जनेऊ को संस्कृत भाषा में यज्ञोपवीत कहा जाता है. यह तीन धागों वाला सूत से बना पवित्र धागा होता है, जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है. अर्थात् इसे गले में इस तरह डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे. धार्मिक दृष्टि से माना जाता है कि जनेऊ धारण करने से शरीर शुद्घ और पवित्र होता है.
जनोई का नाम सुनतेही हमें ब्राह्मण याद आते है. मगर वास्तविकता ये है कि हर हिंदू जनोई पहन सकता है. बशर्त इसके लिये, जनोई के नियमों का चुस्त पालन करना होता है.
जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है. द्विज का अर्थ होता है , ” दूसरा जन्म ” मतलब जनेऊ संस्कार के बाद ही शिक्षा का अधिकार मिलता था और जो शिक्षा नही ग्रहण करता था उसे वर्ण व्यवस्था के अनुसार शूद्र वर्ण की श्रेणी में रखा जाता था.
धार्मिक दृष्टि से माना जाता है कि जनेऊ धारण करने से शरीर शुद्घ और पवित्र होता है. शास्त्रों अनुसार आदित्य, वसु, रुद्र, वायु, अग्नि, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य देवताओं का निवास दाएं कान में माना गया है.जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र के नाम से भी जाना जाता है.
अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदला जाता है.आपको जानकारी के लिये बता दू कि अविवाहित व्यक्ति तीन धागों वाला जनेऊ पहनते हैं जबकि विवाहितों को छह धागों वाला जनेऊ धारण करना होता है. जनेऊ में मुख्यरूप से तीन धागे होते हैं. यह तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक होते हैं और यह सत्व, रज और तम का प्रतीक है.
जिस लड़की को आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना हो, वह जनेऊ धारण कर सकती है. ब्रह्मचारी तीन और विवाहित छह धागों की जनेऊ पहनता है. यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के बतलाए गए हैं.
यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है. इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं. ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है. तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है. तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं.अपवित्र होने पर जनोई बदला जाता है.बिना यज्ञोपवीत धारण किये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता.
हिन्दू धर्म के 24 संस्कारों में 16 प्रधान संस्कार है, तथा 8 उप संस्कार हैं, इनमे से एक उपनयन संस्कार के अंतर्गत ही जनेऊ पहनी जाती है, जिसे यज्ञोपवीत धारण करने वाले व्यक्ति को सभी नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है. उपनयन का शाब्दिक अर्थ है, “सन्निकट ले जाना” और उपनयन संस्कार का अर्थ है , ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना.
जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल होती है क्यूंकि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए. 32 विद्याएं चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर होती है. 64 कलाओं में वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, साहित्य कला, चित्रकारी, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, दस्तकारी कढ़ाई, बुनाई, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि आती हैं.
मल-मूत्र विसर्जन के दौरान जनेऊ को दाहिने कान पर चढ़ा लिया जाता है. इसका मूल भाव यह है कि जनेऊ कमर से ऊंचा हो जाए और अपवित्र न हो. यह जरूरी होता है.
जनेऊ के हृदय के पास से गुजरने से यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है, क्योंकि इससे रक्त संचार सुचारू रूप से संचालित होने लगता है. दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है. मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है.
बार-बार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से ऐसे स्वप्न नहीं आते. जनेऊ को दायें कान पर धारण करने से कान की वह नस दबती है, जिससे मस्तिष्क की कोई सोई हुई तंद्रा कार्य करती है. जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति सफाई नियमों में बंधा होता है. यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचाती है.
दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है. मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है.कान पर जनेऊ लपेटने से पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से बचाव होता है. कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है.
जनोई की कुछ रोचक बातें :
*** जनेऊ धारण करने से पूर्व जन्मों के बुरे कर्म नष्ट हो जाते हैं.
*** जनेऊ यानि दूसरा जन्म (पहले माता के गर्भ से दूसरा धर्म में प्रवेश से) माना गया है.
*** उपनयन यानी ज्ञान के नेत्रों का प्राप्त होना, यज्ञोपवीत याने यज्ञ, हवन करने का अधिकार प्राप्त होना.
*** जनेऊ के तीन धागे माता-पिता की सेवा और गुरु भक्ति का कर्तव्य बोध कराते हैं.
*** जनेऊ धारण करने से आयु, बल, और बुद्धि में वृद्धि होती है.
*** जनेऊ धारण करने से शुद्ध चरित्र और जप, तप, व्रत की प्रेरणा मिलती है.
*** जनेऊ से नैतिकता एवं मानवता के पुण्य कर्तव्यों को पूर्ण करने का आत्म बल मिलता है.
*** यज्ञोपवीत संस्कार बिना विद्या प्राप्ति, पाठ, पूजा अथवा व्यापार करना सभी निरर्थक है.
*** शास्त्रों के अनुसार ब्राह्मण बालक 09 वर्ष, क्षत्रिय 11 वर्ष और वैश्य के बालक का 13 वर्ष के पूर्व संस्कार होना चाहिये और किसी भी परिस्थिति में विवाह योग्य आयु के पूर्व अवश्य हो जाना चाहिये.
*** जनेऊ के तीन धागों में 9 लड़ होती है, फलस्वरूप जनेऊ पहनने से 9 ग्रह प्रसन्न रहते हैं.
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