सन 1962 का साल था. तब मिरा रोड और भाईंदर गांव अविकसित था. भाईंदर (पूर्व) में खारिगांव, बंदरवाड़ी, गोड़देव और नवघर छोटे छोटे गांव थे. भाईंदर (प ) में भाईंदर गांव, मुर्धा, राई, मोरवा और डोंगरी, तारोड़ी, उत्तन आदि गांव थे. जनसंख्या करीब 5000 की रही होंगी.
पूर्व पश्चिम मिलाकर कुल दस या ग्यारह गांव थे. एक भी मेडिकल स्टोर नहीं था. भाईंदर पश्चिम टेम्भा स्थित जिला परिषद का एक चिकित्सालय जरूर था, मगर उसकी स्थिति दयनीय थी. पोस्टमॉर्टम रुम में कौए घुसकर लाशो को नोंचते थे.
भाईंदर गांव में सरकारी डॉक्टर के रूपमें डॉक्टर वारंड थे. डॉ. गुणवंत त्रिवेदी, डॉ. केवलरामानी ऐसे कुल तीन डॉक्टर प्रैक्टिस करते थे. बोरीवली से विरार तक एक अस्पताल भगवती थी. जो आज भी विध्यमान है. अधिकांश लोग अस्पताल जानेसे परहेज करते थे उनका ये मानना था की अस्पताल में पेशन्ट को मार देते है.
अस्पताल में जानेकी जरुरत ही नहीं पडती थी. डॉक्टर की औषधी से काम चल जाता था. औषधी नकली होने का कोई नामोनिशान नहीं था.
समय ने करवट बदली, 12जून 1985 के दिन नगर परिषद् का गठन हुआ. उसके बाद 2002 में महा नगर पालिका की स्थापना हुईं. और आज सन 2023 में मिरा भाईंदर महा नगर पालिका की जनसंख्या करीब 15 लाख तक पहुंच जानेका अनुमान है.
बढ़ती जनसंख्या के साथ चिकित्सा सुविधा में काफ़ी बढ़ोतरी हुईं है. अनेक निजी अस्पताल, सेकंड़ो दवाखाना, कई नर्स, डॉक्टर्स, स्पेशलिस्ट सेवा कार्य में लगे हुए है. इस वक्त एक डॉक्टर के बाजुमें एक मेडिकल स्टोर चल रहा है.
डॉक्टरों का व्यवसाय सेवा का था. आज मेवा में बदल चूका है. अस्पताल की शल्यक्रिया का खर्चा आम आदमी की पहुंच से कोसों दूर तक चला गया है. बडी शल्यक्रिया करने से मरीज मरना ज्यादा पसंद करता है.
देश की रक्षा के लिए हमारा देश सैन्य को संरक्षित करता है. उन्हें ट्रेनिंग दी जाती है और लड़ने के काबिल बनाते है, वैसे ही हम लोग डॉक्टरों को भी ट्रेनिंग दे कर संरक्षित करें तो मरीजों को मरने के दिन नहीं देखने पड़ सकते है. वैसे भी हमारे देश में टेलेंटो की कमी नहीं है. सरकार को जरुरत है इस क्षेत्र में कुछ करके दिखाने की.
यक्ष प्रश्न है कि सरकार ऐसा क्यू नहीं करती ? इसका उत्तर बिलकुल आसान है. जिसको हम राजनीतिक पक्ष, पार्टियां कहते है वें सभी एक दूसरे की टांग खींचने में व्यस्त है. जो सत्ता में है, वो कुर्सी बचाने में व्यस्त है. जो लोग विपक्ष में है वो कुर्सी पाने के लिए व्यस्त है. राजनित संगीत कुर्सी का खेल बन गया है. कुर्सी पानेके लिए दौडो फिर अंत में जो जीता वो सिकंदर !
आजकल जितनी मस्सकत कुर्सी पानेके लिए की जाती है इससे कई गुना ज्यादा मस्सकत कुर्सी बचाने के लिए करनी पडती है. ऐसे में देश का विकास संभव है ? विकास तो जरूर होता है पर कछुआ चाल से….!
साठ के दशक में मीरारोड भाईंदर में ग्रापंचायत की हकूमत थी. स्थानीय लोग परोपकारी थे. जनसेवा को प्रभु सेवा मानते थे. उस समय समाज सेवक श्री जनार्दन रकवी व गरीबों के मसीहा डॉक्टर श्री गुणवंत त्रिवेदी थे, निःस्वार्थ समाज सेवक श्री चंदूलाल छबीलदास शाह थे. श्री कृष्णाराव गोविंदराम म्हात्रे, श्री बालाराम पाटिल भाईंदर (पू) श्री जे.
बी.सी.नरोना. श्री नंदलाल गाडोदिया.
श्री भालचंद्र आनंदराव रकवी. श्रीमान बंकटलाल हजारीमल गाडोदिया. श्री बरनार्ड ए नरोना. श्री केशवजी डोसा. नगर संघ चालाक गंगाधर गाडोदिया. श्री चंद्रकांत केशवलाल शाह. श्री
हरिनारायण लादूरामजी. श्री देवचंद संघवी. श्री रघुनाथ त्रंबक दामले.
किस किसका नाम लिखू ? आज समाज सेवकों की कमी नहीं है. एक ढूंढो तो सेकड़ो मिलते है, पर इनमे से अधिकांश धन संग्रह की रेस में दौड़ रहे है. जनसेवा के नाम पर धन बटोरनेके काम में लगे है. जनरक्षक धनभक्षक बन गये है. कुछ अधिकारी “बाट के खाओ” की नीति अपना रहे है, ताकी तेरी भी चुप मेरी भी चुप.
सर्व विदित है कि सार्वजनिक टेंडरो का भ्रस्टाचार चरम सीमा पर है. यहीं कारण टेंडरो के काम की गुणवत्ता का खस्ता हाल है. आम जनता कर भी क्या सकती है.
उमीदवार जान चूका है की नोट पे वोट मिलता है. दारू की बोतल और चिकन, मटन बिरियानी से मतदाता के मुंह में पानी आ जाता है. कई मतदाता को ख़रीदा जा सकता है. आजकल तो बिजली फ्री, टेक्स फ्री, के नाम पर वोट मांगे जा रहे है. इसे हम कहेंगे मेरा भारत महान ?
यदि ये सिलसिला जारी रहा तो विकास संभव है ? ऐसे में हमें ये कहना होगा कि, जन गण मन अधिनायक जय है भारत भाग्य विद्याता ?