“ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान” ( सरहद के गांधी )| Abdul Gaffar Khan

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भारत की आजादी के लिए हिंदू मुसलमान दोनों कोम ने खंधे से खंधा मिलाकर लड़ाई लड़ी थी. उस समय धर्म, जाती का कोई मुद्दा नहीं था. हर एक का मकसद सिर्फ स्वतंत्रता हासिल करना था. हिंदू मुसलमानो के बिच दरार आजादी के बाद में पड़ी.

हमारे देश में आजादी के योद्धा श्री मोहनदास करमचंद गांधी को राष्ट्रपिता और गांधीजी के नामसे पुकारा जाता है. इसी तरह पाकिस्तान के ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को ” सरहदी गांधी ” या (सीमान्त गांधी) के नामसे पहचाने जाते है. जो बलूचिस्तान के एक महान राज नेता थे जिन्होंने हिंदुस्तान के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लिया था.

पाकिस्तान के ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान भारतीय उपमहाद्वीप में अंग्रेज शासन के विरुद्ध अहिंसा के प्रयोग के लिए जाने जाते है. एक समय उनका लक्ष्य संयुक्त, स्वतन्त्र और धर्मनिरपेक्ष भारत था. इसके लिये उन्होने 1930 में खुदाई खिदमतगार नाम के संग्ठन की स्थापना की थी. यह संगठन सुर्खपोश (या लाल कुर्ती दल ) के नाम से भी जाने जाता है.

खान अब्दुल गफ्फार खान जी ने ” गांधीवाद ” को इस कदर आत्मसात किया कि लोग उन्हें गांधी ही कहने लगे.

एक बार महात्मा गांधी ने खान साहब को स्टेशन से लाने के लिए एक आदमी भेजा था. मगर खान साहब कहीं नहीं दिखे. उनका भेजा आदमी हर डिब्बे में जाकर देखने लगा. एक खाली डिब्बे में एक सज्जन बैठे बैठे सो रहे थे. खान अब्दुल गफ्फार खान को पहचानकर उस आदमी ने उठाया. खां साहब ने माफी मांगते हुए कहा कि लंबा सफर हुआ तो आंख लग गई. उस आदमी ने कहा कि आप लेट क्यों नहीं गए, गाड़ी तो खाली ही थी. खां साहब ने जवाब दिया, “वो मैं कैसे करता, मेरा टिकट स्लीपर का नहीं था.”

” गांधीवाद ‘ को इस कदर अपनी जिंदगी में खान साहब ने उतारा था. खान के संगठन खुदाई खिदमतगार को भारत में फिर से खड़ा करने वाले फैसल खान याद करते हैं, “गांधीजी के सचिव महादेव देसाई ने एक बार कहा था कि अपनी खूबियों की वजह से गफ्फार खां तो गांधी जी से भी आगे निकल गए हैं.”

खान अब्दुल गफ्फार खान की तुलना गांधीजी से की जाती है. दोनों अहिंसा के पुजारी थे. जिसे इतिहास लड़ाके मानते थे, ऐसे सरहद पर रहने वाले पठानों को उन्होंने अहिंसा का रास्ता दिखाया था. पठान मरते रहे पर मारने को उनके हाथ नहीं उठे.

नमक सत्याग्रह के दौरान ता : 23 अप्रैल 1930 को गफ्फार खां गिरफ्तार हो जाने के बाद खुदाई खिदमतगारों का एक जुलूस पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में पहुंचा. अंग्रेजों ने उन पर गोली चलाने का हुक्म दे दिया. करीबन 250 लोग मारे गए. लेकिन प्रति हिंसा नहीं हुई.

सरहद के गांधी ने अपने खुदाई खिदमतगारों को एक सीख दी थी. उन्होंने कहा था, “मैं आपको एक ऐसा हथियार देने जा रहा हूं जिसके सामने कोई पुलिस और कोई सेना टिक नहीं पाएगी. यह मोहम्मद साहब का हथियार है लेकिन आप लोग इससे वाकिफ नहीं हैं. ” यह हथियार है सब्र और नेकी का. दुनिया की कोई ताकत इस हथियार के सामने टिक नहीं सकती.” गांधी जी का कहना यहीं था.

फैसल खान का कहना था कि यह बहुत बड़ी बात थी कि खान साहब ने गांधीवाद को इस्लाम से जोड़े रखा. इस वजह से न सिर्फ खान साहब की स्वीकार्यता बढ़ी बल्कि गांधीवाद के दायरे बढ़े. शायद यही वजह है कि एकनाथ ईश्वरन बादशाह खां की जीवनी “नॉन वायलेंट सोल्जर ऑफ इस्लाम” में लिखते हैं कि भारत में दो गांधी थे, एक मोहनदास कर्मचंद और दूसरे खान अब्दुल गफ्फार खान.

महान नेता खान साहब ने सदैव “मुस्लिम लीग” द्वारा देश के विभाजन के मांग का हमेशा विरोध किया और जब कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार कर लिया तब वो बहुत निराश हुए और कहा, “आप लोगों ने हमें भेड़ियों के सामने फ़ेंक दिया.” विभाजन के बाद उन्होंने पाकिस्तान के साथ रहने का निर्णय लिया और पाकिस्तान के अन्दर ही “पख्तूनिस्तान” नामक एक स्वायत्त प्रशासनिक इकाई की मांग करते रहे. पाकिस्तान सरकार ने उन पर हमेशा ही शक किया जिसके कारण पाकिस्तान में उनका जीवन अक्सर जेल में ही गुजरा.

सन 1969 में महात्मा गांधी जी की 100वीं जयंती के मौके पर खान साहब ने भारतीय संसद में भाषण दिया था. भाषण में उन्होंने सांसदों से पूछा था कि ” मैं गांधी का मुल्क देखने आया हूं. मुझे दिखाओ समाजवाद कहां है. मुझे यह दिखाओ कितने गरीब यहां हैं जिनकी जिंदगी संभली है. मुझे दिखाओ यहां आपस में कितना प्यार बढ़ा है. मैं सुनने नहीं आया हूं, मैं देखने आया हूं.” उनके शब्द कह रहे थे कि बंटवारे और गांधी जी की मौत के बाद भारत गांधी की राह से भटक रहा है. लेकिन सरहदी गांधी ने वह राह नहीं छोड़ी. इसीलिए कनाडा की फिल्मकार टेरी मैकलोहान बादशाह खान को गांधी का अनुयायी मात्र नहीं मानतीं, उनके बराबर खड़ा करती हैं.

अपनी डॉक्युमेंट्री द फ्रंटियर गांधी बादशाह खान, अ टॉर्च ऑफ पीस के बारे में बताते हुए मैकलोहान ने लिखा है, “दो बार नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित हुए बादशाह खान की जिंदगी और कहानी के बारे में लोग कितना कम जानते हैं. अपनी 98 साल की जिंदगी में 35 साल उन्होंने जेल में सिर्फ इसलिए बिताए कि इस दुनिया को इंसान के रहने की एक बेहतर जगह बना सकें. सामाजिक न्याय, आजादी व शांति के लिए वह जीवन भर जूझते रहे, वह उन्हें नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और महात्मा गांधी जैसे लोगों के बराबर खड़ा करती हैं. खान की विरासत आज के मुश्किल वक्त में उम्मीद की ज्योत जलाती है.”

अंग्रेजों की कुल मिलाकर पंद्रह साल जेल काटने वाले एक गांधी ऐसे भी थे, जिन्होंने उनसे आजादी मिलने के बाद भी पूरे 15 साल कैद भुगती. यह अनूठे स्वतंत्रता सेनानी थे.

सरहदी गांधी जिनकी अहिंसा से डर कर पाकिस्तान सरकार ने पूरे 15 साल कैद करके रखा. पाकिस्तान के बारे में सरहदी गांधी की राय स्पष्ट थी कि उससे मित्रता संभव ही नहीं थी. उनके अनुसार अंग्रेजों की कृपा से पाकिस्तान की बुनियाद ही घृणा पर रखी गई है. वे कहते थे कि पाकिस्तान की घुट्टी में घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य आदि दुर्भाव मिले हुए हैं. इसलिए उससे भाईचारे की उम्मीद कैसे की जाए. उनकी राय में अंग्रेजों ने पाकिस्तान इसलिए बनाया ताकि हिंदू—मुसलमानों के बीच हमेशा दंगे होते रहे.

खान अब्दुल गफ्फार खान भारत रत्न पाने वाले पहले गैर-भारतीय बने थे. खान अब्दुल गफ्फार खान को आज सन 1987 में भारत रत्न दिया गया था. वे पहले गैर-भारतीय थे, जिन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से नवाजा था.

भारत रत्न प्राप्त करने वाले प्रथम दो गैर-भारतीय में

(1) खान अब्दुल गफ्फार खान -1987 (2) नेल्सन मंडेला – 1990 हैं.

भारत रत्न की बात निकली है तो अब तक विभिन्न क्षेत्रों की 48 हस्तियों को भारत रत्न के सम्मान से नवाजीत किया जा चुका है. पहला भारत रत्न का सर्वोच्च सम्मान देश के दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को 1954 में प्रदान किया गया था. इंदिरा गांधी भारत की पहली महिला प्रधान मंत्री थीं और उन्हें 1971 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया था.

खान अब्दुल गफ्फार खान का जन्म तारीख 6 फरवरी 1890 के दिन पेशावर, तत्कालीन ब्रिटिश भारत और वर्तमान पाकिस्तान में हुआ था. आप बचपन से ही दृढ़ स्वभाव के व्यक्ति थे, इसलिए अफगानों ने उन्हें “बाचा खान” पुकारना शुरू कर दिया था. उनका सीमा प्रांत के कबीलों पर खासा प्रभाव था. विनम्र गफ्फार ने सदा स्वयं को एक आजादी का सिपाही कहा, पर उनके प्रशंसकों ने उन्हें “बादशाह खान” कह कर पुकारा. राष्ट्रीय आंदोलनों में सक्रियता के चलते उन्होंने कई बार जेल में घोर यातनाएं झेलीं, फिर भी वे अपनी मूल संस्कृति से अलग नहीं हुए.

मिशनरी स्कूल की पढ़ाई समाप्त करने के बाद वे अलीगढ़ चले गए. फिर शिक्षा समाप्त कर देशसेवा में लग गए. सरहद के पार अपने लोगों की स्वाधीनता के लिए संघर्षरत अब्दुल गफ्फार खान शुरू से ही अंग्रेजों के खिलाफ थे.

राजनीतिक असंतुष्टों को बिना किसी मुकदमा चलाए नजरबंद करने की इजाजत देने वाले रौलेट एक्ट के खिलाफ सन 1919 में हुए आंदोलन के दौरान गफ्फार खान की गांधीजी से मुलाकात हुई और उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया था. अगले वर्ष वे खिलाफत आंदोलन में शामिल हो गए, जो तुर्की के सुल्तान के साथ भारतीय मुसलमानों के आध्यात्मिक संबंधों के लिए प्रयासरत था. सन 1921 में वे अपने गृह प्रदेश पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत में खिलाफत कमेटी के जिला अध्यक्ष चुने गए.

सन 1929 में कांग्रेस पार्टी की एक सभा में शामिल होने के बाद गफ्फार खान ने खुदाई खिदमतगार (ईश्वर के सेवक) की स्थापना की और पख्तूनों के बीच लाल कुर्ती आंदोलन का आह्वान किया. विद्रोह के आरोप में उनकी पहली गिरफ्तारी तीन वर्ष के लिए हुई थी. मुसलिम लीग ने पख्तूनों की इस आंदोलन में कोई मदद नहीं की, पर कांग्रेस ने उन्हें अपना पूर्ण समर्थन दिया था. इसलिए वे पक्के कांग्रेसी और गांधीजी के अनुयायी हो गए.

तारीख 20 जनवरी 1988 के दिन उनकी मृत्यु हुई और उनकी इच्छानुसार उन्हें जलालाबाद अफ़ग़ानिस्तान में दफ़नाया गया.

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