वेदोंमें चौथा स्थान ” अथर्ववेद.” | Atharvaveda

Atharvaveda

गीता का सार है,” परिवर्तन संसार का नियम है.” और वेदोंका सार है, ” कुदरत की लीला अनंत अपरंपार है.”

वेद हमारी प्राचीन हिंदू धर्म की लिखित मानव सभ्यता है. ये विश्व के सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ हैं. कुछ लोग वेदों को ईश्वर की वाणी कहते है. वेद में लिखे गए मंत्र को ऋचाएँ कहा जाता है. वेद शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द ” विद ” से हुई है. जिसका शाब्दिक अर्थ ज्ञान का जानना होता है. 

        वेद भारतीय हिन्दू धर्म के वे ग्रंथ हैं. जिनमे धर्म, विज्ञान प्रकर्ति,ज्योतिष, विज्ञान, गणित, औषधि, खगोल शास्त्र के संबंधित सभी विषयों के ज्ञान काअखुट भंडार भरा पड़ा है. जो हमारे ऋषि-मुनियों की भेट है. वेदोंकी रचना तीन हजार साल पूर्व की गई थी. युनेस्को ने ऋग्वेद की 30 पाण्डुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहर की श्रेणी में रखा है.

        हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार वेदों की रचना स्वयं भगवान ब्रह्मा ने की हैं. और उन्होंने इन वेदों के ज्ञान तपस्या में लीन अंगिरा, आदित्य, अग्नि और वायु ऋषियों को दिया था. जो आज हमारी धार्मिक धरोहर है.  

         वेदों की संख्या चार है, लेकिन शुरुआत में वेद केवल एक ही था,अध्ययन की सुविधा की द्रष्टि से उसे चार भागों में बाँट दिया गया. एक और मत इस संबंध में प्रचलित है जिसके अनुसार, अग्नि, वायु और सूर्य ने तपस्या करी और ऋग्वेद, आयुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को प्राप्त किया था  

         वेदोंमें कहा गया है कि जिस प्रकार अग्नि से अंधकार दूर होता है और प्रकाश मिलता है इसी प्रकार वेदों से अज्ञान का अंधेरा दूर होकर कर ज्ञान का प्रकाश होता है. वायु का काम चलना है जिसका वेदों में अर्थ कर्म करने से जोड़ा गया है.इसी प्रकार सूर्य अपने तेज और प्रताप के कारण पूजनीय है यही वेदों में भी स्पष्ट किया गया है.

        आज हमें अथर्व वेद की बात करनी है अथर्ववेद हिन्दू धर्म के पवित्र वेदों में चौथे स्थान पर है. इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता हैं.इसमें देवताओं की स्तुति के साथ, विज्ञान, चिकित्सा, और दर्शन के भी मन्त्र हैं. अथर्ववेद संहिता के बारे में कहा गया है कि जिस राजा के राज्य में अथर्ववेद जानने वाला विद्वान् शान्तिस्थापन के कर्म में निरत रहता है, वह राष्ट्र उपद्रवरहित होकर निरन्तर उन्नति करता जाता है.

       अथर्ववेद का ज्ञान भगवान ने सबसे पहले महर्षि अंगिरा को दिया था, फिर महर्षि अंगिरा ने वह ज्ञान ब्रह्मा को दिया. 

अथर्ववेद मेँ खगोल भूगोल, वनस्पति विद्या, असंख्य जड़ी बूटियाँ, आयुर्वेद, गंभीर से गंभीर रोगों का निदान और उनकी चिकित्सा, अर्थशास्त्र के मौलिक सिद्धान्त, राजनीति के गुह्य तत्त्व, राष्ट्रभूमि तथा राष्ट्रभाषा की महिमा, शल्य चिकित्सा, कृमियों से उत्पन्न होने वाले रोगों का विवेचन, मृत्यु को दूर करने के उपाय, मोक्ष, प्रजनन-विज्ञान अदि सैकड़ों लोक उपयोगी विषयों का निरूपण किया गया है. आयुर्वेद की दृष्टि से अथर्ववेद का महत्व अतियंत लाभदाई है.

     चरणव्यूह ग्रंथ के अनुसार अथर्वसंहिता की नौ शाखाएँ हैं. (1) पैपल, (2) दान्त, (3) प्रदान्त, (4) स्नात, (5) सौल, (6) ब्रह्मदाबल, (7) शौनक, (8) देवदर्शत और (9)चरणविद्या

        अथर्ववेद की भाषा और स्वरूप के आधार पर ऐसा माना जाता है कि इस वेद की रचना सबसे बाद में हुई थी. 

वैदिक धर्म की दृष्टि से ॠग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद चारों वेद का बड़ा ही महत्व है. अथर्ववेद गृहस्थाश्रम के अंदर पति-पत्नी के कर्त्तव्यों तथा विवाह के नियमों, मान मर्यादाओं का उत्तम विवेचन किया गया है.

      अथर्ववेद ही आयुर्वेद का मूल आधार है. अथर्ववेद में आयुर्वेद से सम्बन्धित विभिन्न विषयों का वर्णन उपलब्ध है.

“अथर्व ” शब्द का अर्थ है अकुटिलता तथा अंहिसा वृत्ति से मन की स्थिरता प्राप्त करने वाला व्यक्ति. अथर्ववेद में कुल 20 कांड , 730 सूक्त एवं 5987 मंत्र हैं. 

        आर्टिकल के अंत मेँ 20 कांडों के अनुसार अथर्ववेद की विषयवस्तु का संक्षिप्त विवरण दे रहा हूं. 

(1) प्रथम कांड :- रोग निवृत्ति, बंधन मुक्ति, राक्षस विनाश. 

(2) द्वितीय कांड :-रोग, शत्रु, कृमिनाश, दीर्घायु की कामना. 

(3) तृतीयकांड :- राजा का निर्वाचन, शाला निर्माण, कृषि, पशुपालन. 

(4) चतुर्थ कांड :- ब्रह्मविद्या, विषनाशन, राज्याभिषेक, 

       ब्रहमौदन.

(5) पंचम कांड :- ब्रह्मविद्या, कृत्या (राक्षसी) परिहार.

(6) षष्ठम कांड :- दु:स्वप्न नाश, अन्न समृद्धि. 

(7) सप्तम कांड :- आत्मा का वर्णन. 

(8) अष्ठम कांड :- विराट ब्रह्म का वर्णन. 

(9) नवम कांड :- मधुविद्या, पंचौदन, अतिथि सत्कार, गौ महिमा. 

(10) दशम कांड :- ज्येष्ठ ब्रह्म, ब्रह्म विद्या. 

(11) एकादश कांड:- ब्रह्मौदन, रुद्र, ब्रह्मचर्य का वर्णन. 

(12) द्वादश कांड :- पृथ्वी सूक्त. 

(13) त्रयोदश कांड :- पूर्णत: आध्यात्म प्रकरण. 

(14) चतुर्दश कांड :- विवाह संस्कार. 

(15) पंचदश कांड :- व्रात्य ब्रह्म का गद्य वर्णन. 

(16) षोडष कांड:- दु:खमोचन के लिए गद्यात्मक मंत्र. 

(17) सप्तदश कांड:- अभ्युदय के लिए प्रार्थना है. एक सूक्त और 30 मंत्र हैं.

(18 )अष्ठदश कांड :- पितृमेध यज्ञ संबंधित है.

(19) एकोनविंश कांड:- राष्ट्र, काल, यज्ञ, अग्नि आदि का महत्व है.

(20) विंश कांड :- सोमयाग का वर्णन और इंद्र की स्तुति है.

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