महर्षि विश्वामित्र, त्रेतायुग मे जन्मे भगवान श्री राम जी के गुरु थे. उन्होंने श्रीराम को धनुर्विद्या और शास्त्र विद्या का ज्ञान दिया था. ऋषि विश्वामित्र बड़े ही तेजस्वी और ज्ञानी महापुरुष थे. ऋषि बननेसे पूर्व बड़े पराक्रमी और प्रजावत्सल राजा थे.
कामधेनु गाय को हड़पने के चक्कर मे उन्होंने ऋषि वशिष्ठ से युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए थे. अपनी हार से लज्जित होकर विश्वामित्र घोर तपस्या के लिए प्रेरित हुये थे.
इतिहास के सबसे श्रेष्ठ ऋषियों में से एक जो कि जन्म से तप और ज्ञान के कारण इन्हें महर्षि की उपाधि मिली थी. जिसके साथ ही इन्हें चारो वेदों का ज्ञान एवम ॐ कार का ज्ञान प्राप्त हुआ था. यह पहले ऋषि थे जिन्होंने गायत्री मंत्र को समझा. बताया जाता हैं ऐसे केवल 24 गुरु थे जो गायत्री मन्त्र को जानते हैं उन्ही में से विश्वामित्र पहले महर्षि थे.
वेद,पुराणों से पता चलता है कि देवी, परी, अप्सरा, यक्षिणी, इन्द्राणी और पिशाचिनी आदि कई प्रकार की स्त्रियां हुआ करती है. उनमें अप्सराओं को सबसे सुंदर और जादुई शक्ति से संपन्न माना जाता है.
अप्सरा को ” देवलोक ” मे रहनेवाली अति सुंदर, तेजस्वी अलौकिक दिव्य स्त्री मानी जाती है. मेनका स्वर्ग की सबसे सुंदर अप्सरा थी. महान तपस्वी ऋषि विश्वामित्र ने नए स्वर्ग के निर्माण के लिए जब तपस्या शुरू की तो उनके तप से देवराज इन्द्र ने घबराकर उनकी तपस्या भंग करने के लिए मेनका को भेजा था.
ऋषि विश्वामित्र तपस्या मे लीन रहते थे. कामुक मेनका ने अपने रुप और सौंदर्य के बल पर विश्वामित्र का तप भंग कर दीया. विश्वामित्र मेनका के प्रेम मे पागल बन गया. उन्होंने मेनका के साथ सहवास किया.
ऋषि विश्वामित्र का तप भंग होनेके बाद भी मेनका वापस इन्द्रलोक नहीं लौटी, क्योंकि ऐसा करने पर ऋषि फिर से तपस्या आरंभ कर सकते थे. ऐसे में मेनका से विश्वामित्र ने विवाह कर लिया और मेनका से विश्वामित्र को एक अति सुंदर कन्या प्राप्त हुई जिसका नाम शकुंतला रखा गया.
कुछ वर्षों साथ रहने के बाद मेनका के दिल में प्यार के साथ इंद्रलोक की चिंता भी सताने लगी थी की उनकी अनुपस्थिति में अप्सरा उर्वशी, रम्भा, आदि इंद्रलोक में आनंद उठा रही होंगी. दरअसल, मेनका का धरती पर समय बिताने का वक्त पूरा हो गया था और उसे जो लक्ष्य दिया था वह भी पूरा हो चुका था. इसीलिए मेनका अपने पति और बेटी को छोड़कर पुन: इंद्रलोक चली गई.
मेनका के छोड़ जाने के बाद शकुंतला का लालन पालन और शिक्षा दीक्षा ऋषि कण्व ने किया था इसलिए वे उसके धर्मपिता थे. इसी पुत्री का आगे चलकर सम्राट दुष्यंत से प्रेम विवाह हुआ, जिनसे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई. यही पुत्र राजा भरत थे. पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत की गणना ” महाभारत ” में वर्णित 16 सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है. जिसके ही नाम से हमारे देश का नाम ” भारत ” पड़ा है.
अप्सराओ के बारेमें कहा गया है की अप्सराएं गुलाब, चमेली, रजनी गंधा, हरसिंगार और रात रानी की गंध पसंद करती है. वे अति सुंदर और लगभग 16 या 17 वर्ष की उम्र समान दिखाई देती है.
शास्त्रों के अनुसार देवराज इन्द्र के स्वर्ग में 11 अप्सराएं प्रमुख सेविका है . ये 11 अप्सराएं कृतस्थली, प्रम्लोचा, पुंजिकस्थला, मेनका, रम्भा, अनुम्लोचा, घृताची, वर्चा, उर्वशी, पूर्वचित्ति और तिलोत्तमा थी. इन सभी अप्सराओं की प्रधान अप्सरा रम्भा थी.अलग-अलग मान्यताओं में अप्सराओं की संख्या 108 से लेकर 1008 तक बताई गई है.
माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज है, उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुठकर एक अलग ही स्वर्गलोक की रचना कर दी थी.
राम और लक्ष्मण के गुरु महर्षि विश्वामित्र का आश्रम बक्सर (बिहार) में स्थित था. इस स्थान को गंगा और सरयू संगम के निकट बताया गया है. गुरु विश्वामित्र के आश्रम को ” सिद्धाश्रम ” भी कहा जाता था.
पुराणों के अनुसार विश्वामित्र ने शस्त्रों का त्याग किया था इसलिए वे राक्षसी ताड़का से युद्ध नहीं कर सकते थे , इसलिये उन्होंने अयोध्या से भगवान राम को जनकपुरी में लाकर तड़का का वध करवाया था. इन्ही विश्वामित्र के कहने पर भगवान श्री राम ने सीता के स्वयंवर में भाग लिया था.
विश्वामित्र और वशिष्ठ के युद्ध के बारेमें बताया जाता है की सम्पूर्ण धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त करके ऋषि विश्वामित्र बदला लेने के लिये वशिष्ठ जी के आश्रम में जाते है और उन्हें ललकार कर अग्निबाण चला देता है. वशिष्ठ जी भी अपना धनुष संभाल लेता है. यहां पर विश्वामित्र ने एक के बाद एक आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, रुद्रास्त्र, इन्द्रास्त्र तथा पाशुपतास्त्र एक साथ छोड़ देता है. मगर वशिष्ठ जी ने अपने मारक अस्त्रों से मार्ग में ही विश्वामित्र के शास्त्रों को नष्ट कर देता है.
इस पर विश्वामित्र ने और भी अधिक क्रोधित होकर अनेक अस्त्रों का प्रयोग कर देता है. वशिष्ठ उन सबको भी नष्ट करके उन पर ब्रह्माण्ड अस्त्र छोड़ देता है. ब्रह्माण्ड अस्त्र के भयंकर ज्योति और गगनभेदी नाद से सारा संसार पीड़ा से तड़पने लगता है. सब ऋषि-मुनि उनसे प्रार्थना करने लगे कि आपने विश्वामित्र को परास्त कर दिया है. अब आप ब्रह्माण्ड अस्त्र से उत्पन्न हुई ज्वाला को शान्त करें. इस प्रार्थाना को सुनकर वशिष्ठ जी ब्रह्माण्ड अस्त्र को वापस बुला लेता है.
ऋषि विश्वामित्र ब्राह्मण का पद प्राप्त करने के लिये पूर्व दिशा में जाकर कठोर तपस्या करने लगे. इस तपस्या को भ़ंग करने के लिए नाना प्रकार के विघ्न उपस्थित हुए किन्तु उन्होंने बिना क्रोध किये उन सबका निवारण किया. तपस्या की अवधि समाप्त होने पर जब वे अन्न ग्रहण करने के लिए बैठे, तभी ब्राह्मण भिक्षुक के रूप में आकर इन्द्र ने भोजन की याचना की. विश्वामित्र ने सम्पूर्ण भोजन उस याचक को दे दिया और स्वयं निराहार रह गये.
इन्द्र को भोजन देने के पश्चात विश्वामित्र के मन में विचार आया कि अभी मेरे भोजन ग्रहण करने का समय नहीं आया है इसीलिये याचक के रूप में यह विप्र उपस्थित हो गया, मुझे अभी और तपस्या करना चाहिये. अतः वे मौन रहकर फिर दीर्घकालीन तपस्या में लीन हो गये. अब उन्होंने प्राणायाम से श्वास रोक कर महादारुण तप किया.
इस तप से प्रभावित देवताओं ने ब्रह्माजी से निवेदन किया कि भगवन विश्वामित्र की तपस्या अब पराकाष्ठा को पहुँच गई है. अब वे क्रोध और मोह की सीमाओं को पार कर गये हैं. अब इनके तेज से सारा संसार प्रकाशित हो उठा है. सूर्य और चन्द्रमा का तेज भी इनके तेज के सामने फीका पड़ गया है. अतः आप प्रसन्न होकर इनकी अभिलाषा पूर्ण करके ब्राह्मण पद दीया जाय.
देवताओं के इन वचनों को सुनकर ब्रह्मा जी उन्हें ब्राह्मण की उपाधि प्रदान तो की परंतु विश्वामित्र का कहना था की उसे ओंकार, षट्कार तथा चारों वेद भी प्रदान करें. तथपश्चात अपनी तपस्या को मैं तभी सफल समझूँगा जब वशिष्ठ जी मुझे ब्राह्मण और ब्रह्मर्षि मान लेंगे.
विश्वामित्र की बात सुन कर सब देवताओं ने वशिष्ठ जी का पास जाकर उन्हें सारा वृत्तान्त सुनाया. उनकी द्वारा की गई कठोर तपस्या की कथा सुनकर वशिष्ठ जी विश्वामित्र के पास पहुँचे और उन्हें अपने हृदय से लगा कर बोले कि , हे विश्वामित्र जी आप वास्तव में ब्रह्मर्षि हैं. मैं आज से आपको ब्राह्मण स्वीकार करता हूँ. और उन्हें ब्राह्मण रूप में संपूर्ण विश्व ने स्वीकार कर लिया गया.
—-=== शिव सर्जन ===——