कोणार्क सूर्य मंदिर भारत के ओड़िशा राज्य के पुरी ज़िले में स्थित है. यह जगन्नाथ मन्दिर से 21 मील उत्तर पूर्व समुद्र तट पर चंद्रभागा नदी के किनारे विध्यमान है. यह सूर्य मन्दिर बहुत प्रसिद्ध है. इस मंदिर की कल्पना सूर्य के रथ के रूप में की गई है. रथ में बारह जोड़े विशाल पहिए लगे हैं और इसे सात शक्तिशाली घोड़े तेजी से खींच रहे हैं. यह एक भारतीय स्थापत्य कला का सुंदर नमूना है.
इस मंदिर के तीन ओर ऊँचे प्रवेशद्वार है. मंदिर का मुख पूर्व सूर्य की ओर है और इसके तीन प्रधान अंग है. (1) देउल ( गर्भगृह ) (2) जगमोहन (मंडप) और (3) नाटमंडप एक ही अक्ष पर हैं. यहां पर आने वाले दर्शनार्थी सबसे पहले दर्शक नाटमंडप में प्रवेश करता है. यह अलंकारों और मूर्तियों से विभूषित ऊँची जगती पर है. जिसकी चारों दिशाओं में सोपान ( STEP ) बने हुये हैं .
नाटमंडप के बाद पर्यटक जगमोहन (मंडप ) की ओर जाता है. जगमोहन और देउल एक ही जगती पर खड़े हैं . जगती के नीचे गजथर बना है जिसमें विभिन्न मुद्राओं में हाथियों के सजीव दृश्य अंकित किये गये है. यहां गजथर के ऊपर मूर्तिया अलंकृत की गई है.
यहां पर देवी देवता, अप्सराओं, किन्नर, गंधर्व, नाग के सिवा नर नारी तथा कामासक्त नायक नायिकाएँ भी प्रचुरता से अंकित की गई हैं. रथ की रचना से, संसार चक्र की परी कल्पना करने के लिये, रथ तथा चौबीस बृहदाकार 9 फुट 8 इंच व्यास के चक्के लगे हैं .
जगती के आगे के भाग में सोपान-पंक्ति है, जिसके एक ओर तीन और दूसरी ओर चार दौड़ते घोड़े बने हैं. ये सात अश्व सूर्यदेव की गति और वेग के प्रतीक माना जाता हैं.
देउल का शिखर नष्ट हो गया है , मगर जगमोहन अभी भी सुरक्षित है और बाहर से 100 फुट लंबा चौड़ा और इतना ही ऊँचा है. भग्न अवशेष से अनुमान लगाया जा सकता है , कि देउल का शिखर 200 फुट से भी अधिक ऊँचा रहा होगा. गर्भगृह के तीनों भद्रों में गहरे देवकोष्ठ बने हैं जिनमें सूर्यदेव की अलौकिक आभामय पुरूषाकृति मूर्तिया रखी हैं.
ऊपर की ओर विशाल घंटा और चोटी पर आमलक रखा है. स्त्री मूर्तियों के कारण इस शिखर में अद्भुत सौंदर्य के साथ, का भी संचार हुआ है जो इस जगमोहन की विशेषता है.
माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण गंग वंश के नरेश नरर्सिह देव (प्रथम) ने सन 1238 से 1264 के बिच, अपने एक विजय के स्मारक स्वरूप बनाया था. इसके निर्माण में 1200 स्थपति ने 12 वर्ष तक निरंतर काम किया था. बताया जाता है कि इस मंदिर में उड़ीसा राज्य के बारह वर्ष की समुची आय लगी थी.
कुछ लोग मानते है कि इसे केसरी वंश के किसी नरेश ने निर्माण किया था. बाद में उड़ीसा के राजा नरसिंह देव ने उसको नया रूप दिया था. इस मंदिर के निर्माण के लिये दूर दूर से पत्थर लाये गये थे. मंदिर के संबंध में एक स्थानीय जनश्रुति है कि मंदिर के शिखर में कुंभर पाथर नामक चुंबकीय शक्ति से युक्त पत्थर लगा था. उसके प्रभाव से इसके निकट से समुद्र में जानेवाले जहाज और नौकाएँ खिंची चली आती थीं और टकराकर नष्ट हो जाती थीं.
कुछ लोगोंका मानना है कि आक्रमणकारी मुसलमान ने इस मंदिर को ध्वस्त किया था. मगर कुछ अन्य लोग इसके ध्वंस का कारण भूकंप बताते हैं.
इस पवित्र स्थान का उल्लेख वराहपुराण कपिल संहिता, ब्रह्मपुराण , सांबपुराण , भविष्यपुराण , आदि में मिलता है.
मंदिर के भीतर एक नृत्यशाला और दर्शकों के लिए एक हॉल है. कई नक्काशियां, विशेषकर मुख्य प्रवेश द्वार पर पत्थरों से निर्मित हाथियों को मारते दो बड़े सिंह आपको मंदिर निर्माण के उस काल में ले जाकर आश्चर्य चकित करके भावुकता से भर देंगे. निर्माण कार्य में बहुत विचार-विमर्श किया गया है . प्रत्येक मूर्ति बनाने में हाथ के कौशल और दिमाग की चतुराई का इस्तेमाल किया गया है. सूर्य देव की तीन सिरों वाली आकृति आपको इस बात का उदाहरण देगी. सूर्य देव के तीनों सिर विभिन्न दिशाओं में हैं, जो सूर्योदय, उसके चमकने और सूर्यास्त का आभास देते हैं. इस मूर्ति के भाव बदलते दीखते है. सुबह के समय मूर्ति मे स्फूर्ति और सायंकाल के समय उसमे थकान के भाव देखनेको मिलते है.
मंदिर परिसर के दक्षिण पूर्वी कोने में सूर्य देव की पत्नी माया देवी को समर्पित एक मंदिर है. यहां नव ग्रहों वाला मतलब सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, जूपिटर, शुक्र, शनि, राहू और केतू को समर्पित मंदिर भी है.
कोणार्क शब्द , कोण और अर्क शब्दों से बना है. अर्क का अर्थ होता है, ” सूर्य ” जबकि कोण का मतलब कोने या किनारे से होता है. अर्थात इसे हम किनारे ( चंद्र भागा नदी ) पर बसा सूर्य मंदिर कह सकते है.
ऐसा कहा जाता है कि कोणार्क सूर्य मंदिर को पहले समुद्र के किनारे बनाया जाना था लेकिन समुद्र धीरे-धीरे कम होता गया और मंदिर भी समुद्र के किनारे से थोडा दूर हो गया. मंदिर गहरे रंग के पत्थर से बना है इसीलिए लिये इसे काला पगोडा कहा जाता है.
यूनेस्को (UNESCO) की विश्व धरोहर कोणार्क सूर्य मंदिर भगवान श्री सूर्य देव को समर्पित है. यह मंदिर कलिंग वास्तुकला की उपलब्धि के सर्वोच्च बिंदु को अनुग्रह, खुशी एवं जीवन दर्शन की अतरंगी शैली को दर्शाता है.
कोणार्क सूर्य मंदिर के अरुण स्तंभ एवं भगवान सूर्य देव की मूर्ति को जगन्नाथ धाम मंदिर पुरी के सिंह द्वार पर स्थापित किया गया है, तथा मुख्य मूर्ति भगवान सूर्य देव को भी वहीं स्थापित किया है.
कोणार्क को सूर्य देवालय भी कहा जाता है, यह कलिंग वास्तुकला तथा ओडिशा वास्तुकला शैली का एक उत्कृष्ट उदाहरण है. यूरोपीय नाविक खातों में, इस मंदिर को 1676 की शुरुआत में ब्लैक पैगोडा कहा जाता था क्योंकि इसका श्रेष्ठ शिखर लाल काला दिखाई देता है. यह हिंदुओं के लिए एक प्रमुख तीर्थ स्थल है, यहाँ प्रत्येक वर्ष फरवरी के महीने में चंद्रभागा मेले का आयोजन किया जाता है.
कोणार्क सूर्य मंदिर के निचले भाग की तुलना मे ऊपरी भाग एवं छत मे कला के बड़े और अधिक महत्वपूर्ण कार्य किए गये हैं, जिस के अंतर्गत संगीतकारों और पौराणिक व्याख्यानों के साथ-साथ हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियां भी शामिल हैं, हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों मे मायावी दैत्य महिषासुर का वध करती हुई माता दुर्गा (शक्तिरूप), विष्णु अपने जगन्नाथ रूप मे (वैष्णववाद) एवं अत्यधिक क्षतिग्रस्त शिव (शैव) हैं.
सूर्य मंदिर पूर्व की ओर उन्मुख है ताकि सूर्योदय की पहली किरणें इसके मुख्य द्वार को सर्वप्रथम स्पर्श करें. यह खोंडालिट चट्टानों से बनाया गया मंदिर है, कोणार्क सूर्य मंदिर मूल रूप से चंद्रभागा नदी के मुहाने पर बनाया गया था, परंतु तब से अब तक नदी की जलरेखा ने अपना स्थान परिवर्तित कर लिया है. रथनुमा आकर से बने मंदिर के पहिए सूर्य-घड़ी का कार्य करते हैं, जो कि एक मिनट के समय की भी सटीक गणना करने मे सक्षम हैं.
वर्तमान 10 रुपए के नये नोट में देश की सांस्कृतिक विरासत को दर्शाते हुए, सूर्य मंदिर के चक्र को नोट की पिछली ओर दर्शाया गया है
सूर्य की पूजा करने के लिए हिंदू धर्म के वेदों में बताया गया है. हर प्राचीन ग्रंथों में सूर्य की महत्ता का वर्णन किया गया है. कहा जाता है सूर्य भगवान की आराधना करने से शरीर में सकारात्मक ऊर्जा आती है. हिंदू धर्म के सूर्य ही एक ऐसे देवता हैं जो प्रत्यक्ष रूप से आंखों के सामने हैं.
ओडिशा में स्थित कोणार्क का सूर्य मंदिर भगवान सूर्य को समर्पित है. ये मंदिर भारत की प्राचीन धरोहरों में से एक है, इस मंदिर की भव्यता के कारण ये देश के सबसे बड़े 10 मंदिरों में गिना जाता है.
कोणार्क का सूर्य मंदिर ओडिशा राज्य के पुरी शहर से करीब 23 मील दूर चंद्रभागा नदी के तट पर स्थित है. इस मंदिर को पूरी तरह से सूर्य भगवान को समर्पित किया गया है इसीलिए इस मंदिर का संरचना इस प्रकार की गई है जैसे एक रथ में 12 विशाल पहिए लगाए गये हों और इस रथ को 7 ताकतवर बड़े घोड़े खींच रहे हों और इस रथ पर सूर्य देव को विराजमान दिखाया गया है. मंदिर से आप सीधे सूर्य भगवान के दर्शन कर सकते हैं. मंदिर के शिखर से उगते और ढलते सूर्य को पूर्ण रूप से देखा जा सकता है. जब सूर्य निकलता है तो मंदिर से ये नजारा बेहद ही खूबसूरत दिखता है.
यह विशाल मन्दिर के बारह चक्र साल के बारह महीनों को परिभाषित करते हैं तथा प्रत्येक चक्र आठ अरों से मिल कर बना है, जो अर दिन के आठ पहरों को दर्शाते हैं. यहां पर स्थानीय लोग प्रस्तुत सूर्य भगवान को बिरंचि नारायण कहते थे. यह मंदिर अपनी अनूठी वास्तुकला के लिए दुनियाभर में मशहूर है और ऊंचे प्रवेश द्वारों से घिरा है. इसका मूख पूर्व में उदीयमान सूर्य की ओर है और इसके तीन प्रधान हिस्से- देउल गर्भगृह, नाटमंडप और जगमोहन (मंडप) एक ही सीध में हैं. सबसे पहले नाटमंडप में प्रवेश द्वार है. इसके बाद जगमोहन और गर्भगृह एक ही जगह पर स्थित है.
इस मंदिर का एक रहस्य भी है जिसके बारे में कई इतिहासकरों ने जानकारी इकट्ठा की है. पुराणानुसार कहा जाता है कि श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब को श्राप से कोढ़ रोग हो गया था. उन्हें ऋषि कटक ने इस श्राप से बचने के लिये सूरज भगवान की पूजा करने की सलाह दी थी. साम्ब ने मित्रवन में चंद्रभागा नदी के सागर संगम पर कोणार्क में बारह वर्ष तपस्या की और सूर्य देव को प्रसन्न किया था
कोणार्क मंदिर के बारेमें कहा जाता है यहां आज भी नर्तकियों की आत्माएं आती हैं. कोणार्क के पुराने लोगों की मानें तो आज भी यहां आपको शाम में उन नर्तकियों के पायलों की झंकार सुनाई देगी जो कभी यहाँ यहां राजा के दरबार में नृत्य करती थीं.
कोणार्क मंदिर एक सुंदर और बहुत प्रसिद्ध ऐतिहासिक, धार्मिक पर्यटक स्थल है. यह एक विश्व धरोहर स्थल है. सूर्य देवता को समर्पित इस मंदिर का विशेष आकर्षक यहां होने वाला ” कोणार्क नृत्य महोत्सव ” है.
कोणार्क मंदिर के रंगभूमि में नृत्य उत्सव होता है. यहा होने वाला त्यौहार अलग अलग नृत्य रूपों को मनाने और पर्यटकों को प्रतिभा दिखाने के लिए जाना जाता है.
कोणार्क नृत्य और संगीत समारोह की स्थापना पदमश्री गुरु गंगाधर प्रधान ने की थी. इसका मुख्य उद्देश्य भारतीय शास्त्रीय नृत्य को पहचानना और विकसित करना था, जो भारत की अभिन्न विरासत में से एक है,
पहला कोणार्क नृत्य महोत्सव सन 1989 में ओडिसी गुरु और कोणार्क नृत्य महोत्सव के संस्थापक पदमश्री गुरु गंगाधर प्रधान द्वारा आयोजित किया गया था.
कोणार्क नृत्य महोत्सव के मुख्य आकर्षण मे यहां भारत के पारंपरिक शास्त्रीय और हिंदुस्तानी संगीत के साथ भरत नाट्यम, ओडिसी, मणिपुरी, कथक, कुचिपुड़ी जैसे भारतीय शास्त्रीय नृत्य रूपों के रूप में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध कलाकार इस महोत्सव में अपनी श्रेष्ठ प्रतिभा को बिखेरते हैं.
इस महोत्सव में आपको बिहार, ओडिशा, गुजरात, राजस्थान के अलग-अलग नृत्य के साथ आदिवासी नृत्य के रूप भी देखने को मिलेंगे. इसके अलावा, प्रतिभाशाली कलाकारों द्वारा बांसुरी, ढोल, तबला, वीणा के मधुर संगीत का भी कार्यक्रम होता है.
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