श्री स्वामी समर्थ जी अकालकोट – महाराष्ट्र दत्त संप्रदाय के एक महान संत थे, जो उन्नीसवीं शताब्दी में प्रकट हुए थे. माना जाता है कि श्रीपाद वल्लभ और श्रीनृसिंह सरस्वती के बाद भगवान श्री दत्तात्रेय के तीसरे पूर्णावतार अवतार हैं. गाणगापुर के श्री नरसिंह सरस्वती बाद में श्री स्वामी समर्थ के रूप में प्रकट हुए. अलग-अलग जगहों पर, स्वामी अलग-अलग नामों से आए. श्री स्वामी समर्थ महाराज का प्राकट्य देश भारत महाराष्ट्र राज्य जिला सोलापुर तहसील अक्कलकोट में हुआ था.
वास्तव में श्रीस्वामी समर्थ महाराज का जन्म सन 1275 के आसपास हुआ था. स्वामी जी को महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में गंगापुर के स्वामी “नृसिंह सरस्वती” के नाम से भी जाना जाता है , तो वहीं कुछ जगहों पर उन्हें “चंचल भारती” और “दिगम्बर स्वामी” के नाम से भी जाना जाता है. बताया जाता है कि पहले स्वामी नृसिंह के रूप में उन्होंने अपने भक्तों को ज्ञान दिया. पूर्व स्वरूप में अलग-अलग समय पर उन्होंने लगभग 400 वर्षों तक तपस्या की. सन 1458 में नृसिंह सरस्वती श्री शैल्य यात्रा के कारण कर्दली वन में अदृश्य हुए.
इसी वन में वह 300 वर्ष तक प्रगाढ़ समाधि अवस्था में थे. तभी उनके दिव्य शरीर के चारों ओर चींटियों ने भयंकर बांबी निर्माण किया. वह दुनिया से दूर हो गए थे. एक दिन एक लकड़हारे की कुल्हाड़ी गलती से बांबी पर गिर गई , जब उसने कुल्हाड़ी उठाई तो उसे खून के धब्बे दिखाई दिए.
लकड़हारे ने जब वहां की झाड़ी व बांबियों की सफाई की तो देखा की एक बुजुर्ग योगी साधना में लीन थे. उन्होंने घबराकर वह योगीराज के चरण छुए. और ध्यान भंग करने की क्षमा मांगी. श्री स्वामी जी ने आंखें खोलीं और उससे कहाकि तुम्हारी कोई गलती नहीं है, यह मुझे फिर से दुनिया में जाकर अपनी सेवाएं देने का दैवीय आदेश हैं.
उसके बाद नए स्वरूप में सन 1854 से 30 अप्रैल 1878 (24 वर्ष) तक अक्कलकोट में रह कर उन्होंने महासमाधि ली. कहते हैं कि वह बहुत जगह घूमे. प्रथम वह काशी में प्रकट हुए. आगे कोलकाता जाकर उन्होंने काली माता के दर्शन किए. इसके बाद गंगा तट से अनेक स्थानों का भ्रमण करके वह गोदावरी तट पर आए. वहां से हैदराबाद होते हुए 12 वर्षों तक वह मंगल वेढ़ा रहे. फिर पंढरपुर, मोहोल, सोलापुर मार्ग से अक्कलकोट आए.
दत्त सम्प्रदाय में श्रीपाद श्रीवल्लभ तथा नृसिंह सरस्वती दत्तात्रेय के पहले तथा दूसरे अवतार माने जाते हैं. श्री स्वामी समर्थ ही नृसिंह सरस्वती हैं. अर्थात दत्तावतार है.
अक्कलकोट के परब्रह्म श्री स्वामी समर्थ अपने भक्तों को सुरक्षा का वचन देते हुए कहते थे कि, ” भिऊ नको मी तुझ्या पाठीशी आहे ” अर्थात ‘‘डरो नहीं, मैं तुम्हारे पीछे हूं.’’ भक्तों को आज भी इससे संबल मिलता है.
श्रीस्वामी समर्थ अक्कलकोट प्रथम खंडोबा के मंदिर में सन 1856 में प्रकट हुए. उन्होंने जनजागृति का कार्य किया.
कई भक्तों ने उन्हें पंढरपुर की भीमा नदी की बाढ़ में चलते हुए देखा. कहते हैं कि स्वामी जी पैदा होते ही केवल ॐ का उच्चारण करने लगे थे.
आठ वर्ष की छोटी उम्र तक ॐ तथा ओमकार के अलावा उन्होंने कुछ नहीं कहा. उनके जनेऊ कार्यक्रम के बाद अचानक स्वामी जी चारों वेदों को उच्चारित करने लगे फिर वह तपस्या करने कांची की तरफ निकल पड़े. उनकी भक्ति व तप से प्रसन्न होकर स्वामी श्री कृष्ण सरस्वती ने उन्हें दीक्षा दी. स्वामी जी शिव भक्त थे.
श्री स्वामी समर्थ महाराज की शिक्षा :
गुरुओं की महानता के बारे में वह कहते थे कि गुरु के वचन मंत्र की तरह होते हैं और गुरु के बिना मुक्ति बहुत मुश्किल होती है. स्वामी समर्थ अपने शिष्यों से अक्सर कहते थे कि आलसी व्यक्ति का चेहरा भी मत देखो. अपने जीवन यापन के लिए मेहनत करो और पसीना बहाओ नशा मत किया करो. नशा आध्यात्म की पटरी से आदमी को उतार देता है.
धर्म के रास्ते पर जीत अवश्य होती है गुरु की कृपा या साथ पाने के लिए अहंकार और शर्म छोड़नी चाहिए. वह कहते थे कि भाग्य का लिखा होकर रहेगा. विश्व भर में श्री स्वामी समर्थ के अनगिनत भक्त हैं. 1878 में स्वामी समर्थ ने अक्कलकोट में अपने पार्थिव शरीर का भले ही त्याग किया हो किन्तु “हम गया नहीं जिंदा है”, उनका यह वचन भक्तों का आधार है.
श्री स्वामी जी अक्सर कहते थे…..
*** फल की अपेक्षा ना करते हुए कर्म करते रहो.
*** प्रामाणिक मेहनत करके ही अपनी उपजीविका का वहन करो.
*** जब भी आप किसी अध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले सक्षम मार्गदर्शक से मिलते हो, उससे ज्यादा से ज्यादा ज्ञान और उपदेश लेने की कोशिश करो.
*** अध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले लोगों का व्यवहार शुद्ध और धार्मिक होना चाहिए.
*** संतो द्वारा रचित वैदिक ग्रंथो को पढ़ना चाहिए और उन्हें दोहराना चाहिए
*** शरीर की बाह्य पवित्रता टिकाने के लिए अपने मन को भी शुद्ध रखने का प्रयास करो.
*** केवल किताबों के आधार पर मिला हुआ ज्ञान आत्मज्ञान की प्राप्ति तक नहीं पंहुचा सकता. इसलिए प्राप्त किए ज्ञान का जीवन में उपयोग करो.
*** सभी अनुयायी में ढृढ़ विश्वास और भक्तिभाव होना चाहिए.
श्री स्वामी समर्थ ने तारीख : 30 अप्रैल, 1878 के दिन अक्कलकोट में एक बरगद के पेड़ के नीचे समाधि ली थी, मगर उनके भक्तों के लिए वें सदा चिरंजीवी रहेंगे.