दुर्वासा ऋषि अपने क्रोध के लिये जाने जाते है. क्रोध आनेपर वो किसीको भी श्राप दे देते थे. वे सतयुग, त्रेता एवं द्वापर तीनों युगों के प्रसिद्ध सिद्ध योगी महर्षि माने जाते है. दुर्वासा ऋषि को भगवान शिवजी का अवतार माना जाता है. इनके जन्म की कहानी इस प्रकार है.
भगवान ब्रह्माजी के मानस पुत्र अत्रि और उनकी पत्नी अनुसूया की तपस्या से खुश होकर भगवान ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी तीनों ने उन्हें दर्शन दिए और वरदान मांगने के लिये कहां. भगवान के कहने पर अत्रि और अनुसूया ने तीनों देवों को अपने पुत्रों के रूप में जन्म लेने का वरदान मांगा. इसी वरदान के फलस्वरूप भगवान ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, विष्णु के अंश से दत्तात्रेय और शिवजी के अंश से दुर्वासा का जन्म हुआ. ऋषि दुर्वासा भगवान शिवजी के रुद्र रूप से उत्पन्न हुए थे, इसलिए वे अधिक क्रोधी स्वभाव के थे. भगवान शिव के अवतार ऋषि दुर्वासा का विस्तार से वर्णन कई पुराणों तथा ग्रंथों में मिलता है.
पौराणिक कथा के अनुसार दुर्वासा ऋषि भगवान श्री कृष्ण के कुलगुरु थे. श्री कृष्ण दुर्बासा ऋषि का आदर और सम्मान करते थे. विवाह के बाद भगवान श्री कृष्ण रुक्मिणी को कुलगुरु का आर्शीवाद दिलाने दुर्वासा ऋषि के आश्रम ले गए. दुर्वासा ऋषि का आश्रम द्वारका से कुछ दूरी पर है.
दोनों ने आश्रम पहुंचकर दुर्वासा ऋषि का आर्शीवाद लिया और उसे भोजन ग्रहण करने महल आनेका निमंत्रण दिया. जिसे दुर्वासा ऋषि ने स्वीकार किया. लेकिन एक शर्त रखी कि जिस रथ से भगवान श्री कृष्ण और रुक्मिणी आए हैं उस रथ से महल नहीं जाएंगे. वे तभी महल में जाएंगे जब उनके लिए नया रथ मंगाया जाएगा.
दोनों ने शर्त मान ली और भगवान ने नए रथ का प्रबंध कर दिया. लेकिन एक ही रथ होने की वजह से भगवान कृष्ण ने रथ के दोनों घोड़ों को निकाल दिया और उनकी जगह श्री कृष्ण और रुक्मणी स्वयं रथ में जुत गए.
दोनों ने दुर्वासा ऋषि को रथ पर स्वार होनेकी प्रार्थना की. दुर्वासा ऋषि रथ पर सवार हो गए और भगवान श्रीकृष्ण और रुक्मणी मिलकर रथ को खींचने लगे. लंबी दूरी तय करने के बाद रुक्मिणी को प्यास लगी. रुक्मिणी का गला सूखने लगा और वे परेशान होने लगीं. तब भगवान कृष्ण ने रुक्मिणी की प्यास बुझाने के लिए जमीन पर अपने पैर का अंगूठा मारा, जिससे जल का श्रोत फूट पड़ा. जिससे रुक्मणी ने अपनी प्यास शांत की इसके बाद रुक्मिणी ने भगवान कृष्ण से भी थोड़ा जल पीने का आग्रह किया. भगवान श्री कृष्ण ने भी जल ग्रहण किया.
इससे दुर्वासा ऋषि बेहद नाराज हो गए. वे क्रोध में आ गए और बोले की तुम दोनों ने अपनी प्यास बुझा ली लेकिन मुझसे पूछना भी उचित नहीं समझा. तब क्रोध में आकर दुर्वासा ऋषि ने भगवान श्री कृष्ण और देवी रुक्मणी को 12 साल तक अलग रहने का शाप दे दिया. इस शाप से दोनों को बहुत दुख हुआ. शाप के कारण भगवान श्री कृष्ण और रुक्मिणी को अलग होना पड़ गया. शाप से मुक्त होने के लिए रुक्मिणी ने भगवान विष्णु की कठिन तपस्या की और जिसके बाद वे शाप से मुक्त हुईं.
दुर्वासा ऋषि अपने क्रोध के कारण मशहूर है तो दूसरी तरफ लोगों को वरदान देने के लिये प्रसिद्ध है. महाभारत में ऐसी बहुत सी कथाएं है, जहाँ ऋषि दुर्वासा ने अनेक लोगोंको वरदान भी दिए है. ऐसी ही एक कथा कुंती और दुर्वासा से जुड़ी है. कुंती एक जवान लड़की थी, जिसे राजा कुंतीभोज ने गोद लिया हुआ था. राजा अपनी बेटी को एक राजकुमारी की तरह रखते थे. दुर्वासा एक बार राजा कुन्तिभोज के यहाँ मेहमान बनकर गए. वहां कुंतीने मन से ऋषि की सेवा की.
ऋषि दुर्वासा कुंती की इस सेवा से बहुत खुश हुए, और जाते वक्त उन्होंने कुंती को अथर्ववेद मन्त्र के बारे में बताया, जिससे कुंती अपने मनचाहे देव से प्राथना कर संतान प्राप्त कर सकती थी. मन्त्र कैसे काम करता है, ये देखने के लिए कुंती शादी से पहले सूर्य देव का आह्वान करती है, तब उन्हें कर्ण प्राप्त होता है, जिसे वे नदी में बहा देती है. फिर इसके बाद उनकी शादी पांडू से होती है, आगे चलकर इन्ही मन्त्रों का प्रयोग करके पांडव का जन्म हुआ था.
पुराणों और महाभारत दुर्वासा ऋषिका वर्णन मिलता है. दुर्वासा जी कुछ बड़े तो माता-पिता से आदेश लेकर उसने अन्न जल त्याग कर कठोर तपस्या की. उन्होंने यम-नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान-धारणा आदि अष्टांग योग का अवलम्बन कर के योग-सिद्धियां प्राप्त की. और सिद्ध योगी कहलाये. बादमे यमुना किनारे इसी स्थल पर एक आश्रम का निर्माण किया और यहीं पर से भ्रमण भी किया.
आप लोगोंकी जानकारी के लिये यहां पर गुरूजी पवन सिन्हा द्वारा बताये गए ऋषियों के 21 प्रकार को उनके सौजन्य से यहां पर प्रस्तुत करता हूं.
(1) वैखानस : ऋषियों का यह समूह ब्रह्मा जी के नख से उत्पन्न हुआ था.
(2) वालखिल्य : ऋषियों का यह समूह ब्रह्मा जी के रोम से प्रकट हुआ था.
(3) संप्रक्षाल : ऋषियों का यह समूह भोजन के बाद बर्तन धोकर रख देते है, दूसरे समय के लिए कुछ नहीं बचाते हैं.
(4) मरीचिप : सूर्य और चन्द्र की किरणों का पान करके यह लोग रहते हैं.
(5) बहुसंख्यक अश्म्कुट : कच्चे अन्न को पत्थर से कूटकर खाते हैं.
(6) पत्राहार : मात्र पत्तों का आहार करते हैं.
(7) दंतोलूखली ‘ दांतों से ही ऊखल का काम करते हैं.
(8) उन्मज्ज्क : कंठ तक पानी में डूब कर तपस्या करते हैं.
(9) गात्रशय्य- शरीर से ही शय्या का काम लेते हैं, भुजाओं पर सिर रख कर सोते हैं.
(10) अश्य्य : शय्या के साधनों से रहित, सोने के लिए नीचे कुछ भी नहीं बिछाते हैं.
(11) अनवकाशिक : निरंतर सत्कर्म में लगे रहते हैं और ये कभी छुट्टी नहीं लेते हैं. सामाजिक परिवर्तन और विकास करते हैं.
(12) सलिलाहार : जल पीकर रहते हैं.
(13) वायुभक्ष- हवा पीकर रहते हैं.
(14)आकाश निलय: खुले मैदान में रहते हैं, बारिश होने पर वृक्ष के नीचे पनाह ले लेते हैं.
(15) स्थनिडन्लाशाय : ये ऋषि वेदी पर सोने वाले होते हैं.
(16) उर्ध्व्वासी : ये ऋषि पर्वत,शिखर या ऊंचे स्थानों पर रहने वाले होते हैं.
(17) दांत : ये ऋषि मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले होते हैं.
(18) आद्रपटवासा : ऋषियों के ये समूह हमेशा भीगे कपड़े पहनता है.
(19) सजप- ऋषियों के ये समूह हमेशा और निरंतर जप करते रहते हैं.
(20) तपोनिष्ठ- ऋषियों के ये समूह हमेशा तपस्या या ईश्वर के विचारों में स्थित रहने वाले होते हैं.
(21) प्रशिक्षक : 21वें ऋषि वे होते हैं जो आश्रम बनाकर रहते हैं और आश्रम में प्रशिक्षण देते हैं.
——-===शिवसर्जन ===——-