भगवान विष्णु का अस्त्र सुदर्शन चक्र

Sudarshan chakra

सुदर्शन चक्र के बारेमें तो आपने अवश्य सुना होगा. सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का अमोघ अस्त्र है. यह दूरदर्शिता और दृढ़ संकल्प का प्रतीक है. सुदर्शन चक्र , प्रहार करने वाले की इच्छा शक्ति पर भेजा जाता है. इस चक्र जिसके भी पास होता था उसे बस इच्छा करनी होती थी और यह चक्र उसकी इच्छा को पुरा करके ही वापिस लौटता है. यह चक्र किसी भी चीज़ को खत्म करने की क्षमता रखता है.

सुदर्शन चक्र को विष्णुजी की तर्जनी अंगूली में घूमते हुए बताया जाता है. सबसे पहले यह चक्र उन्हीं के पास था.

भगवान शंकर जी ने सुदर्शन चक्र का निर्माण किया था, उसके बाद भगवान शंकर ने इसे श्री विष्णु जी को सौंप दिया था. जरुरत पड़ने पर विष्णु जी ने इसे देवी पार्वती को दे दिया. पार्वती ने इसे परशुराम को दे दिया और भगवान कृष्ण को यह सुदर्शन चक्र परशुराम से मिला, उसके बाद यह चक्र सदा के लिए श्री कृष्ण के पास रहा है.

शंकरजी के चक्र का नाम भवरेंदु , विष्णुजी के चक्र का नाम कांता चक्र और देवी का चक्र मृत्यु मंजरी के नाम से जाना जाता था. सुदर्शन चक्र का नामभगवान कृष्ण के नाम के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है.

पुराणों में उल्लेख मिलता है की इस चक्र ने देवताओं की रक्षा तथा राक्षसों के संहार में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. सुदर्शन चक्र को विष्णु ने अपने कृष्ण के अवतार में धारण किया था और श्री कृष्ण ने इस चक्र से अनेक राक्षसों का वध किया था. यह चांदी की शलाकाओं से निर्मित था. इसकी ऊपरी और निचली सतहों पर लौह शूल लगे हुए थे.

विष्णु पुराण के अनुसार सुदर्शन चक्र में कुल 12 आरे थे. भगवान विष्णु की तपस्या से प्रसन्न हो महादेव उन्हें सुदर्शन चक्र देते हुए कहते है, कि ” हे नारायण! सुदर्शन नाम का ये महान आयुध 12 आरों, 6 नाभियों एवं 2 युगों ये युक्त है. इनके 12 आरों में कुल 12 आदित्यों का तथा 6 नाभियों में 6 ऋतुओं का वास है. इसमें विषैले किस्म के विष, जिसे द्विमुखी पैनी छुरियों मे रखा जाता था, इसके नाम से ही विपक्षी सेना में मौत का भय छा जाता था.

यक्ष प्रश्न है कि जब भगवान श्री कृष्ण ने देह त्याग किया तब सुदर्शन चक्र का क्या हुआ था ? इसका जवाब हमें भविष्य पुराण में मिलता है जिसमें बताया गया है कि सुदर्शन चक्र को भगवान श्री विष्णु या उनकी अवतार की सिवा ना ही कोई धारण कर सकता है और ना ही कोई चला सकता है जब श्री कृष्ण ने देह त्याग कीया तब सुदर्शन चक्र भी वही पृथ्वी में समा गया और भविष्य में जब कल्कि अवतार धरती पर जन्म लेंगे तब वह सुदर्शन चक्र को दोबारा पृथ्वी गर्भ से निकाला जायेगा.

अहंकारी व्यक्ति के विवेक का नाश करता है. जब वही अहंकारी भगवान के भक्त को घिनौना करता है तब भगवान स्वयं उसका नाश करते हैं. ऐसी ही एक कहानी प्रस्तुत है , जिसमें शामिल हैं श्रीकृष्ण ने हनुमानजी की सहायता से सत्यभामा, सुदर्शन चक्र और गरुड़ के घमंड का चकानाचूर किया था.

एक समय की बात हे जब भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को स्वर्ग से पारिजात वृक्ष लाकर दिया था तब माता सत्यभामा को इस बात का अभिमान हो गया था की वह सबसे अधिक सूंदर हे और भगवान श्रीकृष्ण की अति प्रिय रानी हे.

सुदर्शन चक्र ने जब इंद्र के वज्र को निष्क्रिय कर दिया, तब से उसे भी यह अभिमान हो गया था की भगवान के पास जब युद्ध में कोई उपाय नहीं बचता हे तो वह उसकी सहायता ग्रहण करते हे. इसी तरह भगवान का वाहन गरुड़ भी यह समज ने लगा की भगवान मेरे बिना कहीं नहीं जा सकता. क्योकि मेरी गति का कोई मुकाबला नहीं कर सकता

भगवान श्री कृष्ण जानते थे कि उनके इन तीनों भक्तों का अहंकार हो गया है और वे अहंकारी नष्ट करने का समय आया है. तभी भगवान श्री कृष्ण ने लीला रची और हनुमानजी का स्मरण किया. भगवान श्रीकृष्ण के स्मरण करते ही हनुमानजी जान गए थे उनके द्वारा किस कार्य के लिए स्मरण किया हे.

भगवान् श्रीकृष्ण ने गरुड़ से कहा हे गरूड़ ! तुम हनुमानजी के पास जाकर यह कहना कि भगवान श्रीराम ने उन्हें द्वारिका बुलाया हे. और हा हो सके तो तुम उन्हें अपने साथ ही लेकर आना भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा सुनतेही गरुड़जी हनुमानजी को बुलाने चल पड़े.

गरूड़जी ने हनुमानजी के पास पहुंचकर कहा कि हे वानरश्रेष्ठ ! प्रभु श्री राम ने आपको याद किया हे. आप मेरी पीठ पर बैठ जाइये में आपको शीघ्रता से प्रभु के पास पंहुचा देता हूं.

तब हनुमानजी ने विनयपूर्वक गरूड़ से कहा, कि आप चलिए, मैं आता हूँ. गरूड़ ने सोचा पता नहीं यह बूढा हनुमानजी कब पहुंचेंगे ? खैर मुझे क्या कभी भी पहुंचे मेरा कार्य तो पूरा हो गया, मैं चलता हूं. यह सोचकर गरूड़जी शीघ्रता से द्वारका की ओर चल पड़े.

इधर द्वारिका में भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीराम का रूप धारण किया और सत्यभामा के साथ सिंहासन पर बैठ गए सुदर्शन चक्र को यह आदेश दिया की तुम महल के प्रवेश द्वार पर पहरा दो ध्यान रहे कि मेरी आज्ञा के बिना महल में कोई भी प्रवेश न करे पाए. भगवान की आज्ञा पाकर सुदर्शन चक्र महल के प्रवेश द्वार पर तैनात हो गए.

तभी हनुमानजी द्वार पर पोहच गए. सुदर्शन चक्र ने हनुमानजी को रोकते हुए ये कहा कि आप बिना आज्ञा के अंदर नहीं जा सकते, हनुमानजी सुदर्शन चक्र को मुँह में रखकर शीघ्रता से अपने प्रभु से मिलने चले गए.

हनुमानजी ने अंदर जाकर सिहासन पर बैठे प्रभु श्रीराम को प्रणाम किया और कहा कि “प्रभु, आने में देर तो नहीं हुई?” साथ ही कहा, “प्रभु माता सीता कहां है? आपके पास उनके स्थान पर आज यह कौन दासी बैठी है? सुनकर सत्यभामा बहुत ही लज्जित हो गयी. और उसका सारा घमंड चूर हो गया.

तभी थके हुए गरुड़देव भी वहा आ पहुंचे. जब गरुड़ जी ने वहा हनुमानजी को देखा तो वह चकित रह गए की मेरी गति से भी तेज गति से हनुमानजी यहाँ कैसे पहुंच गए ? इस प्रकार गरुड़जी का भी अहंकार चूर चूर हो गया

तभी श्रीराम ने हनुमानजी से यह पूछा कि हे पवनपुत्र ! तुम बिना आज्ञा के महल में कैसे प्रवेश कर गए ? क्या तुम्हें किसी ने प्रवेश द्वार पर रोका नहीं था ? इसपर हनुमानजी ने कहा कि मुझे क्षमा करें प्रभु … मैंने सोचा आपके दर्शनों में विलंब होगा… इसलिए इस चक्र से उलझा नहीं, उसे मैंने अपने मुंह में दबा लिया था. यह कहकर हनुमान जी ने मुंह से सुदर्शन चक्र को बहार निकालकर प्रभु के चरणों में रख दिया. इस प्रकार सुदर्शन चक्र का भी सारा घमंड समाप्त हो गया.

हनुमानजी प्रभु श्री राम के इतने निकट इसीलिए रह पाए क्योकि न तो प्रभु श्रीराम में अभिमान था न उनके भक्त हनुमान में. न ही कभी भगवान् श्रीराम ने कहा कि मैंने किया है और न ही हनुमान जी ने कहा कि यह मैंने किया है… इसलिए दोनों एक हो गए… न अलग थे न अलग रहे. इसीलिए भगवान् श्रीराम से जुड़े व्यक्ति में कभी अभिमान हो ही नहीं सकता…

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