कुम्भकरण रामायण का एक पात्र है. लंका पति राजा रावण का छोटा भाई था. वह ऋषि व्रिश्रवा और राक्षसी कैकसी का पुत्र था. उनकी पत्नी का नाम वज्रज्वाला था. उनके दो बेटे थे कुंभ और निकुंभ. कुम्भकरण 12 महीनों में लगातार 6 महीने जागता था और बाकी के 6 महीने सोते रहता था. पौराणिक मान्यता के अनुसार कुंभकर्ण और उनके भाई विभीषण जी ने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की थी, इससे प्रसन्न होकर बह्मा जी ने कुंभकर्ण को निद्रासन यानी 6 महीने सोने का वरदान दिया था.
मान्यता है की कुम्भ अर्थात घड़ा और कर्ण अर्थात कान, बचपन से ही बड़े कान होने के कारण इसका नाम कुम्भकर्ण रखा गया था. कुम्भकरण विभीषण और शूर्पनखा का बड़ा भाई था. बाल्य अवस्था से बलवान था. उसका विशाल शरीर होनेके कारण एक दिन में कई गांवों का भोजन अकेले खा जाता था. पुरा पेट ना भरने पर यह प्रजा को भी खा जाता था. कुम्भकरण की माता कैकसी राक्षस वंश की थी एवं पिता विशर्वा ब्राह्मण कुल के थे.
कुम्भकरण कुंभकर्ण में माता पिता दोनों के गुण थे. माता कैकसी अपने पुत्रो को पृथ्वी के स्वामी के रूप में देखती थी और वही पिता विश्रवा ब्राहमण थे , जिनमे अपार ज्ञान एवं शालीनता थी और वे उसी तरह से अपने पुत्रो को बनाना चाहते थे. माता पिता के अलग अलग स्वभाव एवं संस्कारों के कारण ही तीनों पुत्रो रावण, कुंभकर्ण एवम विभीषण में दोनों के गुण विध्यमान थे.
एक बार पिता विश्रवा ने तीनों भाइयों को तपस्या करने के लिए कहा और तीनो ने भगवान ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया. दर्शन दिए तो देवताओं ने माता सरस्वती से प्रार्थना की जब कुम्भकर्ण वरदान माँगे तो वे उसकी जिव्हा पर बैठ जाएँ. यहीं कारण कुम्भकर्ण जब इंद्रासन माँगने लगे तो उसके मुख से इंद्रासन की जगह निंद्रासन निकल गया. जिसे ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह दिया.
जब कुम्भकर्ण को इसका पश्चाताप हुआ तो ब्रह्मा जी ने इसकी अवधि घटा कर एक दिन कर दिया जिसके कारण यह छः महीने तक सोता रहता, फिर एक दिन के लिए उठता और फिर खा पीकर छः महीने के लिए सो जाता,परंतु ब्रह्मा जी ने इसे सचेत किया कि यदि कोई इसे बलपूर्वक उठाएगा तो वही दिन कुम्भकर्ण का अंतिम दिन होगा.
रामायण में कुंभकर्ण के पूर्वजन्म का भी उल्लेख मिलता है. यह भयंकर राक्षस पूर्वजन्म में भगवान विष्णु जी के साथ महायुद्ध कर चुका था. पूर्वजन्म में भगवान विष्णु को युद्ध के लिए ललकारते हुए यह बैकुंठ में पहुंच गया था. यहां भगवान विष्णु के साथ इस असुर ने अपने भाई के साथ मिलकर पांच हजार साल युद्ध किया था जिसका जिक्र देवीभागवत पुराण में भी मिलता है. पूर्वजन्म में कुंभकर्ण मधु नामक असुर था और इसका भाई कैटभ था.
राम रावण युद्ध के समय युद्ध में राम का पक्ष भारीपड़ रहा था,ऐसे में रावण को अपने बलशाली भाई कुंभकर्ण की याद आई और उसने उसे जगाने का हुक्म दिया. कुंभकर्ण को सोये अधिक समय नहीं हुआ था. इसीलिए उसे जगाने के लिये हजार नगाड़े बजाये गये. बड़ी मसक्कत के बाद राक्षस कुंभकर्ण की निद्रा टूटी और उठते ही उसने बहुत सारा भोजन खाया. तब उसे लंका पर छाये संकट के बारे में विस्तार से बताया गया.
कुंभकर्ण को इस बात का अहसास हो गया था कि उसके भाई रावण ने गलत कार्य किया हैं और उसने अपने भाई को यह समझाया भी लेकिन रावण ने उसकी नहीं मानी. अतः भाई प्रेम के कारण कुंभकर्ण ने युद्ध में जाना स्वीकार किया.
कुंभकर्ण राक्षस होकर भी राम की माया को जानता था. इसने रावण को समझाने का भी प्रयास किया था कि राम कोई सामान्य मनुष्य नहीं हैं. इनसे युद्ध करके राक्षस जाति का विनाश होना तय है. लेकिन रावण अपने अहंकार में चूर था. उसने कुंभकर्ण को ही बुरा भला कहां. कुंभकर्ण ने अपने बड़े भाई के आदेश पर यह जानते हुए कि भगवान राम के हाथों मृत्यु होने से उसे मोक्ष मिलेगा. युद्ध के लिए रणभूमि में आया और विभीषण को राम के साथ रहते हुए धर्म के पालन का आदेश दिया और यह कहा कि इस युद्ध के बाद राक्षस कुल को कोई अग्नि देने वाला भी नहीं रहेगा.
आखिरकार कुंभकरण ने युद्धभूमि में जाकर कहर मचा दिया. वो वानरों को रोंदता आगे बढ़ा. ऐसे में उसका रास्ता अंगद ने रोका तथा उससे युद्ध किया. यह देखकर लक्ष्मण जी ने श्री राम जी से आज्ञा मांगी तथा कुंभकरण से युद्ध करने के लिए आये. दोनों के बीच धमासान भीषण युद्ध हुआ.
कुंभकरण ने लक्ष्मण के ऊपर भगवन शिव के त्रिशूल को चलाया जिसे स्वयं श्री शिव जी के अवतार हनुमान ने आकर रोका. इसी बीच किष्किन्धा नरेश सुग्रीव कुंभकरण से युद्ध करने पहुंचे.
कुंभकरण ने महाराज सुग्रीव को देखते ही उसे अपने हाथों में उठा लिया तथा बंदी बनाकर लंका ले जाने लगा. उसका उद्देश्य सुग्रीव को ले जाकर रावण के समक्ष प्रस्तुत करना था. इस घटना से पूरी वानर सेना अपने राजा को बंदी देखकर हताश हो उठती तथा युद्ध समाप्त होने से पहले ही हार मान लेती. यह देखकर प्रभु श्रीराम जी स्वयं युद्धभूमि में आये तथा कुंभकरण को युद्ध के लिए ललकारा
श्रीराम को युद्धभूमि में देखकर कुंभकरण ने सुग्रीव को छोड़ दिया. दरअसल कुंभकरण राक्षस कुल में तो जन्मा था लेकिन उसे नारायण की शक्ति का ज्ञान था. अब उसे पता चल गया था कि उसके सामने स्वयं नारायण खड़े हैं लेकिन उसे अपने कर्तव्य का पालन करते हुए उनसे भी युद्ध करना था. वह जानता था कि नारायण के हाथो उसकी मृत्यु होगी लेकिन उनके हाथों से हुई मृत्यु के फलस्वरूप उसे मोक्ष की भी प्राप्ति होगी.
इसके बाद दोनों योद्धाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ व अंत में भगवन श्रीराम ने इन्द्रास्त्र चलाकर कुंभकरण की दोनों भुजाएं काट डाली. बादमें प्रभु श्री राम जी ने ब्रह्म दंड चलाया जिससे कुंभकरण का मस्तक कटकर समुंद्र में जा कर गिरा. अंतमें प्रभु ने कुंभकरण के पेट को काटकर अलग कर दिया और कुंभकरण का वध हो गया.
——=== शिवसर्जन ===——