सूरदास जी प्रभु श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं. उनकी रचनाएं दिल को छू जाती हैं. ऐसे में उन्हें हिंदी साहित्य का सूर्य भी माना जाता है. श्री सूरदास जी वात्सल्य, श्रृंगार और शांत रसों के लिए जाने जाते है.
महान कवि और भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त सूरदास का जन्म 1478 ई में हुआ था. इनके जन्म स्थान और जन्मांध को लेकर विद्वानों में मतभेद है. कुछ विद्वानो का मानना हैं कि सूरदास जी का जन्म दिल्ली के समीप सीही नामक गांव में हुआ था. इसके बाद में इनके माता-पिता गऊघाट में जाकर बस गए थे, जो आगरा और मथुरा के मध्य स्थित है. कुछ विद्वान कहते हैं कि इनका जन्म रुनकता गांव में हुआ था, जो गऊघाट से बहुत नजदीक है.
श्रीकृष्ण से सूरदास ने मांगा अंधत्व :
एक बार सूरदास जी भजन कीर्तन करने के बाद अपनी कुटिया की ओर जा रहे थे. सूरदास अंधे होने के कारण अंदाजे से लाठी के सहारे अपने गंतव्य स्थान की ओर जा रहे थे तो उनको ठोकर लगी और वह कुएं में गिर गए.
सूरदास जी ने वहां भी श्री कृष्ण के नामका भजन कीर्तन करना जारी रखा. श्री कृष्ण भक्त की पीड़ा देखकर बालक का रूप धारण कर सूरदास के समीप आए और कहने लगे कि,” बाबा आप मेरा हाथ पकड़ कर बाहर आ जाओ.”
सूरदास समझ गए कि इस सुनसान मार्ग में मेरे प्रभु कन्हैया के सिवाय और कोई नहीं हो सकता. मुझे इस कुएं से बाहर निकालने मेरे प्रभु कृष्ण आ गए हैं. सूरदास जी बोले कि,” मैं तो अंधा हूं मुझे आपका हाथ नहीं दिखेगा. आप ही मेरा हाथ पकड़कर बाहर निकाल दो.” श्री कृष्ण ने सूरदास जी का हाथ पकड़ लिया और सूरदास जी बाहर आ गए.
कुए से बाहर आते ही सूरदास जी ने श्री कृष्ण का हाथ पकड़ लिया. श्री कृष्ण कहने लगे कि बाबा मेरा हाथ अब छोड़ दो. सूरदास जी कहने लगे कि प्रभु आप मुझे बहुत मुश्किल से मिले हैं , इसलिए मैं इतनी जल्दी आपका हाथ नहीं छोडूंगा…. फिर सूरदास जी कहने लगे कि……
हाथ छुड़ाये जात हो,
निर्बल जानि के मोय…
हृदय से जब जाओ,
तो सबल जानूँगा तोय।।
सूरदास ने श्री कृष्ण का हाथ नहीं छोड़ा. तभी वहां राधा रानी प्रकट हुई. उनकी पायल की मधुर आवाज सुनकर सूरदास जी ने उनके चरण कमल पकड़ लिए. तभी उनकी पायल सूरदास जी के हाथों में आ गई. तब श्री राधाकृष्ण ने सूरदास जी की भक्ति से खुश होकर उनके नैत्रों की रोशनी प्रदान की.
सूरदास जी ने अपने आराध्य श्री कृष्ण और राधा रानी के दर्शन करके धन्य हो गए. सूरदास जी दोनों के दर्शन कर भगवान से कहा कि, प्रभु मेरी एक विनती है कि मुझे पुनः अंधा ही बना दो.
मैंने अपने नैत्रों से आपके दर्शन कर लिए हैं इसलिए मैं अब इन आंखों से और किसी को नहीं देखता चाहता. श्री राधा कृष्णने उनकी विनती स्वीकार की.
कुछ इतिहासकारों के अनुसार संत सूरदासका जन्म हरियाणाके फरीदाबाद के ” सीही ” गांवमें एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ था. सूरदास का परिवार इतना गरीब था कि सबका पेट ठीक तरह से भर नहीं पाता था. उनके माता पिता ने उनका कोई नाम भी नहीं रखा था. अंधा होने के कारण सभी लोग उन्हें सूरदास पुकारते थे.
सूरदास जी के माता-पिता उनके अंधेपन के कारण उनपर ध्यान नहीं देते थे और प्यार भी नहीं करते थे. एक दिन पिता के पीटने पर सूरदास ने अपने पिता से कहा कि मेरे कारण आप सभी लोग परेशान हैं. मैं आपको दुखी नहीं देख सकता. इसलिए मैं घर छोड़कर जा रहा हूं. मैंने प्रभु के बारे में सुना है. अब मैं उनके सहारे जीवन व्यतीत करूंगा. यदि प्रभु की इच्छा होगी, तो वह मेरी रक्षा करेंगे.
संत श्री सूरदास एक महान कवि और संगीतकार थे जो भगवान कृष्ण को समर्पित उनके भक्ति गीतों के लिए आज भी जाने जाते हैं. सूरदास जी अंधे पैदा हुए थे और इस वजह से उन्हें अपने परिवार से कभी भी प्यार नहीं मिला. उन्होंने छह साल की छोटी उम्र में अपना घर छोड़ दिया और बहुत कम उम्र में भगवान कृष्ण की स्तुति करने लगे.
जैसे-जैसे सूरदास ख्याति दूर-दूर तक फैली, तो मुगल बादशाह अकबर उनके संरक्षक बन गए. सूरदास ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष ब्रज में बिताए थे.
सूरदास की रचनाओं में कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम और भक्ति का वर्णन मिलता है. इन रचनाओं में वात्सल्य रस, शांत रस, और श्रंगार रस शामिल है. सूरदास ने अपनी कल्पना के माध्यम से कृष्ण के अदभुत बाल्य स्वरूप, उनके सुंदर रुप, उनकी दिव्यता वर्णन किया है. इसके अलावा सूरदास ने उनकी लीलाओं का भी वर्णन किया है.
महाकवि सूरदास द्वारा लिखित 5 ग्रंथ :
(1) सूरसागर : जो सूरदास की प्रसिद्ध
रचना है. जिसमें सवा लाख
पद संग्रहित थे. किंतु अब
सात-आठ हजार पद ही
मिलते हैं.
(2) सूरसारावली.
(3) साहित्य-लहरी.
(4) नल-दमयन्ती.
(5) ब्याहलो.
माना जाता है कि वह अपने गुरु से महज दस दिन छोटे थे. सूरदास की रचनाओं में कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम और भक्ति का वर्णन मिलता है. कहा जाता है कि सूरदास 100 वर्ष से भी
अधिक उम्र तक जीवित रहे.
जब सूरदास जी आगरा और मथुरा के बीच यमुना के किनारे गऊघाट पर आकर रहने लगे. तब यहां पर ही वे संत श्री वल्लभाचार्य के संपर्क में आए और उनसे गुरु दीक्षा ली. वल्लभाचार्य ने ही उन्हें भागवत लीला का गुणगान करने की सलाह दी. इसके बाद उन्हें श्रीकृष्ण का गुणगान शुरू कर दिया और जीवन में कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा.