मृत्युलोक के आठ चिरंजीवी व्यक्ति.

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जिसका जन्म हुआ है, उसकी मौत निश्चित है. इसीलिए ” पृथ्वीलोक ” को ” मृत्युलोक ” भी कहा जाता है. मगर

पौराणिक कथाओं के अनुसार सम्पूर्ण सृष्टि में ऐसे आठ व्यक्ति हैं जो अमर हैं.

सनातन हिंदू मान्यताओं के अनुसार 8 लोगोंको चिरंजीवी कहा गया है. संस्कृत शब्द चिरंजीवी का अर्थ “अमर” है.

जो आठ व्यक्ति अमर है इसको हम एक श्लोक द्वारा समजने की कोशिश करते है :

अश्वत्थामाबलिर्व्यासोहनुमांश्च विभीषण:कृपश्चपरशुरामश्च सप्तैतेचिरंजीविन:।

अर्थात अश्वथामा, बली, वेद व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम, ये सात चिरंजीवी है. यह सात चिरंजीवी के अलावा, अन्य चिरंजीवी भी मौजूद हैं. उदाहरण के लिए, ऋषि मार्कंडेय ने सोलह वर्ष की आयु में अमरत्व प्राप्त किया था.

अब जानते है विस्तार से :

(1) अश्वथामा :

महाभारत काल में अश्वथामा द्रोण का पुत्र था. जो ऐसा योद्धा था, जो अकेले के दम पर संपूर्ण युद्ध लड़ने की क्षमता रखता था. महाभारत युद्ध बाद जीवित बचे 18 योद्धाओं में से एक अश्वथामा भी थे. उनको महाभारत के युद्ध में कोई हरा नहीं सका था. वे आज भी अपराजित और अमर हैं.

आजसे हजारों बरस पहले द्वापर युग में महाभारत के भीषण युद्ध में भीष्म पितामह की तरह गुरु द्रोणाचार्य भी पांडवोके विजय में सबसे बड़ी बाधा बनते जा रहे थे. श्रीकृष्ण जानते थे कि गुरु द्रोण के जीवित रहते पांडवो की विजय असम्भव है. इसलिए श्रीकृष्ण ने एक योजना बनाई.

जिसके तहत महाबली भीम ने युद्ध में अश्वत्थामा नाम के एक हाथी का वध कर दिया था. यह हाथी मालव नरेश इन्द्रवर्मा का था. यह झूठी सूचना जब युधिष्ठिर द्वारा द्रोणाचार्य को दी गई तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्र त्याग दिए थे और समाधिष्ट हो गए थे. इस अवसर का लाभ उठाकर द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने उनका सर धड़ से अलग कर दिया था.

(2) दैत्यराज बलि :

“बलि” नाम से एक महापराक्रमी राजा थे. उनका जन्म असुर-वंश में हुआ था और ये असुरों के ही राजा थे , तथा वे बड़े न्याय-निष्ठ और दानी थे. ये महाराज प्रह्वाद के पौत्र और विरोचन के पुत्र थे. कठोर तपस्या के द्वारा इन्होंने पर्याप्त यश और राज्य प्राप्त किया था.

महादानी राजा बलि ने अपनी कठिन भक्ति से भगवान श्रीहरि विष्णु से अमरता का वरदान प्राप्त किया है.

बलि ने अपने पशु-बल या राक्षसी बल से देव-भूमि स्वर्ग को अपने अधीन कर लिया था. बलि त्रिभुवन विजयी बन चुके थे. और त्रिभुवन के विजयी बनकर गर्व से चूर हो रहे थे. उधर देवगण दैत्य शासनाधीन रहना नहीं चाहते थे. उन्होंने भगवान से प्रार्थना की, कि वे बलि के इस बढ़े हुए गर्व को चूर करें. भगवान ने उनकी प्रार्थना सुन ली भगवान विष्णू ने कश्यप ऋषि के औरस और अदिति के गर्भ से वामन रूप में प्रकट हुए.

कुछ काल बाद दैत्य राज बलि ने अपनी विजय के उपलक्ष्य में एक महान यज्ञ के अनुष्ठान का आयोजन किया. बौने ब्राम्हण के रूप में भगवान भी वहाँ पहुँचे. सब लोगों को मुँह माँगी वस्तुएँ दान में दी गयी. बलि से पूछा गया, कि उसे क्या चाहिए.

उसपर वामन बोला, “महाराज ! मैं जो कुछ माँगूँगा, क्या आप उसे देंगे ? क्या मुझ बौने की अभिलाषा आप पूरी करेंगे ? यदि आप मेरा मनोरथ पूर्ण करने का वचन दें, तो मैं कहूँ ? “

इसपर बलिने कहा, कि “मैं प्रतिज्ञा करता हूँ, ब्राम्हण देवता. कि आप जो कुछ माँगेंगे, वही दूँगा.“ वामन बोला कि “अच्छी बात है, महाराज ! मुझे तीन पग भूमि की आवश्यकता है. महाराज बलि भिक्षु की बात सुन कर हसने लगे. हँसने को बात ही थी. बलि अपने को तीनों लोक का अधिकारी समझते थे. उनके लिये तीन पग भूमि क्या चीज़ थी ? वो भी तीन पग भूमि माँगने वाला बोना था.

महाराज बोले “ब्राम्हण देवता ! जाइये, जहाँ आपकी इच्छा हो, तीन पग भूमि नाप लीजिये. उसने एक पैर मत्त्य लोक में रखकर दूसरा पैर स्वर्गलोक में रखा और फिर पूछा, “कहिये महाराज ! अब तीसरा पैर कहाँ रखूँ ?”

बलि भी अपने वचन के सच्चे निकले. उन्होंने कहा, “भगवन् ! तीसरा पग इस मस्तक पर रखिये.” भगवान ने उस पर पैर रखा और बलि को बाध्य होकर स्वर्ग और मत्स्य का राज्य छोड़कर पाताल में जाना पड़ा. वहाँ भी भगवान ने उसे बन्दी कर रखा पर कुछ काल बाद, देवर्षि नारद के परामर्श से जब उसने भगवान की आराधना की, तब उन्होंने उसे सपरिवार पाताल लोक में वास करने की आज़ादी दे दी.

(3) वेद व्यास :

“वेदव्यास” एक अलौकिक शक्ति से सम्पन्न महापुरुष थे. उनके पिता का नाम महर्षि पराशर और माता का नाम सत्यवती था. इनका जन्म एक द्वीपपर हुआ था और उनका वर्ण श्याम था. उनको कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास भी कहा जाता है. उनको वेदों का विस्तार करने के लिए वेदव्यास तथा बदरीवन में रहने के कारण बादरायण भी कहा जाता हैं.

इन्होंने वेदों के विस्तार के साथ विश्व के सबसे बड़े काव्य-ग्रंथ महाभारत, अठारह महापुराणों तथा ब्रह्मसूत्र का भी प्रणयन किया था. व्यास-स्मृति के नाम से इनके द्वारा प्रणीत एक स्मृति ग्रन्थ भी है. भारतीय सनातन संस्कृति उनकी ऋणी है. वेदव्यास चिरंजीवी है.

(4) राम भक्त हनुमान जी :

हनुमान जी अमर है और उनको भगवान शिवजी के सभी अवतारों में उनको अति बलवान और बुद्धिमान माना जाता हैं. श्री हनुमानजी के पिता सुमेरू पर्वत के वानरराज राजा केसरी थे और माता अंजनी है. हनुमान जी को पवन पुत्र के नाम से भी जाना जाता है और उनके पिता वायु देव भी माने जाते है. संस्कृत में मारुत का अर्थ हवा होता है. और नन्दन का अर्थ बेटा होता है.

हनुमान जी को अमरतत्व का वरदान कैसे मिला ? इसके पीछे भी एक कहानी है. जब श्री राम ने अपनी मृत्यु की घोषणा की तो यह सुनकर राम भक्त हनुमान जी बहुत दुःखी हुए. वह माता सीता के पास गये और कहा कि, हे !माता मुझे आपने अजर-अमर होने का वरदान तो दिया किन्तु एक बात बताएं कि जब मेरे प्रभु राम ही धरती पर नहीं होंगे तो मैं यहां क्‍या करुंगा?

मुझे अपना दिया हुआ अमरता का वरदान वापस ले लीजिए. जब हनुमान माता-सीता के सामने जिद पर अड़ गये तों माता सीता ने श्री राम जी का ध्‍यान किया. श्री राम जी प्रकट हुए. और श्री राम जी हनुमान को गले लगाते हुए कहते हैं कि हनुमान मुझे पता था कि तुम सीता के पास आकर यही कहोंगे.

श्री राम जी आगे बोले, कि हनुमान धरती पर आने वाला हर प्राणी, चाहे वह संत है या देवता कोई भी अमर नहीं है. तुमको तो वरदान है हनुमान, क्योंकि जब इस धरती पर और कोई नहीं होगा तो राम नाम लेने वालों का बेड़ा तुमको ही तो पार करना है.

एक समय ऐसा आएगा जब धरती पर कोई देव अवतार नहीं होगा, पापी लोगों की संख्या अधिक होगी तब राम के भक्तों का उद्धार मेरा हनुमान ही तो करेगा. इसलिए तो तुमको अमरता का वरदान दिलवाया गया है. तब हनुमान जी अपने अमरता के वरदानको समझते हैं और राम की आज्ञा समझकर आज भी धरती पर हयात हैं.

(5) विभीषण :

रावण के छोटे भाई विभीषण को भी चिरंजीवी (अमर ) माना गया है. विभीषण ने धर्म-अधर्म के युद्ध में धर्म का साथ दिया था.

रावण वध के पश्चात श्री राम जी ने राम के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा और भक्ति के कारण विभीषण को लंका का राज्य सौंप दिया था और अनंत काल तक धर्म की रक्षा का कर्तव्य दिया था. प्रभु श्री राम के इसी वरदान के कारण विभिषण आज भी जीवित हैं और 7 चिरंजीवीयों में स्थान प्राप्त हैं.

राक्षस राज विभीषण प्रभु श्री राम जी के भक्त थे राक्षस राज विभीषण जो की राक्षस कुल में पैदा होने के बाद भी नीति और सत्य के प्रति कर्तव्य निष्ठ रहे. हालांकि विभीषण को कुल नाशक के नाम से कलंकित किया जाता है, लेकिन विभीषण ने परिवार से अधिक नीति और धर्म का साथ दिया था. विभीषण ने अपने बड़े भाई रावण और सभी राक्षसों को अनीति के रास्ते पर चलने से मना किया था.

लेकिन अपनी शक्ति के मद में चूर रावण उसकी एक नहीं सुनी और उसे घर से निकाल दिया. भगवान राम के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा और भक्ति के कारण प्रभु श्रीराम ने न केवल विभीषण को लंका का राज्य सौंपा, बल्कि अनंत काल तक धर्म की रक्षा का कर्तव्य भी दिया. प्रभु श्री राम के इसी वरदान के कारण विभिषण आज भी जीवित हैं व 8 चिरंजीवीयों में शामिल हैं.

विभीषण ने लंका में रहते हुए भी राम भक्ति की. विभीषण राजा रावण का सबसे छोटा भाई था, जिसने लंका पर शासन किया था. वह ऋषि पुलस्त्य के पुत्र ऋषि विश्रवा और कैकसी के सबसे छोटे पुत्र थे. रावण उनके बड़े भाई थे.

विभीषण राक्षस जाति के जरूर थे, लेकिन वे पवित्र थे और श्री राम के भक्त थे. उनका व्यवहार सच्चे ब्राह्मणो जैसा था. उन्होंने अपने बड़े भाइयों के साथ ब्रह्मा की तपस्या की थी, और वरदान में अपने लिए ये माँगा की वे हमेशा धर्म पथ पर चले.

(6) कृपाचार्य :

कृपाचार्य अश्वथामा के मामा थे.

कृपाचार्य की बहन कृपी का विवाह गुरु द्रोण के साथ हुआ था. कृपि के पुत्र का नाम अश्वत्थामा था. कृपाचार्य ने कौरवों और पांडवों को नैतिक ज्ञान, कूटनीति और राजनीति की शिक्षा दी थी. ये भी कहा जाता है कि वह हस्तिनापुर के कुलपति थे.

श्रीमद्भागवत् पुराण में उल्लेख मिलता है कि मनु के समय कृपाचार्य की गिनती सप्तऋर्षियोंमें की जाती थी. महाभारत में उन्हें उनकी निष्पक्षता के लिए जाना जाता था और कहा जाता है कि उसी के कारण वह अमर भी हुए थे.

कृपाचार्य महान विद्वान, प्रकांड पंडित और तपस्वी है.

महाभारत के युद्ध में कृपाचार्य बच गए थे, क्योंकि उन्हें चिरंजीवी रहने का वरदान था. कृपाचार्य कौरवों के कुलगुरु थे. कौरव पांडव के महाभारत युद्ध में कृपाचार्य कौरवों की ओर से युद्ध किया था और वे आज भी जीवित हैं.

कृपाचार्य महर्षि गौतम शरद्वान् के पुत्र थे. एक समय जब शरद्वान तप कर रहे थे तब इंद्र ने उनका तप भंग करने के लिए जानपदी नाम की देवकन्या को भेजा था, कृपाचार्य उस कन्या पर मोहित हो गए और जानपदी के गर्भ से दो भाई-बहन हुए.

तब इन्होंने उस दोनों बच्चों को जंगल में छोड़ दिया. उस जंगल मे पहुंचे शांतनु ने उन बच्चों को देखा और अपने साथ महल में ले आए. जहां उनका नाम कृप और कृपी रखा गया. बाद में यही कृप, कृपाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए और उनकी बहन कृपी का विवाह द्रोणाचार्य से हुआ था.

श्रीमद्भागवत् पुराण में उल्लेख मिलता है कि मनु के समय कृपाचार्य की गिनती सप्तऋर्षियों में होती थी. महाभारत में उन्हें उनकी निष्पक्षता के लिए जाना जाता था और कहा जाता है कि उसी के कारण वह अमर भी हुए.

महाभारत के युद्ध में कृपाचार्य ने कौरवों की ओर से युद्ध किया था. कर्ण जब युद्ध में मारे गए तो कृपाचार्यने दृस्ट दुर्योधन को बहुत समझाया था कि उसे पांडवों से संधि कर लेनी चाहिए. लेकिन दुर्योधन ने अपने अपमान को याद कर कहा कि न पांडव इन बातों को भूल सकते हैं और न उसे क्षमा कर सकते हैं.

(7) भगवान परशुराम :

परशुराम शब्द का मतलब परशु अर्थात “कुल्हाड़ी” तथा “राम” इन दो शब्दों से बना है जिसका अर्थ “कुल्हाड़ी के साथ राम” अर्थ निकलता है. जैसे राम भगवान विष्णु के अवतार हैं, उसी प्रकार परशुराम भी विष्णु के अवतार हैं. इसलिए परशुराम को भी विष्णुजी तथा रामजी के समान शक्तिशाली मानते है.

भगवान परशुराम ऋषि जमादग्नि तथा रेणुका के पांचवें पुत्र थे. ऋषि जमादग्नि सप्तऋषि में से एक ऋषि थे.

परशुराम वीरता के साक्षात उदाहरण थे.

हिन्दू धर्म में परशुराम के बारे में यह मान्यता है, कि वे त्रेता युग एवं द्वापर युग से अमर हैं.

परशुराम भगवान जाति से ब्राह्मण थे. उनके पिता का नाम ऋषि जमदग्नि था. उनके पितामाह (दादा) ऋषि भृगु थे. परशुराम जी जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय माने जाते हैं. ब्राह्मण के लिए शस्त्र उठाना निषेध था लेकिन अपने पिता के हत्यारे से प्रतिशोध लेने के लिए उन्होंने शस्त्र उठाया था. उस समय केवल क्षत्रिय को शस्त्र उठाने का अधिकार था.

उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें फरसा दिया था इसीलिए उनका नाम परशुराम हो गया था. भगवान पराशुराम राम के पूर्व हुए थे, लेकिन वे चिरंजीवी होने के कारण राम के काल में जीवित भी थे. भगवान परशुराम विष्णु के छठवें अवतार हैं.

(8) मार्कण्डेय ऋषि :

धर्म ग्रंथों के अनुसार मार्कण्डेय ऋषि अमर हैं. आठ अमरतत्व प्राप्त लोगों में मार्कण्डेय ऋषि का भी नाम आता है. इनके पिता मर्कण्डु ऋषि थे. जब मर्कण्डु ऋषि को कोई संतान नहीं हुई तो उन्होंने अपनी पत्नी के साथ भगवान शिव की आराधना की. उनकी तपस्या से प्रकट हुए भगवान शिव ने उनसे पूछा कि वे गुणहीन दीर्घायु पुत्र चाहते हैं या फिर गुणवान 16 साल का अल्पायु पुत्र. तब मर्कण्डु ऋषि ने कहा कि उन्हें अल्पायु भले हो लेकिन गुणी पुत्र चाहिए. अतः भगवान शिव ने उन्हें ये वरदान दे दिया.

मार्कण्डेय ऋषि जब 16 साल के हुए तो उन्हें ये बात अपनी माता द्वारा पता चली. मगर मार्कण्डेय ऋषि मृत्यु के बारे मे जानकर वे विचलित नहीं हुए और शिव भक्ति में लीन हो गए. इस दौरान सप्तऋषियों की सहायता से ब्रह्मदेव से उनको महामृत्युंजय मंत्र की दीक्षा मिली.

मंत्र का प्रभाव यह हुआ कि जब यमराज निश्चिंत समय पर उनके प्राण हरने आए तो शिवजी की भक्ति में लीन मार्कण्डेय ऋषि को बचाने के लिए स्वयं भगवान शिव स्वयं प्रकट हो गए. और उन्होंने काल की छाती में लात मारी. जब तक कि काल कुछ सम्भल पाता तब तक मार्कण्डेय ऋषि की मृत्यु का समय समाप्त हो गया था. भगवान शिव ने काल को चेतावनी देते हुए कहा कि यदि भविष्य में कोई भी प्राणी निस्वार्थ भाव से प्रतिदिन या फिर मृत्यु के समय इस मंत्रका जाप करता है, तो उसे किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होगा.

मार्कण्डेय ऋषि की श्रद्धा और आस्था देख कर भगवान शिव ने उन्हें कई कल्पों तक चिरंजीवी का वरदान दे दिया.

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