देश को पहला फाइव स्टार होटल देने वाले राय बहादुर मोहन सिंह ओबेरॉय.

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25 रुपये से 7000 करोड़ बनाने वाला भारतीय होटल इंडस्ट्री के पितामह. ये कहानी है भारतीय होटल इंडस्ट्री के पितामह व देश को पहला फाइव स्टार होटल देने वाले राय बहादुर मोहन सिंह ओबेरॉय की. ये कहानी है मोहन सिंह नामक युवक की जो माँ ने दिये 25 रुपये लेकर घर से निकले थे और बना दी 7000 करोड़ की संपती.

राय बहादुर मोहन सिंह ओबेरॉय का जन्म सन 1898 में झेलम जिले के भाऊन गांव में हुआ था. जो गांव हाल में पाकिस्तान में है. पिता मोहन सिंह एक साधारण से ठेकेदार थे. वह पेशावर में काम करते थे. पिता की जब मौत हुईं तब मोहन सिंह की आयु मात्र 6 महीने की थी.

आज के समय में महिलाएं सशक्त हैं लेकिन तब एक महिला के लिए काम करना और घर चलाना आसान नहीं था लेकिन जैसे तैसे मोहन सिंह की मां ने उनका लालन पालन किया. मोहन सिंह ने गांव में किसी तरह स्कूल की पढ़ाई पूरी की और आगे की पढ़ाई के लिए रावलपिंडी चले गए. यहां पर उन्हें एक सरकारी कॉलेज में दाखिला मिला.

पढ़ाई करते हुए ओबेरॉय ये सोचते थे कि पढ़ाई पूरी होने के बाद उन्हें कोई अच्छी सी नौकरी मिल जाएगी जिससे वह गरीबी दूर कर सकेंगे. मगर कुदरत को कोई ओर मंजूर था. जब कॉलेज की पढ़ाई पूरी हुईं तो बहुत जगह भटकने के बाद भी उनको नौकरी नहीं मिली.

आखिरकार मोहन सिंह ने एक मित्र की सलाह मानी और टाइपिंग सीखने अमृतसर चले आए. यहां उन्होंने एक टाइपिंग इंस्टीट्यूट में टाइपिंग सीखना शुरू किया. लेकिन यह बात उन्हें जल्दी ही समझ आ गई कि टाइपिंग सीखने से भी उन्हें नौकरी नहीं मिलने वाली. दूसरा कारण यह था कि बाहर रहने में उनके पैसे खर्च हो रहे थे. इसीलिए उन्होंने सोचा गांव ही लौट जाया जाए कम से कम वहां रहने और खाने के पैसे तो बच ही जाएंगे. यही सोच कर वह गांव लौट आए.

जूतों की फैक्ट्री में काम करने की नौबत मोहन सिंह के मन में तब एक ही बात चल रही थी कि उन्हें जल्द से जल्द कोई नौकरी मिल जाए जिससे कि वह अपने मां के ऊपर से घर चलाने का बोझ कुछ हद तक कम कर पाएं. यही कारणवश मोहन सिंह ने अपने चाचा के कहने पर जूतों की फैक्ट्री में मजदूर की नौकरी की. लेकिन किस्मत को कुछ ओर मंजूर था. ओर कुछ ही समय बाद जूतों की वह कंपनी बंद हो गई. निराश होकर मोहन सिंह एक बार फिर खाली हाथ घर लौट आए.

सन 1920 की बात है जब मोहन सिंह गांव लौटे तो परिवार ने उनके आगे शादी का प्रस्ताव रखा. मोहन सिंह ने एक साक्षात्कार में मजाक में कहा था कि “उस समय ना मेरे पास नौकरी थी, ना कोई जायदाद और ना ही अच्छे दोस्त इसके बावजूद ना जाने मेरे ससुर जी ने मुझमें क्या देखा. शायद वह मेरे व्यक्तित्व के प्रति आकर्षित हो गए थे.” जैसे भी हो लेकिन 20 साल के मोहन सिंह की शादी कोलकाता के एक परिवार में हो गई.

शादी के बाद उनका ज्यादा समय ससुराल में ही बीतने लगा. किस्मत तो मोहन सिंह को पहले से ही तंग कर रही थी, रही सही कसर प्लेग बीमारी ने पूरी कर दी. काफी समय ससुराल में बिताने के बाद जब वह अपने गांव लौटे तो पाया कि गांव में प्लेग बीमारी फैली हुई है. ऐसे में वह अपनी मां के पास रहना चाहते थे लेकिन मां ने उन्हें साफ मना कर दिया और उन्हें कहा कि वह वापस अपने ससुराल लौट जाएं और वहीं कोई काम धंधा ढूंढें क्योंकि यहां उन्हें भी इस बीमारी से खतरा था.

आखिरकार मोहन सिंह को मां की बात माननी पड़ी. घर से निकलते हुए मां ने मोहन सिंह के हाथ में 25 रुपये दिए. तब मोहन सिंह को भी इस बात का पता नहीं था कि उनके अरबों के साम्राज्य की नींव इन्हीं 25 रुपयों से रखी जाएगी.

बार बार मिल रही असफलताओं के बाद वो निराश नहीं हुए और सोचा कि किस्मत कोई बड़ा मौका देना चाहती है.

वें मां के दिए 25 रुपये लेकर शिमला पहुंच गये और यहीं से शुरू हुआ देश के सबसे बड़े होटल व्यवसायी बनने का उनका सफर.

मोहन सिंह ने एक दिन अखबार में एक सरकारी नौकरी का विज्ञापन देखा. यह क्लर्क की नौकरी उनकी योग्यता के लायक थी. उन्होंने तय कर लिया कि वह शिमला जा कर इस नौकरी के लिए परीक्षा देंगे. मां के दिए 25 रुपये अभी भी उनके पास थे. उन्हीं रुपयों के सहारे मोहन सिंह नई नौकरी की परीक्षा देने शिमला निकल गए. *103

मगर परीक्षा के लिए उनकी किसी तरह की तैयारी नहीं थी लेकिन ना जाने क्यों नोहन अपनी किस्मत आजमाना चाहते थे. शिमला उन दिनों अंग्रेजी हुकूमतकी गर्मियों की राजधानी थी.यही कारण था कि यहांपर बड़ी बड़ी इमारतों और होटलों की कमी नहीं थी. मोहन सिंह परीक्षा तो पास ना कर पाए लेकिन उनकी किस्मत उन्हें उस दरवाजे तक जरूर ले गई जहां से उनकी सफलता का रास्ता निकलता था. मोहन सिंह घूमते घूमते उस समय के सबसे प्रसिद्ध होटलों में से एक सिसिल में पहुंचे. यहां वह रहने के इरादे से नहीं बल्कि काम की तलाश में गए थे.

मगर इस बार किस्मत रंग लाई और होटल के अंग्रेज मैनेजर ने इन्हें नौकरी पर रख लिया. मोहन सिंह को 40 रुपये महीने पर क्लर्क की नौकरी मिली. वह यहां टिक गए और इसके साथ साथ तरक्की भी करते रहे. क्लर्क के बाद वह होटल के कैशियर बना दिए गए. वेतन भी 50 रुपये हो गया और इन्हें होटल की तरफ से एक आवास भी मिल गया. आवास मिलनेके बाद मोहन अपनी पत्नी ईसार देवी को भी शिमला ले आए.

मोहन अब इस होटल के कारोबार को बहुत अच्छे से समझ गए थे. ब्रिटिश मैनेजर इरनेस्ट क्लार्क की गैरमौजूदगी में सिसिल होटल का कार्यभार मोहन सिंह ने ही संभाला. इस दौरान होटल पहले के मुकाबले दुगनी रफ्तार से प्रगति करने लगा था.

सिसले होटल एक ब्रिटिश दंपती का था. भारत आजाद हुआ तो इस दंपती ने इंडिया छोड़ने का मन बना लिया. ऐसे में उन्होंने मोहन सिंह को यह होटल खरीदने का ऑफर दिया. इस होटल के लिए उन्होंने 25 हजार रुपयों की मांग की, जो कि उन दिनों बड़ी रकम हुआ करती थी.

मोहन सिंह को यह प्रस्ताव पसंद आया. लेकिन आर्थिक समस्या थी. फिर भी उन्होंने होटल मालिक से कुछ समय मांगा. धन जमा करने के लिए मोहन सिंह ने अपनी पैतृक संपत्ति तथा पत्नी के जेबरात तक गिरवी रख दिए. बाकी के रकम के लिए उन्होंने समय मांगा और पांच साल के भीतर उन्होंने होटल की पूरी कीमत चुका दी. इस तरह 14 अगस्त 1934 को वह मोहन सिंह ओबेरॉय शिमला के सिसिल होटल का मालिक बन गया जो कभी मां के दिए हुए 25 रुपये लेकर यहां आया था.

होटल को चलाने के लिए मोहन सिंह ने खूब मेहनत की. उनकी पत्नी का भी इसमें बड़ा योगदान रहा, होटल में इस्तेमाल होने वाली सब्जियां और मीट वह खुद खरीदने जाती थीं. अपने इस योगदान द्वारा उन्होंने होटल में होने वाले खर्च में 50% तक की कमी ला दी थी. इस होटल को खरीदने के बाद मोहन सिंह ओबेरॉय ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा.

सन 1947 में ओबेरॉय पाम बीच होटल खोलने के साथ साथ मर्करी ट्रैवल्स के नाम से एक ट्रैवल एजेंसी भी खोल दी. इसके बाद 1949 में “द ईस्ट इंडिया होटल लिमिटेड” होटल कंपनी दार्जिलिंग समेत कई पर्यटन स्थलों में होटल, सन 1966 में बॉम्बे में 34-36 मंजिला होटल आदि की शुरुआत की. 25000 में होटल खरीदने वाले मोहन सिंह ने मुंबई में 18 करोड़ की लागत से होटल खड़ा किया था. ये सफर तेजी से आगे बढ़ता रहा.

एक छोटे से गांव से आया युवक जिसे किस्मत ने ना जाने कितनी बार छला था वह धीरे धीरे देश का सबसे बड़ा होटल उद्योगपति बन गया. मोहन सिंह ओबेरॉय को भारत सरकार द्वारा सन 2000 में पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया. जीवन में तमाम संघर्षों के बाद अपार सफलता अर्जित कर राय बहादुर मोहन सिंह ओबेरॉय 2002 में इस दुनिया को अलविदा कह गए.

आज ओबेराय ब्रांड के अधीकार में 18 लक्श्वरी होटेल्स और 3 लक्श्वरी जहाज भारत, मॉरीशस, इन्डोनेशिया, ईजीप्त, मिस्त्र और सौदी अरेबिया में है.

ओबरॉय होटल्स एंड रिसॉर्ट्स को सन 2007 में संयुक्त राज्य अमेरिका के बाहर सर्वश्रेष्ठ होटल चेन के रूप में और 2008 में ब्रिटेन के बाहर सर्वश्रेष्ठ होटल चेन के रूप में सम्मानित किया गया. ट्राइडेंट होटलस को “बेस्ट फर्स्ट क्लास होटल ब्रांड” का स्थान गैलीलियो एक्सप्रेस ट्रेवल वर्ल्ड अवार्ड्स में 2004 के बाद से लगातार चार साल तक दिया गया. मुंबई स्थित ओबेराय होटल को सीएनबीसी आवाज ट्रैवल अवार्ड्स द्वारा 2008 में ” भारत में बेस्ट बिजनेस होटल” का स्थान दिया गया.

ओबेरॉय समूह की कुछ बातें :

*** ओबेरॉय समूह एक लक्ज़री होटल समूह है जिसका मुख्यालय नई दिल्ली, भारत में है. 1934 में स्थापित, कंपनी 7 देशों में 32 लक्ज़री होटलों और दो रिवर क्रूज़ जहाजों का स्वामित्व और संचालन करती है.

*** ओबेरॉय इंटर कॉन्टिनेंटल , नई दिल्ली में सन 1965 में खोला गया. आई-कॉन, जैसा कि यह लोकप्रिय रूप से जाना जाता है, ने उन सुविधाओं की पेशकश की जो देश में किसी अन्य होटल से मेल नहीं खाती थी और यह भारत का पहला लक्ज़री होटल था.

*** ओबेराय उदय‌विलास होटल राजस्‍थान में है. ये होटल पचास एकड़ में जगह में फैला है और दुनिया भर के आलीशान होटलों को टक्कर देता है.

*** होटल ओबेरॉय मुंबई में कुल 337 कमरे हैं, जिनमें से 315 डबल रूम हैं और बाकी लक्ज़री सुइट्स हैं. प्रत्येक अतिथि कक्ष को आपके अत्यधिक आराम को ध्यान में रखते हुए डिजाइन किया गया है.

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