हिंदू – मुस्लिम एकता का प्रतिक | ” गामा पहलवान. ” Gama Pehalwan

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   कुस्ती की दुनिया मे एक नाम गामा पहलवान का भी आता है जिसे मरते दम तक कोई हरा नहीं पाया. ता : 22 मई 1878 के दिन अमृतसर, पंजाब ( ब्रिटिश भारत ) मे जन्मे गामा को ” द ग्रेट गामा ” भी कहा जाता था. 

        गामा पहलवान का पुरा नाम गुलाम मोहम्मद बक्श था. उनका देहांत 82 साल की उम्र मे ता : 23 मई 1960 के दिन लाहौर , पंजाब. ( पाकिस्तान ) मे हुआ था. उनका भाई इमाम बक्श भी पेशेवर पहलवान थे. 

          गामा पहलवान को अक्टूबर 1910 मे वर्ल्ड हैवीवैट चैम्पियनशिप के भारतीय संस्करण से सम्मानित किया गया. उनको सर्वकालीन महान पहलवानो मे से एक माना जाता है. 52 साल के करियर मे उन्होंने अनेक पहलवानो को पछाड़ा.

     अमृतसर मे उत्तरीय भारत के पंजाब क्षेत्र मे पहलवानो के एक कश्मीरी मुस्लिम परिवार मे उनका जन्म हुआ था.उनका परिवार जो विश्व स्तर के पहलवानो को बनाने के लिये जाना जाता था. उनके परिवार को इतिहासकारो द्वारा मूल रूपसे कश्मीरी ब्राह्मण माना जाता है. जो कश्मीर मे मुस्लिम शासन के दौरान इस्लाम मे परिवर्तित हो गये थे. गामा की दो पत्नी थी एक पंजाब ( पाकिस्तान ) मे और दूसरी बड़ौदा गुजरात ( भारत ) मे थी. 

       पिता मुहमद अजीज बक्श की मृत्यु के बाद जब वह छह सालके थे तब गामा को उनके नाना नून पहलवान की देखभाल मे लगा दीया था. 

        उस वक्त जोधपुर मे स्थित आयोजित एक प्रतियोगिता मे 400 से ज्यादा पहलवानो ने भाग लीया था जिसमे उनका नंबर अंतिम 15 मे रहा था. कम उम्र के कारण उन्हें जोधपुर के महाराजा द्वारा विजेता घोषित किया गया था. उसके बाद दतिया के महाराजा ने उन्हें प्रशिक्षण मे ले लीया था. 

          गामा की ऊंचाई 5 फीट 7 इंच थी. और वजन 110 किलो था. उनके आहार मे प्रति दिन 10 लीटर दूध मिलाया जाता था .1.5 पाउंड कुचल बादाम का पेस्ट , आधा लीटर घी, छह पाउंड मक्खन, तीन बाल्टी मौसमी फल , दो देसी मटन , छह देसी मुर्गियां, फलों के रस के साथ और उसके पाचन तंत्र और मांसपेशियों के स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए अन्य सामग्री भी दी जाती थी. 

       पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ की बेग़म कुलसूम नवाज़ हमारे उस्ताद गामा पहलवान की पोती हैं.

          बुढ़ापा, ऐसे महान खिलाड़ियों का भी ग़रीबी में ही कटता है, वैसे उनका भी कटा. हिंदुस्तान के घनश्याम दास बिड़ला कुश्ती प्रेमी थे. उन्होंने दो हज़ार की एक मुश्त राशि और 300 रूपये मासिक पेंशन गामा के लिए बांध दी थी. बड़ौदा के राजा भी उनकी मदद के लिए आगे आये थे.   

       पाकिस्तान में जब इस बात पर विवाद हुआ तब सरकार ने गामा के इलाज़ के लिए पैसे दिए. बड़ौदा के संग्रहालय में 1200 किलो का एक पत्थर रखा हुआ है जिसे 23 दिसम्बर,1902 को गामा उठाकर कुछ दूर तक चले थे. 

        सन 1947 में जब हालात बिगड़ चुके थे. तब श्री गामा अमृतसर से लाहौर की मोहिनी गली में बस गए थे. बंटवारे ने देश के हिंदू-मुसलमान के बीच बड़ी दीवार खड़ी कर दी थी. गली में रहने वाले हिंदुओं की जान खतरे में थी. तब गामा पहलवान ‘रुस्तम-ए-हिंद’ और भाई ‘रुस्तम-ए-ज़मां’ दोनों आगे आए. उन्होंने कहा कि , ‘ इस गली के हिंदू मेरे भाई हैं. देखें इनपर कौन सा मुसलमान आंख या हाथ उठाता है!’

       उस गली के एक भी हिंदू को खरोंच तक नहीं आई. जब हालात बहुत बिगड़ गए तो गामाने अपने पैसों से गली के कई हिंदुओं को पाकिस्तान से रवाना किया था.

              कहते हैं की गामा पहलवान ने हिंदुस्तान के एक से एक नामचीन पहलवान को हरा दिया था. पर एक नाम ऐसा था जो देश में कुश्ती के मैदान में बड़ी इज्ज़त के साथ लिया जाता था- गुजरांवाला के करीम बक्श सुल्तानी. यह नाम अब भी गामा के लिए एक चुनौती था.

       लाहौर में दोनों के बीच कुश्ती का दंगल रखा गया, और कहते हैं कि तमाम लाहौर उस दिन सिर्फ दंगल देखने उस मैदान में टूट पड़ा था. तकरीबन सात फुट ऊंचे करीम बक्श के सामने पांच फुट सात इंच के गामा बिलकुल बच्चे लग रहे थे. जैसा कि दरअसल ऐसा होता है कि नए घोड़े पर दांव कोई नहीं लगाता. सबने यही सोचा था कि थोड़ी देर में ही सुल्तानी गामा को चित्त कर देंगे. तीन घंटे तक लोग चिल्लाते रहे, भाव बढ़ते- घटते रहे. अंत में नतीजा कुछ नहीं निकला. दोनों बराबरी पर छूटे. इस दंगल का असर यह हुआ कि गामा हिंदुस्तान भर में मशहूर हो गये !

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          सन 1910 में अपने भाई के साथ गामा लंदन के लिए रवाना हो गए थे. लंदन में उन दिनों ‘चैंपियंस ऑफ़ चैंपियंस’ नाम की कुश्ती प्रतियोगिता हो रही थी. नियमों के हिसाब से गामा का कद कम था इसीलिए उन्हें दंगल में भाग लेनेसे रोक दिया गया. गामा इस बात पर गुस्सा हो गए और ऐलान कर दिया कि वे दुनिया के किसी भी पहलवान को हरा सकते हैं और अगर ऐसा नहीं हुआ वे जीतने वाले पहलवान को इनाम देकर हिंदुस्तान लौट जायेंगे. उस वक्त 12 पहलवानो को गामा ने हरा दीया था. 

          आखिरकार आयोजकों को हारकर गामा को दंगल में एंट्री देनी पड़ी थी. 10 सितम्बर 1910 का वह दिन जब जॉन बुल प्रतियोगिता में गामा के सामने विश्व विजेता पोलैंड के स्तानिस्लौस ज्बयिशको थे. एक मिनट में गामा ने उन्हें गिरा दिया और फिर अगले ढाई घंटे तक वे फ़र्श से चिपका रहे ताकि चित न हो जाएं. मैच बराबरी पर छूटा. चूंकि विजेता का फ़ैसला नहीं हो पाया था, इसलिए हफ़्ते भर बाद दोबारा कुश्ती रखी गयी. 

       मगर तारीख : 17 सितम्बर, 1910 के दिन स्तानिस्लौस ज्बयिशको लड़ने ही नहीं आए. गामा को विजेता मान लिया गया. पत्रकारों ने जब ज्बयिशको से पुछा तो उनका कहना था, ‘ये आदमी मेरे बूते का नहीं है.’ जब गामा से पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘मुझे लड़कर हारने में ज़्यादा ख़ुशी मिलती बिना लड़े जीतकर’.

             यह था रुस्तम ए हिन्द गामा पहलवान का इतिहास. आपको जरूर पसंद आया होगा. 

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                         शिव सर्जन प्रस्तुति.

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