अधिकांश जिनेवाले लोग धन दौलत पर मरते दिखाई देते हैं. सबको पता हैं कि, कोई यहांसे कुछ लेकर नहीं जाता फिर भी कई लोग येनकेन प्रकारेण धन बटोरने मे लगे रहते हैं. लोकशाही मे देश सर्वोपरि होता हैं, मगर यहां पर तो जन सेवक ही सर्वोपरि बनने की कोशिश करता हैं. देश की संपत्ति कों वो अपनी संपत्ति मानने लगता हैं. और इसके लिए वो नितनई चालबाज़ियों कों अपनाता रहता हैं. फिर शुरु होता हैं भ्रस्ट्राचार का नया दौर. और वो जन सेवक, राम नाम जपना, पराया माल अपना की नीति अपनाता हैं. और काली कमाई का धन बटोरता हैं.
फिर उनकी काली करतूतों मे सामिल होता हैं मुनीम. जिसे हम लोग अकाउंटेंट के नाम से जानते हैं. मुनीम भलीभांति जानता हैं कि 1 +1 को जालसाजी से अनेक मे कैसे रूपांतर किया जाता हैं. उसके लिए वो मुंह मांगा दाम वसूलकर पाप की कमाई का हिस्सेदार बनता हैं. फिर नंबर आता हैं, आयकर अधिकारी का, जो अनदेखा करके बैलेंस शीट को स्वीकृति देनेका काम करता हैं.
उपरोक्त सब की रहेम नजर के बाद कमाये काले धन का ” वाइटमनी ” मे नवनिर्माण होता है. अब आपको ठीक से पता चल जायेगा कि, जन नायक के बच्चों के पास बीना काम धंदा किये करोड़ों की संपत्ति कैसे बन जाती हैं.
ये लोगोंका हाल समुद्री मछली की तरह होता हैं. जो जाल मे फस गई, वो समजो मर गई. समुद्री रूपी हमारे देश मे कालाधन संग्रह करने वालों की कमी नहीं हैं. देश मे अधिकारीयोंसे लेकर अधिनायकों के पास काले पाप का धन पडा हैं. उपर तक हप्ता पहुंचाने वाली बात कोई नयी नहीं हैं.
समय समय पर जागरुक पत्रकार, समाज सेवक, या प्रबुद्ध जनता उन भ्रष्ट्राचारियों की काली करतूत को जन हित मे सार्वजनिक करते हैं, मगर उनके मन मस्तिक पर कोई असर नहीं पड़ती. लातो के भूत कभी बातोंसे मानते हैं ?
बहु मजलि ईमारत बनाने के लिए बीचमे आने वाले गरीबों के झोपड़े को अधिकारीयों की मिली भगत से उजाड़े जाते हैं. इसके लिए हम इतना ही कहना चाहेंगे……
दुर्बल को न सताइये, जाकि मोटी हाय ।
मरी खाल की सांस से, लोह भसम हो जाय॥
– संत कबीर दास.
Representation of the People Act – RPA , 1951 की धारा 77 के तहत प्रत्येक उम्मीदवार को नामांकन की तिथि से लेकर परिणाम घोषित होने की तिथि तक किये गए सभी व्यय का एक अलग और सही खाता रखना होता है. जिसमें सार्वजनिक बैठकों, रैलियों, विज्ञापनों, पोस्टर, बैनर, वाहनों और विज्ञापनों पर किया गया खर्च शामिल होता है. इसको चुनाव संपन्न होने के 30 दिनों के भीतर सभी उम्मीदवारों को
” भारत निर्वाचन आयोग ” Election Commission of India – ECI के समक्ष अपना व्यय विवरण प्रस्तुत करना होता है.
विधानसभा क्षेत्रों में प्रचार के लिए प्रत्याशियों की खर्च सीमा 40 लाख रुपये हैं. पहले यह खर्च सीमा 28 लाख रुपये थी. लोकसभा प्रत्याशी के लिए खर्च सीमा पहले 70 लाख रुपये थी, अब 95 लाख रुपये कर दी गई हैं.
जिन नगर निगमों में 80 से ज्यादा वार्ड हैं, वहां के महापौर प्रत्याशी 40 लाख रुपये और 80 से कम वार्ड वाले निगमों में महापौर के उम्मीदवार 35 लाख रुपये खर्च कर सकते हैं.
सोशल मीडिया की हम माने तो एक महानगर पालिका चुनाव मे कुछ उमीदवार करोड़ से ज्यादा खर्च करते हैं, उस दृश्टिकोण से देखा जाय तो जो पहले खर्चा करेगा वो वापस पांच साल मे कमाने की कोशिश भी करेंगा.
सन 2017 के मिरा भाईंदर महा नगर पालिका चुनाव मे रिश्वत के रुप मे हर एक मतदाता ओको दो हजार रुपये दिये गये की बात चर्चा मे थी.
महानगर पालिका के नगर सेवकों को दस से पंद्रह हजार प्रति माह मान धन मिलता है. इसमे अलग अलग नगर पालिका में अलग अलग धन राशि का प्रावधान हो सकता है.
सोचने वाली बात यह है कि क्या इतनी राशि से चुनावी खर्च और उनके दफ्तर, वाहनों का खर्चा पर्याप्त हो पाता है ? इसीलिए तो कई लोग ” जनरक्षक ” को ” जनभक्षक ” कहते है!.
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