महाराजा प्रभु नारायण सिंह – वाराणसी| Prabhu Narayan Singh

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दुनिया मे एक से बढ़कर एक दानशूर इस धरा पर आये और चले गये. उनमेसे कई लोगो को आज भी याद किया जाता है. उनमेसे एक नाम प्रभु नारायण सिंह है. जिन्होंने अपनी 1300 एकड़ जगह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए दान में दी थी.

प्रभु नारायण सिंह भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान, बनारस की रियासत के महाराजा थे. ” रॉयल हाउस ऑफ़ बनारस,” जिसको वर्तमान में वाराणसी या बनारस के रूप में जाना जाता है. उन्होंने सन 1889 से 1931 तक इस क्षेत्र पर 42 वर्ष तक शासन शासन किया. उनका जन्म 26 नवंबर 1855 के दिन हुआ था.

उन्हें रिस्तेदार राजा श्री ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह ने गोद लिया था, जिन्होंने अपनी वफादारी सेवाओंके लिए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से महाराजा की उपाधि प्राप्त की थी. 1857 का विद्रोह, जिसे भारतीय विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है.

महाराजा प्रभु नारायण सिंह को 1892 में नाइट कमांडर ऑफ द ऑर्डर ऑफ द इंडियन एम्पायर (केसीआईई) के रूप में नियुक्त करके नियुक्त किया गया था. 1898 में नाइट ग्रैंड कमांडर ऑफ द ऑर्डर ऑफ द इंडियन एम्पायर (जीसीआईएसआई), दिल्ली दरबार गोल्ड मेडल (1903), दिल्ली दरबार गोल्ड मेडल (1911), और सन 1921 के नए साल के सम्मान में नाइट ग्रैंड कमांडर ऑफ द ऑर्डर ऑफ द स्टार ऑफ इंडिया (जीसीएसआई) की उपाधि प्रदान की गई. यह प्रथम विश्व युद्ध में उन्हें प्रदान की गई सेवाओं के लिए दि गई थी.इसके अलावा ग्रैंड ऑफ द ऑर्डर ऑफ लियोपोल्ड II ऑफ बेल्जियम (1926) जैसे सम्मान दिये गये थे.

दानशूर महाराजा प्रभु नारायण सिंह :

प्रभु नारायण सिंह सन 1911 में, वह बनारस शहर के भीतर कुछ सीमित अधिकारों के साथ,भदोही और चकिया, केरामनगर और रामनगर के परगना सहित बनारस की नव निर्मित रियासत के पहले महाराजा बने थे.

महाराजा प्रभु नारायण सिंह ने प्रसिद्ध बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए 1300 एकड़ भूमि दान में दी. उन्होंने हिंदू कॉलेज की स्थापना के लिए डॉ. एनी बेसेंट को कामचा, वाराणसी में जमीन दान में दी थी, जिसे उन्होंने बीएचयू की स्थापना के लिए दान कर दिया था.

ऑक्सफोर्ड के सूखाग्रस्त गाँव में एक कुआँ खोदने के लिए दान दिया, जिसे आज भी महाराजा का कुआँ कहा जाता है. वह एक महान विद्वान और संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी के अच्छे जानकार थे. प्रसव के दौरान जच्चा बच्चा मृत्यु दर को कम करने के लिए ईश्वरी मेमोरियल अस्पताल की स्थापना की थी.

संत राजाओं की परंपरा को जारी रखा और बिना निश्चेतनाके योग समाधि में जाकर ऑपरेशन करवाया. 4 अगस्त 1931 में 75 वर्ष की आयु में उनका स्वर्गवास हो गया. जाते जाते वें उनके इकलौते पुत्र, सर आदित्य नारायण सिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाते गये.

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