महावीर महाराजा महाराणा प्रताप| Maharana Pratap

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               अमेरिका का 16 वा भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन भारत के दौरे पर आ रहे थे, तो उन्होंने अपनी मां से पूछा , मै भारत देश की यात्रा पर जा रहा हूं. तो मैं आपके लिए भारत से क्या लेकर आऊं, तो उनकी मां ने कहा था , की भारत से तुम हल्दीघाटी की मिट्टी लेकर आना जिसे हजारों वीरों ने अपने रक्त से सींचा है.  

    विदेशी ओकी ऐसी टिप्पणी हमारे देश को ” मेरा भारत महान ” कहनेको मजबूर करती है. 

      भारत भूमि वीरो की भूमि है त्रेता युग से लेकर द्वापर युग तक हुये संग्राम उसका प्रमाण है सबसे अधिक शूरवीरो के दर्शन महा काव्य महाभारत ने करवाया. 

     गत 500 साल के इतिहास मे शिवाजी महाराज से लेकर मेवाड के महाराजा महाराणा प्रताप तक के वीर पुरुषो की गाथा इतिहास मे अंकित हो चुकी है.आज हमको वीर योद्धा महाराणा प्रताप की शौर्य गाथा आप लोगों के साथ शेयर करनी है. 

        मेवाड के महाराणा प्रताप का जन्म ता : 9 मई 1540 के दिन राजस्थान के कुंभलगढ़ दुर्ग मे हुआ था. महाराणा प्रताप उदयपुर, मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के राजा थे. पिता महाराजा उदयसिंह की 33 वीं संतान और माता जयवंताबाई की कोख से जन्मे मेवाड़ मुकुट मणि महाराणा प्रताप जिन्हें बचपन में कीका कहकर संबोधित किया करते थे. वे राणा सांगा के पौत्र थे. 

        महाराणा प्रताप कुटनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ, शारीरिक व मानसिक क्षमता में अद्वितीय थे. उनकी लंबाई 7 फीट और वजन 110 किलोग्राम था. वे 72 किलो के छाती का कवच, 81 किलो का भाला तथा दो वजनदार तलवार सहित कुल 208 किलो वजन को लेकर चलते थे. इससे उनकी ताकत का पता चल सकता है. उनके पास उस समय दुनिया का सर्वश्रेष्ठ माने जाने वाला घोड़ा चेतक था. 

       महाराणा प्रताप, जिनकी मौत की खबर सुनकर स्वयं अकबर भी रोया था. महाराणा प्रताप ने कुल मिलाकर 11 शादियां की थीं. ये सभी शादियां उन्होंने राजनैतिक कारणों से की थीं. 

       प्रताप का सबसे प्रिय घोड़ा चेतक था. महाराणा प्रताप की तरह ही उनका घोड़ा चेतक भी काफी बहादुर था. 

महाराणा प्रताप के कुल 17 बेटे थे.और पांच बेटियां थी. महारानी अजाबदे से पैदा हुये अमरसिंह उनके उत्तराधिकारी बने थे.   

           प्रताप के काल में दिल्ली में तुर्क सम्राट अकबर का शासन था, जो भारत के सभी राजा-महाराजाओं को अपने आधीन बना कर मुगल साम्राज्य की स्थापना करके इस्लाम परचम को पूरे हिन्दुस्तान में फहराना चाहता था.

    ता : 1 मार्च 1573 के दिन महाराणा प्रताप ने सिंहासन की कमान संभाली थी. उस के बाद ता : 18 जून 1576 के दिन आमेर के राजा मानसिंह और आसफ खां के नेतृत्व में मुगल सेना और महाराणा प्रताप के बीच हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया था. ये युद्ध महाभारत युद्ध की तरह महा विनाश कारी सिद्ध हुआ था.

        हल्दीघाटी का युद्ध जब लड़ा गया तब श्री महाराणा प्रताप के पास करीब 20000 सैनिक थे. जबकि मुगलो के बादशाह अकबर के पास 85000 सैनिक थे. फिर भी प्रताप ने हार नहीं मानी और स्वतंत्रता के लिये संग्राम करते रहे. 

     अकबर ने प्रताप को समजाने के लिये उनके पास 6 शांति दूत भेजे थे ताकि शांतिपूर्ण तरीके से युद्ध को समाप्त किया जा सके.पर स्वाभिमानी स्वभाव के प्रताप ने प्रस्ताव को ठुकराते हुये कहा की राजपूत योद्धा कभी पीछे हट नहीं करते. 

         महाराणा प्रताप दोनों हाथों में भाले लेकर विपक्षी सैनिकों पर टूट पड़ते थे. हाथों में ऐसा बल था कि दो सैनिकों को एक साथ भालों की नोंक पर मार देते थे.मेवाड़ में लोग सुबह उठकर देवी-देवता को नहीं, महाराणा को याद करते थे. लोग उन्हें भगवान मानते थे. 

     लड़ाई के समय महाराणा पर मुग़ल सैनिक ने वार किया तो महाराणा के वफादार हकीम खान सूर ने वार को अपने ऊपर ले लिया और उनकी जान बचा ली थी. उनके कई बहादुर साथी जैसे भामाशाह और झालामान भी इसी युद्ध में महाराणा के प्राण बचाते हुए शहीद हुए थे.

     हल्दीघाटी की लड़ाई के वक्त महाराणा प्रताप घायल हो गये थे, महाराणा ने चेतक की लगाम थामी और निकल पड़े, उनके पीछे दो मुग़ल सैनिक लगे हुए थे, पर चेतक की रफ़्तार के सामने दोनों पीछे रह गये. रास्ते में एक पहाड़ी नाला बहता था. चेतक भी घायल था. चेतक ने छलांग लगाकर उसे कूदकर पार कर दीया और मुग़ल सैनिक मुंह ताकते रह गए. लेकिन जब तक चेतक थक चुका था. वो दौड़ नहीं पा रहा था. प्रताप की जान तो बच गई मगर चेतक खुद शहीद हो गया. लेकिन इस शहादत ने उसे खासी शोहरत दिलाई थी. आज भी चित्तौड़ की हल्दी घाटी में चेतक की समाधि बनी हुई है. 

     राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुगलों का कड़ा मुकाबला तो किया, परंतु मैदानी तोपों तथा बंदूकधारियों से सुसज्जित शत्रु की विशाल सेना के सामने महाराणा प्रताप सेना को पीछे हट करनी पड़ी थी. 

      युद्धभूमि मे 22 हजार राजपूत सैनिकों में से केवल आठ हजार जीवित सैनिक बचकर निकल पाये महाराणा प्रताप को जंगल में आश्रय लेना पड़ा. दोनों के बिच धमासान युद्ध हुआ मगर हल्दीघाटी के युद्ध में न तो अकबर जीता ना प्रताप हारे. मुगलों की सैन्य शक्ति के आगे प्रताप के पास जुझारू लड़ाकू शक्ति की कमी नहीं थी.

       प्रताप को बंदी बनाने को अकबर ने 30 वर्ष तक लगातार फिजूल प्रयास के बावजूद अकबर महाराणा प्रताप को बंदी नहीं बना पाया था.

        महा राणा प्रताप का जन्म स्थल कुम्भलगढ़ ये किला सबसे पुरानी पहाड़ियों की रेंज अरावली की एक पहाड़ी पर स्थित है. राणा का पालन पोषण भीलों की कूका जाति ने किया था. भील राणा से बहुत प्यार करते थे. जब अकबर की सेना ने कुम्भलगढ़ को घेर लिया तो भीलों ने जमकर लड़ाई की और तीन महीने तक अकबर की सेना को रोके रखा. एक दुर्घटना के चलते किले के पानी का सोर्स गन्दा हो गया. जिसके बाद कुछ दिन के लिए महाराणा को किला छोड़ना पड़ा और अकबर की सेना का वहां कब्ज़ा हो गया. पर अकबर की सेना ज्यादा दिन वहां टिक न सकी और फिर से कुम्भलगढ़ पर महाराणा का अधिकार हो गया. इस बार तो महाराणा ने पड़ोस के और दो राज्य अकबर से छीन लिये थे.   

        जब महाराणा प्रताप अकबर से हारकर जंगल-जंगल भटक रहे थे एक दिन पांच बार भोजन पकाया गया और हर बार भोजन को छोड़कर भागना पड़ा. एक बार प्रताप की पत्नी और उनकी पुत्रवधू ने घास के बीजों को पीसकर कुछ रोटियां बनाईं. उनमें से आधी रोटियां बच्चों को दे दी गईं और बची हुई आधी रोटियां दूसरे दिन के लिए रख दी गईं. इसी समय प्रताप को अपनी लड़की की चीख सुनाई दी. एक जंगली बिल्ली लड़की के हाथ से उसकी रोटी छीनकर भाग गई और भूख से व्याकुल लड़की के आंसू टपक आये. यह देखकर राणा का दिल पिगल गया. अधीर होकर उन्होंने ऐसे राज्याधिकार को धिक्कारा, जिसकी वज़ह से जीवन में ऐसे करुण दृश्य देखने पड़े.

        जब महाराणा प्रताप अकबर से हारकर जंगल-जंगल भटक रहे थे. अकबर ने एक जासूस को महाराणा प्रताप की खोज खबर लेने को भेजा गुप्तचर ने आकर अकबर को बताया कि महाराणा अपने परिवार और सेवकों के साथ बैठकर जो खाना खा रहे थे उसमें जंगली फल, पत्तियाँ और जड़ें थीं. जासूस ने बताया न कोई दुखी था, न उदास. ये सुनकर अकबर का हृदय भी पिगल गया और महाराणा प्रताप के लिए उसके ह्रदय में सम्मान पैदा हो गया. बादशाह अकबर के विश्वासपात्र सरदार अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना ने भी अकबरके मुख से प्रताप की प्रशंसा सुनी थी. 

          उसने अपनी भाषा में लिखा, “ इस संसार में सभी नाशवान हैं. महाराणा ने धन और भूमि को छोड़ दिया, पर उसने कभी अपना सिर कभी नहीं झुकाया. हिंदुस्तान के राजाओं में वही एकमात्र ऐसा राजा है, जिसने अपनी जाति का गौरव बढ़ाया है.” 

मुगल सैनिक इस प्रकार उनके पीछे पड़ गए थे कि भोजन तैयार होने पर कभी-कभी खाने का अवसर भी नहीं मिल पाता था और सुरक्षा के कारण भोजन छोड़कर प्रताप सेना को भागना पड़ता था.

         प्रताप के कुल देवता एकलिंग महादेव हैं. मेवाड़ के राणाओं के आराध्यदेव एकलिंग महादेव का मेवाड़ के इतिहास में बहुत बड़ा महत्व है. एकलिंग महादेव महादेव का मंदिर उदयपुर में स्थित है. मेवाड़ के संस्थापक बप्पा रावल ने 8 वीं शताब्‍दी में इस मंदिर का निर्माण करवाया और एकलिंग की मूर्ति की प्रतिष्ठापना की थी.

        हल्दीघाटी मोर्चा से प्रताप भाग रहा था तब उसने पीछे मुड़कर देखा तो उसे एक ही अश्वारोही दिखाई पड़ा और वह था उनका भाई शक्ति सिंह था. प्रताप के साथ व्यक्तिगत विरोध ने उसे देशद्रोही बनाकर अकबर का सेवक बना दिया था और युद्धस्थल पर वह मुगल पक्ष की तरफ से लड़ रहा था. जब उसने नीले घोड़े को बिना किसी सेवक के पहाड़ की तरफ जाते हुए देखा तो शक्ति सिंह भी चुपचाप उसके पीछे चल पड़ा था. लेकिन शक्ति सिंह ने प्रताप के पीछे पड़े दोनों मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया.

     जीवन में पहली बार दोनों भाई प्रेम के साथ गले मिले थे. इस बीच चेतक जमीन पर गिर पड़ा और चेतक ने प्राण त्याग दिए. बाद में उस स्थान पर एक चबूतरा खड़ा किया गया, जो आज तक उस स्थान को दर्शाता है. 

         महाराणा प्रताप हल्दी घाटी के युद्ध के बाद चित्तौड़ छोड़कर जंगलों में रहने पर मजबूर हुआ. घास की रोटियों और जंगल मे जीवन व्यतीत करना पड़ा. अरावली की गुफाएं को आवास बनाया और शिला को शैया बनाकर रहना पड़ा. 

      अकबर चाहता था, कि महाराणा प्रताप अकबर की आधीनता स्वीकार कर उनके द्वारा स्थापित दीन-ए-इलाही धर्म अपना लें. इसके लिए उन्होंने महाराणा प्रताप तक कई प्रलोभन संदेश भी भिजवाए, लेकिन महाराणा प्रताप अपने ‍‍निश्चय पर अडिग रहे. सैलूट टू प्रताप. 

         कई छोटे राजाओं ने महाराणा प्रताप को अपने राज्य में रहने की गुजारिश की लेकिन मेवाड़ की भूमि को मुगल आधिपत्य से बचाने के लिए महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक मेवाड़ आजाद नहीं होगा, वे महलों को छोड़ जंगलों में निवास करेंगे. 

      बाद में मेवाड़ के गौरव भामाशाह ने महाराणा के चरणों में अपनी समस्त संपत्ति रख दी. भामाशाह ने 20 लाख की मिलकत और 25 लाख रुपए महाराणा को भेंट में प्रदान किए. महाराणा इस प्रचुर संपत्ति से पुन: सैन्य-संगठन में लग गए. इस अनुपम सहायता से प्रोत्साहित होकर महाराणा ने अपने सैन्य बल का पुनर्गठन किया तथा उनकी सेना में नवजीवन का संचार हुआ. महाराणा प्रताप सिंह ने पुनः कुम्भलगढ़ पर अपना कब्जा स्थापित करते हुए शाही फौजों द्वारा स्थापित थानों और ठिकानों पर अपना आक्रमण जारी रखा.अंत मे महाराणा प्रताप की मृत्यु अपनी राजधानी चावंड में धनुष की डोर खींचने से उनकी आंत में लगने के कारण इलाज के बाद 57 वर्ष की आयु में 29 जनवरी, 1597 के दिन हो गई.

मरनेसे पहले चित्तौड़ को छोड़कर महाराणा ने अपने समस्त दुर्गों का शत्रु से पुन: उद्धार कर लिया. उदयपुर को उन्होंने अपनी राजधानी बनाया. विचलित मुगलिया सेना के घटते प्रभाव और अपनी आत्मशक्ति के बूते महाराणा ने चित्तौड़गढ़ व मांडलगढ़ के अलावा संपूर्ण मेवाड़ पर अपना राज्य पुनः स्थापित कर लिया था. 

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