“गढ़ आला पण सिंह गेला.”

tanaji

शिवाजी महाराज और महाराज के सेनापति सूबेदार सरदार श्री तानाजी राव मालूसरे के बिच सुसंवाद हो रहा था. तानाजी अपने पुत्र रायबा की शादी का निमंत्रण देने आये थे. 

शिवाजी महाराज कोंढाणा किले पर विजय हासिल करने के लिये योजना बना रहे थे, और उसका नेतृत्व शेर-ए-शिवाजी नामसे प्रसिद्ध तानाजी मालुसरे को देना चाहते थे मगर जब शिवाजी को पता चला की उनके पुत्र की शादी है तो योजना स्थगित करने का मन बनाया. 

       तानाजी इस बात पर नाराजगी दर्शाते कहा कि, ” आधी लग्न कोंढाण्याचे, मग रायबाचे ! ” अर्थात पहले कोंढाणा की शादी बाद में रायबा की. योजना के अनुसार तानाजी मालुसरे अपने भाई सूर्याजी मालुसरे और मामा ( शेलार मामा) और पूरे 342 सैनिकों के साथ रात मे निकल पड़े. तानाजी राव मालुसरे शरीर से हट्टे कट्टे और शक्तिशाली लड़ाकू थे. 

         काम मुश्किल था, मगर इच्छाशक्ति प्रबल थी. 342 सैनिकों को लेकर मुगलों के 1500 सेन्यो से लड़कर किला जितना आसन काम नहीं था. मगर सूबेदार तानाजी मालुसरे को अपनी ” यशवंती ” पर भरोसा था. यशवंती तानाजी की विश्वसनीय घोरपडी थी. जिनकी सहायता से सिंह गढ़ की ऊंची दीवाल पर चढ़ना आसन होता था. घोरपडी को चिकटा भी कहा जाता है. उत्तर भारत मे उसे गोह कहा जाता है. गोह को रस्सी से बांधकर उसे किले की दिवार पर फेका जाता था, गोह वहां जमकर चिपक जाती थी. फिर गोह से लटकती रस्सी के सहारे एक के बाद एक सैन्य उपर चढ़ जाते थे. 

           तानाजी मालुसरे शिवाजी महाराज के बचपन के साथी थे. साथ में खेलकूद कर बड़े हुये थे, तानाजी गोरिला युद्ध के महारथी थे. तानाजी ने ता 4 जनवरी 1672 के दिन रात को अपने चुनंदे साथिओं के साथ हल्ला बोल दीया. दोनों पक्षो में धमासान लड़ाई हुई. 

         तानाजी ने लड़ाई मे उनके सेनापति सिद्दी हिलाल को मार डाला. उनकी 9 पत्नियां थी. हाथी को शराब पिलाकर भेजा गया. उसकी भी सोंध काट दी गयी. उदय भान की 18 पत्नियां थी.उसके 12 पुत्रो थे जिनको तानाजी ने 24 टुकड़ो मे काट डाला, तब जाकर उदय भान की नींद उडी, तब तक 700 मुगल सैनिक मारे जा चुके थे. मुख्य दरवाजा कल्याण खुल चूका था. 

         अनेकों लाशो का ढेर हो गया था. खबर मिलते ही क्रोधित होकर, राजकुमार जय सिंह – 1 द्वारा नियुक्त किया गया किलेदार उदयभान राठौड़ वहां आ पंहुचा. आने से पहले उनकी बीबी ओकी उसने हत्या कर दी. उदय भान राठौड़ और सूबेदार तानाजी एक दूसरे के आमने सामने आ गये.

      मुगल सैनिकों और मराठा ओके बिच भयंकर युद्ध शुरू था. तानाजी शूरवीरता से लड़ रहे थे तब दुर्भाग्य से उनकी ढाल तूट गई ओर उनका ढाल वाला हाथ कट गया. तानाजी ने अपने सिर के फेटे ( पगड़ी ) को ढाल बनाकर लड़ाई जारी रखी. तलवार के वारो को हाथ में झेलते रहे. दोनों लोहलुहान हो गये. गंभीर रुप से घायल तानाजी ने एक अंतिम वार किया जो उदय भान को भारी पड़ा. उदयभान की जगह पर मौत हो गयी. कुछ इतिहासकारो का कहना है घायल उदयभान को शैलार मामा ने गला घोटकर मार डाला था. 

       इस लड़ाई के बाद घायल तानाजी भी वीरगति को प्राप्त हुये. आगे की बाजी उनके भाई सूर्याजी मालुसरे और मामा शेलार ने अपने हाथ में ले ली. आखिरकार मुगलों की सेना ने हार स्वीकार की. मराठाओ ने किला जीत लिया.तानाजी के भाई सूर्याजी मालुसरे ने कोंढाणा किले पर भगवा लेहराया.

 जीत की खुशी में मराठा सैनिकों ने आग प्रज्जवलित की. ऊंचे उठी अग्नि की ज्वाला को देखकर शिवाजी महाराज को जीत की जानकारी मिली. 

       शिवाजी को पता चला की इस लड़ाई में उसने साथी तानाजी को खो दीया है तो अत्यंत दुःखी हुआ और उसके मुहसे शब्द निकल पड़े, ” गढ़ आला पण सिंह गेला ” यानी गढ़ तो आया ( जीता ) लेकिन सिंह ( तानाजी ) चला गया. 

शिवाजी ने आदर के साथ उसकी अंतिम क्रिया थी. तथा उनके पुत्र रायबा की शादी खुद शिवाजी के हाथो की गई. 

       कोंढाणा किला जितने के बाद वीरगति हुये तानाजी मालुसरे का पार्थिव देह को पालकी में बिठाकर लाया गया, तब कोई भी मावळा ( मराठा सैन्य ) के चहेरे पर खुशी नहीं थी. शिवाजी को शंका हुई तो उसने पर्दा हटाया तो लहू लुहान तानाजी दिखाई दिये. उनको अत्यंत दुःख हुआ और उनके मुहसे शब्द निकल गये, ” गढ़ आला पण सिंह गेला ” माजा तान्हा गेला. 

       शिवाजी महाराज ने अपने गले मे पहनी समुद्र कोड़ी राजमाला को निकालकर उनके प्रेत के उपर रख दी , जो राजमाला आजभी तानाजी के वंशजो ने संभालकर रखी है. 

         शिवाजी महाराज ने उसके बाद तानाजी के पुत्र रायबा को पारगढ़ जिले का किलेदार बनाया जो तालुका चंदगढ़ , जिला कोल्हापुर महाराष्ट्र. मे विध्यमान है.आज भी तानाजी के वंशज उस किले मे रहते है. 

         तानाजीराव का जन्म 17 वीं शताब्दी में महाराष्ट्र के कोंकण प्रान्त में महाड के पास उमरथे में हुआ था. वे बचपन से छत्रपति शिवाजी के साथी थे. ताना और शिवा एक.दूसरे को बहुत अछी तरह से जानते थे. तानाजीराव, शिवाजी के साथ हर लड़ाई में शामिल होते थे. ऐसे ही एक बार शिवाजी महाराज की माताजी लाल महल से कोंढाणा किले की ओर देख रहीं थीं. तब शिवाजी ने उनके मन की बात पूछी तो जिजाऊ माता ने कहा कि इस किले पर लगा हरा झण्डा हमारे मन को बेचैन कर रहा है उसके बाद शिवाजी महाराज द्वारा कोंढाणा जितनेकी प्रकिर्या शुरू की गयी थी.

      शूरवीर सूबेदार तानाजी के बारेमें कहा जाता है की उसकी मुछे बड़ी भरावदार थी. उसकी मुछ पर दो लिंबू आराम से रख सकते थे. सूबेदार तानाजी मालुसरे का असली नाम ” तान्हाजी ” था.  

किले का संक्षिप्त इतिहास : 

       सिंहगढ़ किला पुणे शहर से लगभग 30 कि.मी.दक्षिण पश्चिम स्थित है. बताया जाता है कि यह किला 2000 साल पहले बनाया गया था. सिंहगढ़ किले को मराठा साम्राज्य की शान के रूप में जाना जाता है. यह किला पहले कोंढाना के नाम से जाना जाता था, जनश्रुति के अनुसार यहां पर प्राचीन काल में ” कौंडिन्य ” अथवा ” श्रृंगी ऋषि ” का आश्रम था.

            इतिहासकारो का मानना है कि महाराष्ट्र के यादवों या शिलाहार के नरेशों में से किसी ने यह कोंढाणा के क़िले को बनवाया होगा. मुहम्मद तुग़लक़ के समय में यह किला ” नागनायक ” नामक राजा के अधिकार में था. जिसने मुहम्मद तुग़लक़ का आठ मास तक सामना किया था. इसके पश्चात अहमदनगर के संस्थापक मलिक अहमद का यहां पर क़ब्ज़ा रहा और उसके बाद में बीजापुर के सुल्तान के कब्जे में रहा था. 

       शिवाजी महाराज के पिता मराठा नेता शहाजी भोंसले जो इब्राहीम आदिल शाह – 1 के सेनापती थे और उन्हें पुणे क्षेत्र का नियंत्रण सौपा गया था लेकिन छत्रपति शिवाजी महाराज को आदिल शाह के सामने झुकना ना मंजूर था , इसलिए उन्होंने स्वराज्य की स्थापना करने का निर्णय लिया और आदिल शाह के सरदार सिद्दी अम्बर को अपने आधीन कर कोंढाना किले को अपने स्वराज्य में शामिल कर लिया. लेकिन सन 1649 में शहाजी महाराज को आदिल शाह के कैद से छुड़ाने के लिए उन्हें इस किले को आदिल शाह को सौपना पड़ा था. 

     इस किले पर सन 1662 – 63 और सन 1665 में मुगलों ने हमला किया था. पुरंदर के माध्यम से सन 1665 में यह किला मुगल सेना प्रमुख “ मिर्जाराजे जयसिंग ” के हाथों में चला गया था. शिवाजी के सरदार तानाजी मालूसरे और उनके सैनिकों ने लड़ाई कर किले पर फिर से कब्जा किया. इस लड़ाई में तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए. तानाजी की याद में उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए शिवाजी महाराज ने इस किले का नाम सिंहगढ़ रख दीया था. 

     संभाजी महाराज की मृत्यु के बाद, मुगलों ने किले का नियंत्रण पुनः प्राप्त किया था. “ सरदार बलकवडे ” की अध्यक्षता में मराठों ने सन 1693 में इसे पुनः कब्जा कर लिया था. 

        सन 1703 में औरंगजेब ने किले को जीत लिया लेकिन सन 1706 में, यह किला एक बार फिर मराठा के हाथों में आ गया. ता : 2 मार्च 1818 में पेशवाओं को हराकर अंग्रेजों ने पुणे सिंहगढ़ किले पर कब्जा जमा लिया इससे पहले खड़की की लड़ाई में पराजय के बाद बाजीराव पेशवा द्वितीय पुणे छोड़ने पर मजबूर हुए थे. जिसके बाद अंग्रेजों ने पेशवाओं का संपत्ति लूटी थी. किले पर कब्जे के बाद अंग्रेजों ने ताबड़तोड़ किले को खाली करवाया और यहीं से मराठा साम्राज्य का पतन हुआ था. 

      इस किले में कल्याण दरवाजे की पीछे वाली पहाड़ी पर मुगलों के किलाधिकारी उदयभान राठोड़ का स्मारक बनाया गया है. तथा यहां पर अमृतेश्वर के पीछे की ओर जाने पर बाईं ओर प्रसिद्ध सूबेदार तानाजी का स्मारक देख सकते हैं. इसका निर्माण सूबेदार तानाजी स्मारक समिति की ओर से किया गया है. माघ वद्या नवमी ता : 4 फरवरी, 1672 को हुई लड़ाई में तानाजी मारे गए थे. सुभेदर तानाजी का स्मारक दिवस हर साल माघ नवमी को मंडल द्वारा मनाया जाता है.

 पुणे नगर के वाकडेवाडी नामक भाग का नाम बदलकर नरबीर तानाजी वाडी किया गया है. इसके अतिरिक्त तानाजी के अनेकों स्मारक बने हुये हैं.

       मुगल सेना को लगातार 11 साल तक टक्कर देने वाले राजाराम महाराज का निधन उम्र के 30 वें साल में 2 मार्च 1700 के दिन सिंहगढ़ पर हुआ था. राजाराम महाराज के निधन के बाद यहां पर उनकी समाधि बनाई गई.

            इसी एेतिहासिक जगह पर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने ” आर्क्टिक्ट होम्स इन दी वेदाज ” इस ग्रंथ का लेखन किया था. लोकमान्य तिलक का गीता रहस्य प्रिंट भी यहीं पर सन 1915 में बनी थी. वहीं गांधीजी और लोकमान्य के बीच उसी साल सिंहगढ़ पर मीटिंग हुई थी.

       इसके बाद नेताजी सुभाषचंद्र बोस भी लोकमान्य तिलक से मिलने सिंहगढ़ आए थे. नेताजी देखना चाहते की तिलक को राष्ट्रवादी की प्रेरणा किस जगह से मिल रही है, नेताजी बोस ने सिंहगढ़ किले के कल्याण दरवाजा के पास एक घंटे तक मेडिटेशन भी किया था.   

        मौसम के बरसात में पुणे के सिंहगढ़ किले का नजारा कुछ प्रेक्षणीय होता है. इस किले पर लाखों टूरिस्ट कोहरा और बरसात का लुत्फ उठाने के लिए हर साल पहुंचते हैं . साल भर यहां टूरिस्ट की भीड़ लगी रहती है. इस किले को ” ” कोंढाणा ” नाम से जाना जाता था. शिवाजी महाराज के सरदार तानाजी मालुसरे ने अपने बेटे की शादी छोड़ कर लड़ाई लड़ी थी. मगर उनकी वीरगति होने के बाद शिवाजी ने उन्हें शेर कहा था, और किले को भी सिंहगढ़ नाम दिया था.

        सिंहगढ़ पहुंचने के लिये पुणे से 32 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण पश्चिम दिशा में मौजूद सिहगढ़ किला समुद्र सतह से करीब 4400 फीट की उंचाई पर है. इस किले से पुरंदर, राजगढ, तोरणा, लोहगढ़, विसापुर और तुंग किले का प्रदेश दिखाई देता है. आप पुणे से स्वारगेट से बस से या प्राइवेट वाहन से भी वहां तकपहुंच सकते हैं. 

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