भाईंदर की पुरानी यादें | Part XXIV – घोड़बंदर काशीमीरा – चैना

साठ के दशक मे मिरा भाईंदर क्षेत्र के घोड़बंदर काशीमीरा – चैना के आदिवासी लोगोंकी परिस्थिति विकट थी. पिनेका पानी तो पर्याप्त मिल जाता था. पानी की इतनी किल्लत नहीं थी. विहिर – बावड़ी, कुआ मुख्य श्रोत था. दूसरा कोई पर्याय नहीं था. फ़िरभी तत्कालीन बस्ती को देखते काम चल जाता था.

गरीबी इतनी थी की इनकम का कोई श्रोत नहीं था अतः कुछ लोग भाईंदर से आगे गईं खाड़ी मे मच्छी पकड़ने का काम करते थे. तो बाकी के लोग जंगल की लकड़ी काटकर, आठ, दस किलोमीटर पैदल चलकर, माथे पर बोजा रखकर भाईंदर गांव तक बेचने के लिये आते थे.

चैना के घने जंगलो मे बाग, चिता आदि जंगली जानवरो को सदा डर बना रहता था. सन 1975 तक तुंगारेश्वर की पहाड़ी पर जंगली जानवर घूमते दिखाई पड़ते थे. सदानंद बाबा आश्रम आने जाने भाविक भक्तों ने कई बार बाघ को घूमते देखा था.

गैस का जमाना तब नहीं था. लोग लकड़ी का चूल्हा जलाते थे. स्टोव – प्राइमस लक्ज़री आइटम मानी जाती थी. जो साधन सम्पन्न लोग रखते थे. कई लोग ऐसे थे के उन्हें स्टोव के लिये केरोसिन खरीदना महंगा लगता था, वो लोग स्थानिक मेंग्रोव के पेड़ काटकर गावठी मिट्टीका चुला बनाकर अपना खाना पकाते थे.

भाईंदर पश्चिम आवर लेडी ऑफ़ नाजरेथ स्कूल के बाहर गंगाराम पानवाला की पटरे की छोटी दुकान के ठीक पीछे धरम शाला थी. जहा पर देशाटन करने वाले साधु , संत, या फिर बेसहारे भिखारी रात गुजारने आश्रय लेते थे. त्यौहारो के दिन धरम शाला प्रांगण मे मराठी नाटक का मंचन होता था. तो कभी 16 एम एम प्रोजेक्टर के द्वारा हिंदी फ़िल्म दिखाई जाती थी. तो कभी कठपुतली के खेल दिखाई जाते थे. वहां सार्वजनिक गणेशउत्सव भी भक्ति भाव से होता था.

भाईंदर का मानवता वादी मसीहा स्व: जनार्दन रकवी जी वहां पर पड़ी लावारिस लाशो को ग्राम पंचायत की हाथ गाड़ी मे डालकर , खुद भाईंदर पश्चिम की स्मशान भूमि मे अकेला ले जाकर अग्नि दाह देते थे.

साठ, सत्तर के दशक मै काशीमीरा घोड़बंदर के घने जंगलों मे शेर , चित्ता जैसे खतरनाक , खौफनाक जंगली जानवर पाए जाते थे. सन 1971 मे आगरी, माछी समाज और वारकरी समाज का श्रद्धेय महात्मा 12 वर्षीय श्री बाल योगी सदानंद महाराज जी सन्यासी बनकर तुंगारेश्वर पहाड़, परशुराम कुंड स्थित रहने गये तब मुंबई – अमदावाद महा मार्ग निर्माण का कार्य जंगलों को चीरकर तेजी से आगे बढ़ रहा था. जो आज राष्ट्रीय महामार्ग के रूपमें अस्तित्व मे है.

उस समय वहां पर जंगली जानवरो का राज था. सदानंद बाबा के कई भक्तों ने शेर को नजदीक से आते,जाते देखा है. तब काशीमीरा से भाईंदर तक का कच्चा मिट्टी और पत्थर से बना रोड था.

मिरारोड ईस्ट वेस्ट मे दूर दूर तक मानव वसाहत नहीं थी सिर्फ मिरा रोड पश्चिम मे कस्टम चाल के नजदीक सात आठ माछी समाज के झोपड़े थे. मीरारोड पूर्व मे खेती की जमीन और पश्चिम मे नमक आगर और मैन्ग्रोव युक्त खार लेंड की जमीन एस्सल वर्ड तक फैली थी. जो आज भी मौजूद है.

साठ के दशक मे भाईंदर पश्चिम मैन्ग्रोव के जंगल मे गावठी दारु के अड्डे ( भठ्ठी )धड़ल्ले से चलते थे जो राई, मोरवा के उत्तरीय छोर पर भाईंदर खाड़ी तट पर, एवं मोरवा गांव की दक्षिण दिशा मे एस्सल वर्ड के समीप स्थित जंगलों मे होती थी. यहासे दारु मुंबई मे पहुंचाया जाता था.

पूर्व पश्चिम वाहनों के आवागमन के लिये फाटक स्थित एक मात्र कच्चा रास्ता था. जिसको ट्रैन आनेसे पांच मिनट बंद कर दीया जाता था. कभी कभी तो यहां पर ट्रैफ़िक जाम होकर लम्बी लाइन लग जाती थी.

पांजू गांव वाले को ब्रिटिश कालीन पुराना ब्रिज या नायगाव का पुराना ब्रिज के उपर से पैदल चलकर आना जाना पड़ता था. उस समय उन लोगों के लिये जलसेवा उपलब्ध नहीं थी. अधिकांश लोग ब्रिज से चलकर आते जाते थे.

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