सिंहासन बत्तीसी भारतीय लोक कथाओं का एक संग्रह है. शीर्षक का शाब्दिक अर्थ है ” सिंहासन की बत्तीस कहानियाँ.” यह 32 कथाओं का संग्रह है, जिसमें 32 पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कहानी के रूप में वर्णन करती हैं.
आज मुजे पुतली रविभामा की कथा शेयर करनी है. एक दिन राजा विक्रमादित्य नदी के तट पर बने अपने महल से प्राकृतिक सौन्दर्य को निहार रहे थे. बरसात का मौसम था, इसलिए नदी उफान के साथ तेज़ी से बह रही थी. उस समय राजा की नज़र एक पुरुष, एक स्री और एक बच्चे पर पड़ी. उनके वस्र फटे पुराने थे.
राजा देखते ही तुरंत समझ गए की ये लोग बहुत निर्धन हैं. राजा उसे देख रहे थे तब तीनों ने उस नदी में छलांग लगा दी. अगले ही पल वें अपनी रक्षा के लिए चिल्लाने लगे. राजा विक्रम को रहा नहीं गया, उन्होंने तुरंत नदी में उनकी रक्षा के लिए छलांग लगा दी. अकेले से तीनों को बचाना सम्भव नहीं था.
उन्होंने दोनों बेतालों का स्मरण किया. दोनों बेतालों ने स्री और बच्चे को तथा विक्रम ने उस पुरुष को डूबने से बचा लिया. तट पर पहुँचकर उन्होंने पूछा की वें आत्महत्या क्यों कर रहे थे ? तब उस व्यक्ति ने बताया कि वह उन्हीं के राज्य का एक अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण है , जो अपनी दरिद्रता से तंग आकर जान देना चाहता है. वह अपनी बीवी तथा बच्चे को भूख से मरता नहीं देख सकता था. अतः आत्महत्या के सिवा उनकी पास कोई विकल्प नहीं था.
ब्राह्मण ने आगे कहा कि इस राज्य के लोग इतने आत्मनिर्भर हैं कि अपना सारा काम खुद ही करते हैं, इसलिए उसे कोई रोज़गार नहीं देता. सुनकर विक्रम ने ब्राह्मण से कहा कि वह उनके अतिथिशाला में जब तक चाहे अपने परिवार के साथ रह सकता है , तथा उसकी हर ज़रुरत पूरी की जाएगी.
ब्राह्मण ने कहा कि रहने में तो कोई हर्ज नहीं है, लेकिन उसे डर है कि कुछ समय बाद आतिथ्य में कमी आ जाएगी और उनको अपमानित करके निकाल दिया जायेगा. विक्रम ने उसे विश्वास दिलाया कि ऐसी कोई बात नहीं होगी और उसे भगवान समझकर उसके साथ हमेशा अच्छा बर्ताव किया जाएगा.
राजा विक्रम द्वारा इस तरह विश्वास दिलाने पर ब्राह्मण अपने परिवार के साथ अतिथिशाला में आकर रहने लगा. उसकी देख-रेख के लिए नौकर-चाकर नियुक्त कर दिए गए. वे मौज से रहने लगे. किसी भी चीज़ की उन्हें कमी नहीं थी. लेकिन वे सफ़ाई पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते थे. जो कपड़े पहनते थे उन्हें कई दिनों तक नहीं बदलते. जहाँ सोते वहीं थूकते और मल-मूत्र त्याग भी कर देते. अतिथिशाला में चारों तरफ गंदगी ही गंदगी फैलने लगी.
दुर्गन्ध के मारे उनका स्थान एक पल भी ठहरने लायक नहीं रह गया. नौकर-चाकर कुछ दिनों तक धीरज से सब कुछ सहते रहे लेकिन आखिरकार कंटालकर राजा के कोप की भी उन्होंने पहवाह नहीं की और भाग गये. राजा ने कई अन्य नौकर भेजे, पर सब के सब एक ही जैसे निकले. सबके लिए यह काम असंभव साबित हुआ. तब विक्रम ने खुद ही उनकी सेवा का बीड़ा उठाया.
स्वयं राजा विक्रम उठते-बैठते, सोते जगते वे ब्राह्मण परिवार की हर इच्छा पूरी करते रहे. विक्रम ने दुर्गन्ध की भी परवाह नहीं की. उनके कहने पर विक्रम उनके पाँव तक दबा देते थे. ब्राह्मण परिवार ने हर सम्भव प्रयत्न किया कि विक्रम उनके आतित्थ से तंग आकर अतिथि-सत्कार भूल जाएँ और अभद्रता से पेश आये, पर उनकी तमाम कोशिश असफल रही. बड़े सब्र के साथ विक्रम राजा उनकी सेवा में लगे रहे. कभी उन्हें शिकायत का कोई मौका नहीं दिया. एक दिन ब्राह्मण ने जैसे उनकी परीक्षा लेने की ठान ली. उसने राजा को कहा कि वे उसके शरीर पर लगी विष्ठा साफ करें तथा उसे अच्छी तरह नहला-धोकर साफ़ सुथरे वस्र पहनाएँ.
राजा विक्रम तुरन्त उसकी आज्ञा मानकर अपने हाथों से विष्ठा साफ करने को बढ़े. मगर ये क्या ! अचानक बड़ा चमत्कार हुआ. ब्राह्मण के सारे गंदे वस्र गायब हो गए. उसके शरीर पर देवताओं द्वारा पहने जाने वाले वस्र आ गए. उसका मुख मण्डल तेज से प्रदीप्त हो गये. सारे शरीर से सुगन्ध आने लगी.
राजा विक्रम आश्चर्य चकित हो गये. तभी वह ब्राह्मण बोला कि दरअसल वह वरुण देव है. वरुण देव ने उनकी परीक्षा लेने के लिए यह रुप धारण किया था. विक्रम के अतिथि-सत्कार की प्रशंसा सुनकर वे सपरिवार यहाँ पधारे थे. जैसा उन्होंने सुना था वैसा ही उन्होंने पाया, इसलिए विक्रम को उन्होंने वरदान दिया कि उसके राज्य में कभी भी अनावृष्टि नहीं होगी तथा वहाँ की ज़मीन से साल में तीन-तीन फसलें निकलेंगी. विक्रम को वरदान देकर वरुण देव सपरिवार अंतरध्यान हो गए.