महालक्ष्मी माता मंदिर पालघर जिले के डहाणू क्षेत्र मे राष्ट्रीय महामार्ग आठ पर चारोती नाका से करीब 3 से 4 किलो मीटर की दूरी पर स्थित है. महालक्ष्मी माता स्थानीय आदिवासीयों की पारिवारिक माता हैं.
हर साल श्री हनुमान जयंती चैत्र पूर्णिमा से पंद्रह दिनों तक यहां भव्य मेले का आयोजन हर्षोल्लास के साथ किया जाता है. जिसे ” महालक्ष्मी यात्रा ” कहा जाता है. मेले के दौरान यहां लाखों श्रद्धालु ओकी भीड़ देखी जाती है. जो यहां महाराष्ट्र, गुजरात तथा पुरे भारत भरसे आती है.
मेले के दिन दर्शन के लिये लंबी लाइन लगती है, जहां माताजी का दर्शन के लिये तीन चार घंटा रुकना पड़ता है. श्री महालक्ष्मी मंदिर सतवी तथा बोलडे परिवार ट्रस्टी बोर्ड द्वारा संचालन किया जाता है. श्री महालक्ष्मी माताजी स्थानीय आदिवासियों की ” कुलदेवी ” हैं.
महालक्ष्मी मंदिर डहाणू के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है. ये माता महालक्ष्मी जी को समर्पित है. महालक्ष्मी माता का मुख्य मंदिर लगभग 3 से 4 किलोमीटर की दूरी पर करीब 400 फीट की ऊंचाई पर स्थित है. वहां पहुंचने के लिये 900 सीढ़िया चढ़नी पडती है.
यहां पर पारम्पारिक रिवाजो के अनुसार खेत की पहली फसल से महालक्ष्मी की पूजा की जाती है. पितृ मावस्या के दिन यहां आदिवासी लोगों का मेला लगता है. यहां के सभी किसान अपने खेत में पैदा होने वाले धन धान्य बाजरा, गोभी, ककड़ी, सहित विविध प्रकार की सब्जी तथा फल चढ़ाकर माता महालक्ष्मी जी की पूजा अर्चना करते हैं. उनका मानना है कि मां को खेत की फसल अर्पित करने से उनके घर में सुख और शांति तथा पैदावार में बरकत होती है.
मान्यता है, कि प्राचीन काल में एक बार महालक्ष्मी माता कोल्हापुर से भ्रमण करते गुजरात की और जा रही थी. उस समय पांडव वनवास काट रहे थे. मां जब डहाणू के पास पहुंचीं तो बहुत रात हो गई थी, उस समय उनकी मुलाकात भीम से होती है. भीम ने सोलह सिंगार सजी हुई मां के सुंदर रूप को जब देखा तो वे उन पर मोहित हो गए. उन्होंने मां के सामने शादी का प्रस्ताव रखा.
माता उसकी नियत जान गई. और माता जी ने कहा, कि अगर एक ही रात में सूर्या नदी को बांध दोगे तो मैं आपसे शादी के लिये राजी हो जाउंगी. ये सुनकर भीम ने नदी पर बांध बनाना शुरू कर दिया. मां को लगा कि अब अनहोनी होनेवाली है तो उन्होंने मुर्गे का रूप धारण कर कुकडूं कूं की आवाज लगाई. भीम ने सोचा कि सुबह हो गई और वह अपनी हार मान कर वहां से लौट गये.
उसके बाद मां रानशेत के पास स्थित भूसल पर्वत की एक गुफा में जाकर बैठ गईं. तबसे आज तक यहां पर शक्ति रूपेण बिराजमान है.
एक समय की बात है, एक आदिवासी गर्भवती महिला मां के दर्शन के लिए आ रही थी, जब उसने पहाड़ पर उपर जानेकी शुरुआत की तो उसे चक्कर आ गया. वह बेहोश होकर वहां गिर गई.उसकी भक्ति भाव से माता वही पर प्रकट हुई. और उस महिला को दर्शन दिया तथा वही वलवेढे गांव में बस गईं.
चैत्र नवरात्रि में यहां माता जी को ध्वज चढ़ाने की वर्षो पुरानी परंपरा है. जव्हार के तत्कालीन राजा मुकने घराने का ध्वज ही मां के मंदिर पर चढ़ाया जाता है. उस ध्वज को वाघाडी गांव के पुजारी फहराते चढ़ाते हैं. उसको देखने अपार भीड़ उमड़ पडती है. पुजारी बीना रुके दौड़ते हुए उपर मंदिर के शिखर पर माताजी का ध्वज फ़रहाते है. बताया जाता है की इस विधिको पुरा करने के लिये पुजारी को साल भर पूजा पाठ करना पड़ता है.
नवरात्रि उत्सव के दौरान यहां पर भक्तों का ताता लगता है. लोग दूर-दूर से यहां आकर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. तथा उन्हें श्रद्धा पूर्वक नारियल, फूल और मिठाई धारण करते है. उत्सव के दौरान माताजी के दर्शन के लिये
” तरपा ” नृत्य करते हैं. जो आदिवासी ओका पारम्पारिक नृत्य है. जो प्रेक्षणीय होता है.
वहां तक पहुंचने के लिये मुंबई से डहाणू रोड तक रेल्वे लोकल मार्ग से डहाणू स्टेशन पहुंचने के बाद ऑटो रिक्शा से आप मंदिर तक पहुंच सकते है. मुंबई से डहाणू रोड का अंतर 65 किलोमीटर है. मुंबई से निजी वाहन या बाइक द्वारा आप महालक्ष्मी मंदिर तक आसानीसे पहुंच सकते है. रोड मार्ग से मुंबई से डहाणू महालक्ष्मी मंदिर करीब 100 किलो मीटर की दुरी पर है. यह मंदिर महामार्ग की बिलकुल नजदीक है.
यहां पर वार्षिक होने वाले उत्सव के दौरान मेले में विविध प्रकारकी दुकान लगाई जाती है. खिलोने वालों से खाद्य पदार्थ, आभुषण तथा कपड़ो की तथा अन्य सेकड़ो दुकाने दिखाई देती है.
मांसाहारी लोगों के लिये यहां ” चिकन भुजिंग ” भुना हुआ मुर्गी का मांस पसंदीदा भोजन है. देवी के दर्शन के बाद लोग यहां गुमते फिरते नजर आते है. ये मेला रात भर चलता है. यहां वाहन पार्किंग के लिये पे एंड पार्क की व्यवस्था है.
——-===शिवसर्जन ===–