह कला अब दम तोड़ रही है.

ता : 19 मई 2000 को तत्कालीन केंद्रीय मंत्री श्रीमती मेनका जी गांधी ने सर्कस में जानवरों का खेल दिखाने पर प्रतिबंध लगा दीया था. जिसके बाद सरकार ने सर्कस के जानवरों को अपने कब्जे में लेकर विभिन्न राज्यों के जंगलों में छोड़ दिया था. तभी से सर्कस का दम घुटने लगा था और अब लुप्त होनेके कगार पर है.

सरकस के मालिक उसे बचाने के लिए प्रयत्न कर रहे है मगर अब उनकी कमर टूटने लगी है. सन 2000 के पहले भारत में छोटे-बड़े 150 सर्कस थे. पर आज सिर्फ 20 सर्कस ही शेष बचे हैं. मालिक कर्ज के बोझ तले दबते जा रहे हैं, और अब सर्कस में काम करने वालों के सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है.

भारत में सर्कस का इतिहास :-

भारत में सर्कस का इतिहास काफी पुराना है. भारत में आधुनिक सर्कस की प्रतिष्ठा 20 मार्च 1980 को मुंबई में की गई थी, जिसका नाम “द ग्रेट इंडियन सर्कस” रखा गया था.

किल्लेरी कुंशिकन्नन को भारतीय सर्कस का जनक कहा जाता है, जो मार्शल आर्ट और जिम्नास्टिक सिखाते थे. सन 1901 में उन्होंने अपना खुदका सर्कस स्कूल भी खोला था. इसमें वे कई लोगों को सर्कस के बारे में पढ़ाते हैं.

अब भारत मे चार – पांच सरकस ही रह गये है. जो वेंटीलेटर पर अंतिम सांस भर रहे है.

सर्कस मनोरंजन का बड़ा साधन होने के साथ ही एक कला भी है. हजारों कलाकार सर्कस में अपनी कला दिखाते हैं और हेरतअंगेज कारनामों को अंजाम देते हैं. इतना ही नहीं, सर्कस से हजारों लोगों की रोजी-रोटी चलती है.

सर्कस पर आए इस संकट के पीछे एक तो इंटरनेट क्रांति और यूट्यूब का जमाना है तो वहीं, दूसरी तरफ सरकार द्वारा जानवरों पर लगाया गया प्रतिबंध है. वन्‍य जीवों और पर्यावरण कार्यकर्ता वाली मेनका गांधी के अभियान पर जब से सरकार ने जानवरों पर प्रतिबंध लगाया तो सर्कस की कमर ही टूट गई. बगैर जानवरों के सर्कस में कोई रौनक नहीं बची. इसकी छटा लगातार कम होती गई.

जानवर थे तो सर्कस का करीब आधा शो उनसे ही कवर हो जाता था. जानवरों के प्रतिबंध से जहां सर्कस के प्रति आर्कषण खत्‍म हो गया तो वहीं, दूसरी तरफ कलाकारों पर बोझ बढ़ गया. कलाकारों को ज्‍यादा आइटम तैयार करने और इसके पीछे काफी मशक्‍कत करनी पडती है. अब इंसानी करतब और हेरत अंगेज कारनामों पर ज्‍यादा निर्भर होना पड़ता है.

जानवरों की कमी को पूरा करने के लिए मौत का कुआं जैसे खतरनाक खेल भी सर्कस का आकर्षण बढ़ाने के लिए शामिल किए गए हैं. जान की बाजी लगाकर ये कलाकार लोगों का मनोरंजन करते हैं.

जानकारों का कहना है कि भारत में उस तरह से जिमनास्‍टिक को बढावा नहीं मिलता जैसा रशिया में और चाइना में मिलता है. भारत में कई नियम हैं, जैसे यहां 14 साल के कम उम्र के बच्‍चे को जिमनास्‍टिक नहीं सिखा सकते हैं. जिमनास्‍टिक छोटे बच्‍चों को ही सिखाई जाती है, बड़े होने पर वे उतने सक्षम जिमनास्‍टिक नहीं बन पाते हैं. ऐसे में सर्कस में कलाकार कम होने लगे हैं. जबकि नए लोग अब सर्कस में आना नहीं चाहते हैं.

सर्कस के प्रति घटती लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां काम करने वाले कलाकार भले ही अपने परिवार और बच्‍चों से दूर रहकर ये काम करते हैं, लेकिन वे नहीं चाहते कि उनके बच्‍चे भी इस खेल का हिस्‍सा बने. वे चाहते हैं उनके बच्‍चे दूसरे क्षेत्र में करियर बनाए. एशियाड सर्कस में ऐसे कई परिजन हैं जो सर्कस में मिले, फिर शादी तो की. लेकिन अपने बच्‍चों को सर्कस से दूर रखते हैं.

एक तरफ जानवर जैसे शेर, चीता, भालू, कुत्‍ते, हाथी, तोते आदी की कमी की वजह से बच्‍चों और कुछ दर्शकों में सर्कस के प्रति दिलचस्‍पी कम हुई है तो वहीं, कुछ दर्शक बिल्‍कुल नहीं चाहते कि सर्कस में जानवरों का इस्‍तेमाल किया जाए.

सर्कस देखने के लिए आने वाले दर्शकों की भीड़ में हालांकि कमी तो आई है, लेकिन उनके दिलों में अभी भी सर्कस के लिए प्यार है. कुछ परिजन ऐसे भी हैं जो चाहते हैं उनके बच्‍चे सर्कस जैसी कला और मनोरंजन को जाने. यहां तक कि कई बच्‍चे ऐसे हैं, जिन्‍होंने बताया कि मोबाइल में वीडियो देखने और गेम्‍स खेलने से ज्‍यादा अच्‍छा है कि सर्कस देखे और विलुप्‍त होती इस विधा को जिंदा रखे.

सर्कस काफी मनोरंजक होते हैं, जिन्हें बच्चों मे काफी पसंद किया जाता है. लेकिन, आज यह काफी हद तक लुप्त हो गए हैं, जिससे उनकी कलाएं भी खोती जा रही हैं. लोग इन्हें भूलते जा रहे हैं. आज बच्चा दिनभर मोबाइल फोन में ही लिप्त रहता है

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