सांवलिया सेठ का मंदिर चित्तौड़गढ़ सॆ उदयपुर की ओर राष्ट्रीय राजमार्ग पर करीब 28 किमी दूरी पर भादसोड़ा ग्राम में विध्यमान है. यह मंदिर चित्तौड़गढ़ रेलवे स्टेशन से करीबन 41 किमी एवं डबोक एयरपोर्ट से 65 किमी की दूरी पर है. सांवलिया सेठ जी मंदिर अपनी सुंदरता और अपनी वैशिष्ट्य के कारण हर साल लाखों भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करता है.
सांवलिया सेठ के मंदिर की महिमा इतनी फैली है कि उनके भक्त व्यापार में उन्हें अपना हिस्सेदार बनाते हैं. मान्यता है कि जो भक्त खजाने में जितना देते हैं सांवलिया सेठ उससे कई गुना ज्यादा भक्तों को वापस लौटाते हैं. व्यापार जगत में उनकी ख्याति इतनी है कि लोग अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए उन्हें अपना बिजनेस पार्टनर बनाते हैं.
श्री सांवलिया जी मंदिर का भंडारा या दानपात्र माह में एक बार खोला जाता है. यह चतुर्दशी को खुलता है , और इसके बाद अमावस्या का मेला शुरू होता है. होली पर यह डेढ़ माह में और दीपावली पर दो माह में खोला जाता है. सांवलिया सेठ मंदिर में कई एनआरआई भक्त भी आते हैं. ये विदेशों में अर्जित आय में से सांवलिया सेठ का हिस्सा चढ़ाते हैं. इसलिए भंडारे से डॉलर, अमरीकी डॉलर, पाउंड, दिनार, रियॉल आदि के साथ कई देशों की मुद्रा निकलती है.
गुजरात के विश्वप्रसिद्ध अक्षरधाम मंदिर की तर्ज पर पिछले कई बरसों से श्री सांवलिया सेठ मंदिर का नव-निर्माण जारी है. इसमें मुख्य मंदिर के दोनों ओर बरामदों में दीवारों पर बेहद आकर्षक चित्रकारी की गई है. यहां विशेषकर उत्तर-पश्चिमी भारत के राज्य जैसे मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली उत्तर प्रदेश से लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं. 1961 से ही इस प्रसिद्ध स्थान पर देवझूलनी एकादशी पर विशाल मेले का आयोजन हो रहा है.
सांवलियाजी मंदिर परिसर एक भव्य सुंदर संरचना है जो गुलाबी बलुआ पत्थर में निर्मित है. मंदिर के गर्भगृह में सेठ सांवलिया जी की काले पत्थर की बनी मूर्ति स्थापित है जो भगवान कृष्ण के रंग को दर्शाती है. सांवलिया सेठ मंदिर की वास्तुकला प्राचीन हिंदू मंदिरों से प्रेरित है मंदिर की दीवारों और खम्भों पर सुंदर नक्काशी की गयी है जबकि, फर्श गुलाबी, शुद्ध सफेद और पीले रंग के बेदाग रंगों से बना है.
ऐसी भी मान्यता है कि भगवान श्री सावलिया सेठ का संबंध मीरा बाई से है. किवदंतियों के अनुसार सांवलिया सेठ मीरा बाई के वही गिरधर गोपाल है, जिनकी वह पूजा किया करती थी. तत्कालीन समय में संत-महात्माओं की जमात में मीरा बाई इन मूर्तियों के साथ भ्रमणशील रहती थी.
दयाराम नामक संत की ऐसी ही एक जमात थी जिनके पास ये मूर्तियां थी. बताया जाता है की जब औरंगजेब की सेना मंदिरों में तोड़-फोड़ कर रही थी तब मेवाड़ में पहुंचने पर मुगल सैनिकों को इन मूर्तियों के बारे में पता लगा. मुगलों के हाथ लगने से पहले ही संत दयाराम ने प्रभु-प्रेरणा से मूर्तियों को बागुंड-भादसौड़ा की छापर में एक वट-वृक्ष के नीचे गड्ढा खोदकर डाल दिया.
किवदंतियों के अनुसार कालान्तर में सन 1840 मे मंडफिया ग्राम निवासी भोलाराम गुर्जर नामक ग्वाले को सपना आया की भादसोड़ा-बागूंड गांव की सीमा के छापर में भगवान की तीन मूर्तिया जमीन मे दबी हुई हैं. जब उस जगह पर खुदाई की गयी तो सपना सही निकला और वहां से एक जैसी तीन मूर्तिया प्रकट हुईं. सभी मूर्तियां बहुत ही मनोहारी थी. देखते ही देखते ये खबर सब तरफ फैल और आस-पास के लोग प्राकट्यस्थल पर एकत्रित हुए.
भगवान श्री कृष्ण को सांवलिया या सांवरिया सेठ भी कहा जाता है.भगवान सांवलिया सेठ का मंदिर सुबह 5:30 बजे खुलने के साथ ही मंगला आरती होती है जिसमें 6:30 बजे तक दर्शन होते हैं. उसके बाद श्रंगार के लिए पर्दा लगाया जाता है श्रंगार होने के बाद 8:00 बजे से 12:00 बजे तक निरंतर दर्शन होते हैं.
सांवरिया सेठ जी का मेला हिंदू कैलेंडर के भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि के दिन लगता है.
अफीम चढ़ाने की परंपरा :
कहा जाता है कि अफीम के तस्कर इस मंदिर में अफीम चढ़ाकर अपनी मन्नत मांगते हैं. हर वर्ष यहां दान पेटी से करोड़ों रुपए की कीमत की अफीम निकलती है.