“सप्तर्षि” पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध के आकाश में रात्रि में दिखने वाला एक तारामंडल है. इसे रातको आकाश में सात तारों के समूह के रूप में देखा जा सकता है. इसमें चार तारे चौकोर तथा तीन तिरछी रेखा में रहते हैं. इन तारों के नाम प्राचीन काल के सात ऋषियों के नाम पर रखे गए हैं.
वेदों में जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है, वे (1) वशिष्ठ, (2) विश्वामित्र, (3) कण्व, (4) भारद्वाज, (5) अत्रि, (6) वामदेव और (7) शौनक के नाम से हैं. इन्हीं सातों ऋषियों से तारामंडल के सात तारों को जोड़ा जाता है.
पृथ्वी से सप्तर्षि मंडल को देखनेसे ऐसा लगता है कि ये सात तारे हमसे लगभग बराबर की दूरी पर हैं. वास्तव में सप्तर्षि के ये तारे हमसे लगभग एक समान दूरी पर न होकर विभिन्न प्रकाश वर्षों की दूरी पर स्थित हैं, और इनके बीच परस्पर गुरुत्वाकर्षण का विशेष आकर्षण सम्बन्ध भी नहीं है. वैज्ञानिकों का कहना है कि कृतु तथा मारीचि तो अन्य पांच तारों से अलग दिशा में जा रहे हैं. अत: कोई एक लाख वर्ष बाद सप्तर्षि या का यह रूप नहीं रहेगा, इनकी हम से दूरियां 55 से लेकर 93 प्रकाश वर्ष हैं, और आपस में तो और भी अधिक दूरियां हैं.
प्राचीन काल मे जब दिशा सूचक यंत्र की शोध नही हुई थी, तब समुद्र मे सफर करनेवाले नाविक रात को ध्रुव के तारे की मदद से दिशा की जानकारी हासिल करते थे. उस समय उत्तर मे ध्रुव के तारे को ढूंढने के लिए सप्तर्षि मंडल के प्रथम दो तारे का सहारा लिया जाता था जिसके सीधी लाइन मे ध्रुव का तारा दिखता है. इस मंडल के प्रथम दो तारे हमेशा ध्रुव तारे की सीध में ही दिखाई देते हैं. सप्तऋषि मण्डल ध्रुव तारे के चारों ओर 24 घण्टे में एक चक्कर पूरा करता है.
प्राचीन समय मे आजके जैसी टेक्नोलॉजी नही थी तब आंखों की रोशनी की जांच करने के लिए सप्तर्षि तारा मंडल का सहारा लिया जाता था.
इसमे छह नंबर के तारे के निचे एक बिलकुल छोटा तारा दिखता है. वो जिसको दीखता हो तो उसकी आँख ठीक मानी जाती थी.
सप्तर्षि (सप्त + ऋषि) सात ऋषियों को कहा जाता है. जिनका उल्लेख वेद एवं अन्य हिन्दू ग्रन्थों में अनेकों बार किया गया है.
वेदों के अनुसार सात ऋषियों के नाम इस प्रकार है :
(1) वशिष्ठ, (2) विश्वामित्र,(3)कण्व, (4) भारद्वाज, (5) अत्रि, (6) वामदेव (7) शौनक.
पुराणों में सप्त ऋषि के नाम अलग अलग मिलते है. विष्णु पुराण के अनुसार इसके नाम :
(1) वशिष्ठ, (2) कश्यप,(3) अत्रि, (4) जमदग्नि, (5) गौतम, (6) विश्वामित्र और (7) भारद्वाज.
अन्य पुराणों के अनुसार सप्तऋषि की नामावली इस प्रकार है :
(1) क्रतु, (2) पुलह, (3) पुलस्त्य, (4) अत्रि, (5) अंगिरा, (6) वसिष्ठ और (7) मरीचि है.
महाकाव्य महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं, एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली के अनुसार सप्तर्षि – कश्यप, वशिष्ठ, मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु हैं कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है.
हम लोग यहां पर वेदों में दर्शाये गये सात ऋषियों के बारेमें संक्षिप्त मे जानकारी हासिल करेंगे जो नामो मे (1) वशिष्ठ, (2) विश्वामित्र, (3) कण्व, (4) भारद्वाज, (5) अत्रि, (6) वामदेव और (7) शौनक ऋषि का समावेश है.
(1) वशिष्ठ ऋषि :
वशिष्ठ वैदिक काल के प्रमुख ऋषि थे. वशिष्ठ ऋषि राजा दरशरथ के कुल गुरु थे. वशिष्ठ ऋषि दशरथ के पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के गुरु थे. वशिष्ठ के कहने पर ही राजा दशरथ ने अपने दोनों पुत्रों श्री राम जी एवं श्री लक्ष्मण को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था. फिर ऋषि वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच कामधेनु गाय के लिए युद्ध हुआ था.
(2) विश्वामित्र ऋषि :
यह वैदिक काल के प्रसिद्ध ऋषि थे. उनकी तपस्या मेनका ने भंग की थी. इन्होंने ही गायत्री मंत्र की रचना की है जो आज भी चमत्कारिक मंत्र माना जाता है. कामधेनु गाय के लिए उनका युद्ध ऋषि वशिष्ठ से हुआ था. ब्रह्मा जी ने ऋषि विश्वामित्र की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें ब्राह्मण की उपाधि प्रदान की थी. विश्वामित्र ऋषि होने के पूर्व राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए थे. इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया था.
विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था.
माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहाँ शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुठकर अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी.
3) कण्वऋषि :
वैदिक काल के प्रसिद्ध ऋषि थे. हिंदू रीति-रिवाजों में सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्व ऋषियों ने ही शुरू किया था. कण्व ऋषियों के आश्रम में ही हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला और उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण किया गया था. सोनभद्र में जिला मुख्यालय से आठ किलो मीटर की दूरी पर कैमूर शृंखला के शीर्ष स्थल पर स्थित कण्व ऋषि की तपस्थली है , जो कंडाकोट नाम से जानी जाती है.
(4) भारद्वाज ऋषि :
चरक संहिता के अनुसार ऋषि भारद्वाज को आयुर्वेद का ज्ञान इंद्र से मिला था. वे ब्रह्मा, बृहस्पति एवं इन्द्र के बाद चौथे व्याकरण-प्रवक्ता थे. महर्षि भरद्वाज व्याकरण, राजनीतिशास्त्र,
आयुर्वेद संहित, धनुर्वेद, यंत्रसर्वस्व, अर्थशास्त्र, पुराण, शिक्षा आदि पर अनेक ग्रंथों के रचयिता हैं.
भारद्वाज बृहस्पति के पुत्र थे. आप की माता का नाम ममता था. इनका जन्म श्री राम के जन्म के पूर्व हुआ था. इन्होंने वेदों के कई मंत्रियों की रचना की है. भारद्वाज स्मृति भारद्वाज संगीता की रचना इन्होंने की है.
एक उल्लेख अनुसार उनकी लंबी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था. माना जाता है कि भरद्वाजों में से एक भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी थी.
ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं. इस मण्डल में ऋषि भारद्वाज के 765 मन्त्र हैं. अथर्ववेद में भी भारद्वाज के 23 मन्त्र मिलते हैं. ‘भारद्वाज-स्मृति’ एवं ‘भारद्वाज-संहिता’ के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे. ऋषि भारद्वाज ने ‘यन्त्र-सर्वस्व’ नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी. इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने ‘विमान-शास्त्र’ के नाम से प्रकाशित कराया है. इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है.
(5) अत्रि ऋषि :
अत्रि ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे. ये वैदिक काल के ऋषि थे. एक बार ब्रह्मा विष्णु महेश अनुसूइया के आश्रम में गए थे. ऋषि अत्रि वहां पर नहीं थे. अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा माँगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी. माता अनुसूया ने देवी सीता जी को पतिव्रत का उपदेश दिया था.
अत्रि ऋषि ने इंद्र अग्नि और अन्य देवताओं को भजन लिखने की प्रेरणा दी थी. इनका ऋग्वेद में सबसे अधिक उल्लेख मिलता है. ऋग्वेद के पांचवे मंडल को अत्री मंडला कहा जाता है.
अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस आज का ईरान चले गए थे, जहाँ उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया था.अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ था. अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था. मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महा मुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे. ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की कृपा थी.
(6) वामदेव ऋषि :
वामदेव ऋषि ने संगीत की रचना की थी. यह गौतम ऋषि के पुत्र थे. इन्होने इंद्र से तत्वज्ञान पर चर्चा की थी. जब ये अपनी माता के गर्भ में थे तब इन्हें विगत 2 जन्मों का ज्ञान हो गया था. ऐसा उल्लेख किया जाता है कि ऋषि वामदेव सामान्य रूप से माता के गर्भ से पैदा नहीं होना चाहते थे. अतः इनका जन्म इनकी माता के पेट को फाड़कर हुआ था.
वामदेव ऋषि को संगीत का सूत्रपात करने के लिए जाना जाता है. वामदेव गौतम ऋषि के बेटे थे. वामदेव को जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता माना जाता है.
(7) शौनक ऋषि :
शौनक ऋषिने एक बड़े गुरुकुल की स्थापना की थी. जिसमें 10000 से अधिक विद्यार्थी पढ़ते थे. शौनक ऋषि संस्कृत व्याकरण, ऋग्वेद प्रतिशाख्य, बृहद्देवता, चरणव्यूह तथा ऋग्वेद की 6 अनुक्रमणिकाओं के रचयिता ऋषि थे. वो कात्यायन और अश्वलायन के गुरु माने जाते है. उन्होने ऋग्वेद की बश्कला और शाकला शाखाओं का एकीकरण कियाथा. विष्णु पुराण के अनुसार शौनक ग्रतसमद के पुत्र थे. उनको विशाल गुरुकुल व्यवस्था के लिए कुलपति का सम्मान हासिल है. वैदिक धर्म मे ऋषि शौनक के शिवा यह सम्मान किसीको नही मिला.