सभी संप्रदायों के प्रति समभाव रखने वाले अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-ख़ाना – रहीम.

Untitled design 22 2

अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-ख़ाना या रहीम, एक मध्यकालीन सेनापति, प्रशासक, दानवीर, आश्रयदाता, कूटनीतिज्ञ, कवि, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी, एवं विद्वान थे. रहीम भारतीय सामासिक संस्कृति के अनन्य आराधक तथा सभी संप्रदायों के प्रति समादर भाव के सत्यनिष्ठ साधक के रूपमें जाने जाते है.

रहीम जी का पूरा नाम अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-ख़ाना था. इनका जन्म सन ई. 1556 में लाहौर में हुआ था. यह अब वर्तमान में पाकिस्तान में है. इनके पिता बैरम खाँ मुगल सम्राट अकबर के संरक्षक थे. किन्हीं कारणोंवश अकबर बैरम खाँ से रुठ गया था और उसने बैरम खाँ पर विद्रोह का आरोप लगाकर हज करने के लिए मक्का भेज दिया था.

गुजरात के पाटन नगर में उसके शत्रु मुबारक खाँ ने उसकी हत्या कर दी थी. तब रहीम 5 साल के थे.

बैरम खाँ की हत्या के बाद अकबर ने रहीम और उनकी मा को अपने पास बुला लिया और रहीमकी शिक्षा की पुरी व्यवस्था की. रहीम ने हिन्दी, संस्कृत, अरबी, फारसी, तुर्की आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था. इनकी योग्यता को देखकर अकबर ने अपने दरबार के नवरत्नों में स्थान दिया.

रहीम अतियंत दयालु प्रकृति के थे. मुसलमान होते भी ये श्रीकृष्ण के भक्त थे. अकबर की मृत्यु के पश्चात् जहाँगीर ने इन्हें चित्रकूट में नजरबन्द कर दिया था. केशवदास और गोस्वामी तुलसी दास से इनकी अच्छी मित्रता थी. इनका अन्तिम समय विपत्तियों से घिरा रहा और ई. सन 1627 में उनकी मृत्यु हो गयी.

रहीम के कार्य से प्रभावित होकर अकबर ने सन 1572 में गुजरात की चढ़ाई के अवसर पर इन्हें पाटन की जागीर प्रदान की थी. अकबर के शासन काल में इनकी निरंतर पदोन्नति होती रही थी. सन 1576 में गुजरात विजय के बाद इन्हें गुजरात की सूबेदारी मिली थी. सन 1579 में इन्हें मीर अर्जु का पद प्रदान किया गया था.

अकबर ने प्रसन्न होकर सन 1584 में इन्हें ख़ान-ए-ख़ाना की उपाधि और पंचहजारी का मनसब प्रदान किया था. तथा सन 1589 में इन्हें वकील की पदवी से सम्मानित किया गया.

सन 1604 में शहजादा दानियाल की मृत्यु और अबुलफजल की हत्या के बाद इन्हें दक्षिण का पूरा अधिकार मिल गया. जहांगीर के शासन के प्रारंभिक दिनों में इन्हें पूर्वज सम्मान मिलता रहा.

सन 1623 में शाहजहां के विद्रोही होने पर उन्होंने जहांगीर के विरुद्ध उनका साथ दिया. सन 1625 में इन्होंने क्षमा याचना कर ली और पुनः खानखाना की उपाधि मिली.

ता : 1 अक्टूबर 1627 को अब्दुल रहीम की भी चित्रकूट में मौत हो गई.

रहीम दास के प्रसिद्ध दोहे :

(1) रहिमन धागा प्रेम का, तोड़ो नहीं.

टूटे से फिर ना जुरे, जुरे गांठ परी जाय.

अर्थ : रहीम कहते हैं कि प्रेम का नाता बहुत नाजुक होता है. इसे तोड़ना उचित नहीं होता. यदि यह प्रेम का धागा एक बार टूट जाता है, तो फिर से मिलाना कठिन होता है, और यदि मिल भी जाए तो टूटे हुए धागे के बीच में गांठ पड़ जाती है.

(2) वृक्ष कबहूँ .नहीं फल भखैं, नदी न संचै नीर,

परमारथ के कारने साधुन धरा सरीर.

अर्थ : वृक्ष कभी अपने फल नहीं खाते, नदी जल को कभी अपने लिए संचित नहीं करती, उसी प्रकार ही सज्जन परोपकार के लिए देह धारण करते हैं.

(3) लोहे की ना लोहार की,रहीमन कहीं

विचार जा हनि मारे सीस पै, ताही की तलवार.

अर्थ : रहीम विचार करके कहते हैं कि तलवार ना तो लोहे की कही जाएगी ना लोहार की तलवार उस वीर की कही जाएगी जो वीरता से शत्रु के सर पर मार कर उसके प्राणों का अंत कर देता है.

रहीम के कई ग्रंथ प्रसिद्ध है. जिसमे रहीम सतसई, मदनाष्टक, भेद वर्णन, श्रृंगार सतसई, रास पंचाध्यायी, रहीम रत्नावली, और बरवै नायिका आदि का समावेश है.

रहीम जन साधारण लोगोंमे में अपने प्रसिद्ध दोहों के लिए जाने जाते है, पर इन्होंने कवित्त, सवैया, सोरठा तथा बरवै छंदों आदि में भी सफल काव्य रचना की है. इन्होंने ब्रज भाषा में अपनी काव्य रचना की. इनके ब्रज का रूप सरल, व्यवहारिक, स्पष्ट एवं प्रभावपूर्ण हैं.

अकबर की मौत हो जाने के बाद अकबर का बेटा जहांगीर राजा बना लेकिन रहीम जहांगीर के राजा बनने के पक्ष में नहीं थे. इस कारण अब्दुल रहीम के दो बेटों को जहांगीर ने मरवा दिया और फिर 1 अक्टूबर 1627 को अब्दुल रहीम की भी चित्रकूट में मौत हो गई. रहीम की मौत हो जाने के बाद उनके पार्थिव देह को दिल्ली लाया गया और वहां पर इनका मकबरा आज भी विध्यमान है.

About पत्रकार : सदाशिव माछी -"शिव सर्जन"

View all posts by पत्रकार : सदाशिव माछी -"शिव सर्जन" →