कामाख्या मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है.पौराणिक कथा ओके अनुसार यहां सति देवी का योनि भाग गिरा था. यही वजह है कि यह मंदिर मे सति देवी की योनि का पूजन किया जाता है. सति देवी के मृत्यु से क्रोधित होकर भगवान शिव ने विनाश का विकरार नृत्य अर्थात “तांडवनृत्य” नृत्य किया था. और पूरी धरा को नष्ट करने की चेतावनी दी थी.
कामाख्या मंदिर गुवहाटी से 8 किमी दूर कामागिरी या नीलाचल पर्वत पर समुद्र की सतह से करीबन 800 फीट की ऊंचाई पर स्थित है. इस मंदिर को अलौकिक शक्तियों और तंत्र सिद्धि का प्रमुख स्थल माना जाता है.
धर्म पुराणों के अनुसार इस शक्तिपीठ का नाम कामाख्या इसलिए पड़ा क्योंकि इस जगह भगवान शिव का मां सती के प्रति मोह भंग करने के लिए विष्णु जी ने अपने चक्र से माता सती के 51 भाग किए थे जहां कही पर यह भाग गिरे वहां पर माता का एक शक्तिपीठ बन गया था.
यहां पर इस जगह माता की योनी गिरी थी, यह पीठ बहुत ही शक्तिशाली पीठ है. यहां साल भर भक्तों का तांता लगा रहता है लेकिन दुर्गा पूजा, पोहान बिया, दुर्गादेऊल, वसंती पूजा, मदानदेऊल, अम्बुवासी और मनासा पूजा पर इस मंदिर का अलग ही महत्व होता है. उस दिन यहां पर दूर दूर से लाखों की संख्या में भक्त आते है.
तांत्रिकों की देवी कामाख्या देवी की पूजा भगवान शिव के नववधू के रूप में की जाती है, जो सभी इच्छा पूर्ण करती है. काली और त्रिपुर सुंदरी देवी के बाद कामाख्या माता तांत्रिकों की सबसे महत्वपूर्ण देवी मानी जाती है.
विश्व के सभी तांत्रिकों, मांत्रिकों एवं सिद्ध-पुरुषों के लिये वर्ष में एक बार आने वाला अम्बूवाची योग पर्व को वरदान माना जाता है. यह अम्बूवाची पर्व भगवती (सती) का रजस्वला पर्व होता है. पौराणिक शास्त्रों के अनुसार सतयुग में यह पर्व 16 वर्ष में एक बार, द्वापर में 12 वर्ष में एक बार, त्रेता युग में 7 वर्ष में एक बार तथा कलियुग में प्रत्येक वर्ष जून माह में तिथि के अनुसार मनाया जाता है.
एक पुरानी प्रचलित मान्यता के अनुसार देवी कामाख्या मासिक धर्म चक्र के माध्यम से तीन दिनों के लिए गुजरती है, इन तीन दिनों के दौरान, कामाख्या मंदिर के द्वार श्रद्धालुओं के लिए बंद कर दिए जाते हैं.
आपको बता दु कि मंदिर के गर्भगृह में कोई भी प्रतिमा स्थापित नहीं की गई है. इसकी जगह एक समतल चट्टान के बीच बना विभाजन देवी की योनि को दर्शाता है. प्रकृतिक झरने के कारण यह जगह हमेशा गीला रहता है. इस झरने के जल को काफी प्रभावकारी और शक्तिशाली माना जाता है. ऐसी मान्यता है कि इस जल के नियमित सेवन से बीमारियां दूर हो जाती हैं.
हर साल यहां पर अम्बुबाची मेला के दौरान पास ही में स्थित ब्रह्मपुत्र का पानी तीन दिन के लिए लाल हो जाता है. मान्यता है कि पानी का लाल रंग कामाख्या देवी के मासिक धर्म के कारण होता है. फिर तीन दिन बाद दर्शन के लिए यहां भक्तों की भीड़ मंदिर में उमड़ पड़ती है. दूसरे शक्तिपीठों की अपेक्षा कामाख्या देवी मंदिर में प्रसाद के रूप में लाल रंग का गीला कपड़ा दिया जाता है. बताया जाता है कि जब मां तीन दिन रजस्वला होती है, तो सफेद रंग का कपडा मंदिरके अंदर बिछा दिया जाता है. तीन दिन बाद जब मंदिर के दरवाजे को खोले जाते हैं, तब वह वस्त्र माता के रज से लाल रंग से भीगा होता है. इस कपड़ें को अम्बुवाची वस्त्र कहते है, इसे ही भक्तों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है.
महिला योनि को जीवन का प्रवेश द्वार माना जाता है. यही कारण कामाख्या को समस्त निर्माण का केंद्र माना गया है. पूरे भारत में रजस्वला यानी मासिक धर्म को अशुद्ध माना जाता है.लड़कियों को इस दौरान अक्सर अछूत समजा जाता है. लेकिन कामाख्या के मामले में ऐसा नहीं माना जाता है.
अम्बुबासी या अम्बुबाची मेला को अमेती और तांत्रिक जनन क्षमता के पर्व के रूप में भी जाना जाता है. अम्बुबाची शब्द की उत्पत्ति ” अम्बु ” और ” बाची ” शब्द से हुई है. अम्बु का अर्थ होता है पानी जबकि बाची का अर्थ होता है उत्फुल्लन. यह पर्व स्त्री शक्ति और उसकी जनन क्षमता को गौरवान्वित करता है. इस दौरान बड़ी संख्या में श्रद्धालू यहां आते हैं,जिसे पूर्व का महाकुम्भ भी कहा जाता है.
तंत्र विद्या और काली शक्तियों का कामाख्या में आज भी जीवन शैली का हिस्सा है. अम्बुबाची मेला के दौरान इसे आसानी से देखा जा सकता है. इस समय को शक्ति तांत्रिक की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माना जाता है. शक्ति तांत्रिक ऐसे समय में एकांतवास से बाहर आते हैं और अपनी शक्तियों का प्रदर्शन करते हैं.
कामाख्या के तांत्रिक और साधू चमत्कार करने में माहिर होते हैं. कई लोग विवाह, बच्चे, धन और दूसरी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कामाख्या की तीर्थयात्रा पर जाते हैं. यहां के तांत्रिक बुरी शक्तियों को दूर करने में भी समर्थ होते हैं. तथा
मंदिर के आसपास रहने वाले अघोरी और साधू के बारे में कहा जाता है कि वे काला जादू और श्राप से छुटकारा दिलाने में समर्थ होते हैं.
मुख्य मंदिरके अलावा यहां मंदिरों का एक परिसर भी है जो दस महाविद्या को समर्पित है. ये महाविद्या हैं मातंगी, काली, कामाला, भैरवी, धूमावति, त्रिपुर सुंदरी, बगुलामुखी, तारा छिन्नमस्ता और भुवनेश्वरी. इससे यह स्थान तंत्र विद्या और काला जादू के लिए और भी महत्वपूर्ण हो जाता है.
मनोकामना पूरी करने के लिए यहां पर कन्या पूजन व भंडारा कराया जाता है. इसके साथ ही यहां पर पशुओं की बलि दी जाती ही हैं. लेकिन यहां मादा जानवरों की बलि नहीं दी जाती है.
काली और त्रिपुर सुंदरी देवी के बाद कामाख्या माता जी तांत्रिकों की सबसे महत्वपूर्ण देवी है. कामाख्या देवी की पूजा भगवान शिव के नववधू के रूप में की जाती है, जो कि मुक्ति को स्वीकार करती है और सभी इच्छाएं पूर्ण करती है.
कामाख्या मंदिर तीन हिस्सों में बना हुआ है. पहला हिस्सा सबसे बड़ा है इसमें हर व्यक्ति को नहीं जाने दिया जाता, वहीं दूसरे हिस्से में माता के दर्शन होते हैं , जहां एक पत्थर से हर वक्त पानी निकलता रहता है. माना जाता है कि महीनें के तीन दिन माता को रजस्वला होता है. इन तीन दिनो तक मंदिर के पट बंद रहते है. तीन दिन बाद बड़े ही धूमधाम से मंदिर के पट खोले जाते है.
कामाख्या मंदिर के बारे में किंवदंती है कि घमंड में चूर असुरराज नरकासुर एक दिन मां कामाख्या को अपनी पत्नी के रूप में पाने का दुराग्रह कर बैठा था. कामाख्या महामाया ने नरकासुर की मृत्यु को निकट मानकर उससे कहा कि यदि तुम इसी रात में नील पर्वत पर चारों तरफ पत्थरों के चार सोपान पथों का निर्माण कर दो एवं कामाख्या मंदिर के साथ एक विश्राम-गृह बनवा दो, तो मैं तुम्हारी इच्छानुसार पत्नी बन जाऊँगी और यदि तुम ऐसा न कर पाये तो तुम्हारी मौत निश्चित है. गर्व में चूर असुर ने पथों के चारों सोपान प्रभात होने से पूर्व पूर्ण कर दिये और विश्राम कक्ष का निर्माण कर ही रहा था कि महामाया के एक मायावी कुक्कुट (मुर्गे) द्वारा रात्रि समाप्ति की सूचना दी गयी, जिससे नरकासुर ने क्रोधित होकर मुर्गे का पीछा किया और ब्रह्मपुत्र के दूसरे छोर पर जाकर उसका वध कर डाला. यह स्थान आज “कुक्टाचकि” के नाम से विख्यात है. बाद में मां भगवती की माया से भगवान विष्णु ने नरकासुर असुर का वध कर दिया. नरकासुर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र भगदत्त कामरूप का राजा बना.भगदत्त का वंश लुप्त हो जाने से कामरूप राज्य छोटे छोटे भागों में बंट गया और सामंत राजा कामरूप पर अपना शासन करने लगा.
इस क्षेत्र में सभी वर्ण व जातियों की कौमारियां पूजनीय हैं. वर्ण-जाति का भेद करने पर साधक की सिद्धियां नष्ट हो जाती हैं. शास्त्रों में वर्णित है कि ऐसा करने पर इंद्र तुल्य शक्तिशाली देव को भी अपने पद से वंछित होना पड़ा.
जिस प्रकार उत्तर भारत में कुंभ महापर्व का महत्व माना जाता है, ठीक उसी प्रकार उससे भी श्रेष्ठ आद्यशक्ति के अम्बूवाची पर्व का महत्व माना जाता है.
51 शक्तिपीठों में से एक कामाख्या शक्तिपीठ बहुत ही प्रसिद्ध और चमत्कारी है. कामाख्या देवी का मंदिर अघोरियों और तांत्रिकों का गढ़ माना जाता है. कामाख्या मंदिर सभी शक्तिपीठों का महापीठ माना जाता है. इस मंदिर में देवी दुर्गा या मां अम्बे की कोई मूर्ति या चित्र आपको दिखाई नहीं देता वल्कि मंदिर में एक कुंड बना है जो की हमेशा फूलों से ढ़का रहता है. इस कुंड से हमेशा ही जल निकलता रहता है. चमत्कारों से भरे इस मंदिर में देवी की योनि की पूजा की जाती है और योनी भाग के यहां होने से माता यहां रजस्वला भी होती हैं.
काली और त्रिपुर सुंदरी देवी के बाद कामाख्या माता जी तांत्रिकों की सबसे महत्वपूर्ण देवी है. कामाख्या देवी की पूजा भगवान शिव के नववधू के रूप में की जाती है, जो कि मुक्ति को स्वीकार करती है और सभी इच्छाएं पूर्ण करती है.
कामाख्या के तांत्रिक और साधू चमत्कार करने में सक्षम होते हैं. कई लोग विवाह, बच्चे, धन और दूसरी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कामाख्या की तीर्थयात्रा पर जाते हैं.
कामाख्या मंदिर के दर्शन का समय भक्तों के लिए सुबह 8:00 बजे से दोपहर 1:00 बजे तक और फिर दोपहर 2:30 बजे से शाम 5:30 बजे तक शुरू होता है. वैसे सामान्य प्रवेश नि: शुल्क है, लेकिन भक्त सुबह 5 बजे से कतार बनाना शुरू कर देते हैं, इसलिए यदि किसी के पास समय है तो इस विकल्प पर जा सकते हैं.आम तौर पर इसमें 3-4 घंटे लगते हैं. वीआईपी प्रवेश की एक टिकट लागत है, जिसे मंदिर में प्रवेश करने के लिए भुगतान करना पड़ता है, जो कि प्रति व्यक्ति रुपए 501 की लागत पर उपलब्ध है. इस टिकट से कोई भी सीधे मुख्य गर्भ गृह में प्रवेश करके 10 मिनट के भीतर पवित्र दर्शन कर सकता है.
” या देवी सर्व भूतेषू मातृ रूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ।।
——-====शिवसर्जन ====——